
“जब कोई महिला अपराध में शामिल होती है, तो समाज उसकी परवरिश, चरित्र और कोमलता पर सवाल उठाता है, जबकि पुरुष अपराधियों को अक्सर सहानुभूति या ‘दबंगई’ का जामा पहनाया जाता है। अपराध का कोई लिंग नहीं होता और स्त्री भी इंसान है — जिसमें अच्छाई-बुराई, स्वतंत्रता और जिम्मेदारी, सब कुछ समाहित है। समाज को चाहिए कि वह स्त्री को देवी या दासी नहीं, बल्कि एक पूर्ण इंसान के रूप में देखना सीखे।
प्रियंका सौरभ
“कभी देवी, कभी डायन, कभी कुलवधू, कभी कुलटा” — भारतीय समाज में स्त्री की पहचान अक्सर इसी दायरे में सिमटी रही है। और जब कोई स्त्री इन सांचों को तोड़ती है, समाज चीख पड़ता है — “क्या हो गया है इन औरतों को?” हाल ही में कर्नाटक में एक सेवानिवृत्त DGP की हत्या में एक महिला का नाम सामने आते ही, यही प्रश्न फिर ज़ुबानों पर चढ़ गया।
मीडिया ने उसे “हुस्न की हत्यारन”, “कातिल ब्यूटी क्वीन”, “हनीट्रैप” जैसे शीर्षकों से नवाजा। जनता चौंकी — “इतनी पढ़ी-लिखी होकर भी ऐसा कर सकती है कोई औरत?” मानो पढ़ाई-लिखाई से नैतिकता की गारंटी मिलती हो, और स्त्री से अपराध की अपेक्षा ही न की जा सकती हो।
पर क्या अपराध का कोई लिंग होता है? क्या नैतिकता स्त्रियों की बपौती है और अनैतिकता सिर्फ पुरुषों की बपौती?
स्त्रीत्व का पुराना पाठ: कोमलता, त्याग और चुप्पी
हमें बचपन से सिखाया गया — “लड़कियाँ चुप रहती हैं”, “गुस्सा लड़कों को शोभा देता है”, “औरतों का काम घर संभालना है”, “अच्छी औरत वही जो झुके, बर्दाश्त करे, सहन करे।”
लेकिन आज की स्त्री इन चुप्पियों से बाहर निकल रही है। कभी वह अपने अधिकार के लिए बोलती है, कभी ज़ुल्म के खिलाफ खड़ी होती है, तो कभी गलती भी करती है। लेकिन जैसे ही वह परंपरा से इतर कोई कदम उठाती है — समाज तुरंत उसे “बिगड़ी हुई”, “धर्म भ्रष्ट”, “चरित्रहीन” कहने लगता है।
परवरिश पर सवाल — कब, किसके लिए?
कर्नाटक की महिला आरोपी के मामले में सबसे पहला सवाल यही उठा — “कहां पर चूक हो गई परवरिश में?”
मगर क्या यही सवाल तब पूछा जाता है जब कोई पुरुष अपराध करे? जब बलात्कार हो, गैंगवार हो, भ्रष्टाचार हो, तो कोई नहीं कहता — “कहां गलती हो गई मर्द की परवरिश में?” समाज की नजरों में स्त्री का अपराध एक चरित्र दोष है, जबकि पुरुष का अपराध ‘मज़बूरी’, ‘गुस्सा’, या ‘हालात’।
हुस्न से खौफ क्यों?
जिस तरह मीडिया ने DGP हत्या कांड को प्रस्तुत किया, उसमें अपराध से ज़्यादा महिला की खूबसूरती और चालाकी पर जोर था। क्या यह अचरज की बात नहीं कि एक महिला अगर बुद्धिमत्ता से अपराध करे, तो वह ‘साजिशकर्ता’ कहलाती है, लेकिन वही बुद्धिमत्ता अगर किसी पुरुष अपराधी में हो, तो वह ‘मास्टