
सरसंघचालक ने बताए संघ के अगली शताब्दी के लक्ष्य
सर्वेश कुमार सिंह
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत ने तीन दिन की व्य़ाख्यानमाला में संघ के सम्बन्ध में व्याप्त अनेक भ्रांतियों को तो दूर किया ही, उन्होंने संघ के सौ वर्ष पूर्ण होने के अवसर पर अगले सौ वर्ष के लक्ष्य भी समाज और देश के सामने रख दिये हैं। नई दिल्ली के विज्ञान भवन में 26, 27 और 28 अगस्त को आयोजित व्याख्यानमाला “100 वर्ष की संघ यात्रा- नए क्षितिज” के अन्तर्गत सरसंघचालक ने जहां हिन्दुत्व, राष्ट्रीयता, अखण्ड भारत आदि विषयों पर स्पष्टता से संघ की पक्ष रखा, वहीं भारत में इस्लाम, ईसाइयत, धर्मान्तरण जैसे प्रश्नों पर भारतीय चिंतन धारा के अनुरूप उपस्थित श्रोताओं के उत्तर दिये। लेकिन, सबसे महत्वपूर्ण यह है कि सरसंघचालक डा भागवत ने न केवल बीते 100 साल की यात्रा का सिंहावलोकन कराया, बल्कि अगले 100 साल के लक्ष्य भी इस व्याख्यानमाला में प्रस्तुत किये।
डा मोहन भागवत के तीन दिन के व्याख्यान को सुनने और गहराई से समझने के बाद स्पष्ट होता है कि संघ अपनी यात्रा के अगले सौ वर्ष में क्या चाहता है और कैसा समाज चाहता है, कैसे राष्ट्र की कल्पना करता है। आजकल समाज में एक विचार बहुत तेजी से चर्चा में है कि आज संघ अपनी उस मूल विचारधारा से पृथक हो गया है, जोकि डा केशवराव बलिराम हेडगार ने स्थापित की और संघ की स्थापना की। इस विचार के लोगों को डा. मोहन भागवत के तीन दिवसीय व्याख्यान को अवश्य सुनना और समझना चाहिए। इसमें डा मोहन भागवत ने स्पष्ट रूप से कहा है कि संघ हिन्दू समाज के संगठन, व्यक्ति निर्माण और भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, इस विचार पर पहले की तरह कायम है।
उन्होंने इसे विस्तार से इस प्रकार बताया, “उन्होंने कहा कि संघ एक विकासशील संगठन है, लेकिन यह तीन बातों पर दृढ़ है- (एक) व्यक्तिगत चरित्र निर्माण से समाज के आचरण में परिवर्तन संभव है, और हमने यह सिद्ध कर दिखाया है। (दो) समाज को संगठित करें, बाकी सभी परिवर्तन अपने आप हो जाएंगे। (तीन) भारत एक हिन्दू राष्ट्र है”। ये जो तीन बातें मोहन भागवत ने कहीं हैं, वही ड़ा हेडगेवार ने भी कही थीं। इसमें कोई परिर्वतन नहीं है। अतः संघ की मूल विचारधारा और लक्ष्य कतई भी नहीं बदले हैं। इस भ्रम को दूर करना होगा कि संघ किसी नई धारा की ओर जा रहा है।
चूंकि संघ सौ साल की यात्रा पूरी कर चुका है, इसलिए इसके अपने अनुभव भी हैं। इसमें उतार-चढ़ाव, वैचारिक आक्रमण, प्रतिबंध जैसी कठिनाइयों का भी संघ ने सामना किया है। संघ पर झूठे आरोप लगे जो कभी प्रमाणित नहीं हुए। लेकिन, संघ की यात्रा लक्ष्य और उद्देश्य की स्पष्टता के साथ आगे बढती गई। इससे संघ के विचार और स्वयंसेवकों की सोच में परिपक्वता आयी है। तीन दिन की व्याख्यानमाला में कोई विषय ऐसा नहीं था जिस पर सरसंघचालक डा. भागवत ने स्पष्ट और सटीक विचार व्यक्त नहीं किया हो। जो प्रश्न सबसे ज्यादा चर्चा में है कि उन्होंने मुसलमानों के सम्बन्ध में कहा कि “इस्लाम जिस दिन से भारत में आया, तब से आजतक यहां है और आगे भी रहेगा”। यह विचार कोई नया नहीं है। सम्पूर्ण सनातन परम्परा और समावेशी है। यह विचार स्वयं अनेक मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने व्यक्त किया है कि हम इस्लाम को मानते हैं किन्तु न तो हम मुगल हैं और न ही अरब हैं, हम सब भारतीय हैं। हम यहीं के हैं, हमारे पूर्वज हिन्दू थे। हमने धर्म बदला है, राष्ट्रीयता नहीं बदली। इसी बात को डा. मोहन भागवत ने भी कहा कि विदेशी धर्म को अपनाने से राष्ट्रीयता नहीं बदलती। पूर्वज समाज हैं और डीएनए 40 हजार वर्ष से एक ही है, तो फिर विवाद कहां है।
ड़ा. मोहन भागवत ने जब हिन्दू राष्ट्र के प्रश्न का उत्तर दिया तो स्पष्ट रूप से कहा कि हिन्दू राष्ट्र है, इसे आधिकारिक रूप से घोषित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि पूर्वज समान हैं, संस्कृति समान है, आचार विचार समान हैं तो केवल मानचित्र पर कोई रेखा खींच देने से अलग नहीं हो जाता। इसलिए सभी इस हिन्दू राष्ट्र के अंग हैं, अगर आज नहीं मान रहे हैं तो कल मानेंगे, ऐसा हमारा विश्वास है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि हमारी संस्कृति समावेशी है, विश्व बन्धुत्व में विश्वास रखने वाली है। हम सबका कल्याण चाहते हैं, हम समाज, पर्यावरण, संस्कृति सभी को संरक्षित रखना चाहते हैं। इसीलिए उहोंने स्पष्ट रूप से कहा कि भारत की श्रेष्ठता विश्वगुरु के रूप में है।
अगले शताब्दी की चुनौतियों से भी संघ भिज्ञ है। यह बात स्पष्ट रूप से सरसंघचालक के तीन दिवसीय व्याख्यान में स्पष्ट रूप से सामने आयी। उन्होंने शताब्दी वर्ष के लिये जो कार्य प्रमुखता से निर्धारित किये हैं, उनमें पंच परिवर्तन प्रमुख हैं। संघ इन पर अपना और सम्पूर्ण समाज का ध्यान केन्द्रित करके इन्हें सफलतापूर्वक पूर्ण करना चाहता है। ये पंच परिवर्तन इस प्रकार हैं-कुटुम्ब प्रबोधन, सामाजिक समरसता, पर्यावरण संरक्षण, स्व की भावना का निर्माण (स्वेदेशी) तथा नागरिक कर्तव्यों का बोध। ये पांच विषय संघ ने दीर्घकालीन करणीय कार्यों के रूप में निर्धारित किये हैं। इनके दूरगामी परिणाम होंगे। आज जिन विषयों की सर्वाधिक चर्चा होनी चाहिए और उहें अपनाया जाना चाहिए, उनमें ये पांच विषय शामिल हैं। ये पंच परिवर्तन केवल संघ के कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों के लिए हैं ऐसा नहीं है। ये कार्य सम्पूर्ण समाज को करने और अपनाने चाहिए। आने वाले भविष्य की चुनौतियों का अगर सामना करना है तो हमें टूटते परिवारों को बचाना होगा, सामाजिक विषमता और भेदभाव को जड मूल से समाप्त करना होगा, पर्यावरण और प्रकृति नहीं बची तो कोई नहीं बचेगा, राष्ट्र की प्रगति और सुरक्षा लिए “स्व” का भाव यानि कि हम श्रेष्ठ हैं, हमारा राष्ट्र श्रेष्ठ है, हमारा समाज श्रेष्ठ है. हमारा उत्पादन श्रेष्ठ है। हमें हर स्थिति में स्वदेशी के भाव को प्रबल रखना होगा।
व्याख्यानमाला में डा मोहन भागवत ने कई प्रश्नों का उत्तर देते हुए श्री गुरु जी के विचार और पुस्तक, श्री शेषाद्रि जी की पुस्तक और श्री सोनी जी की पुस्तक का उल्लेख किया। यानि कि संघ अपने मूल विचार हिन्दू, हिन्दुत्व और राष्ट्रीयता पर पूर्ववत दृढ है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं है। इसके लिए उहोंने पहले दिन के व्याख्यान में संघ की प्रार्थना का उल्लेख किया, जिसमें अन्त में कहते हैं “भारत माता की जय”। इसका आशय स्पष्ट है कि संघ का निर्माण ही भारत को केन्द्र में रखकर किया गया।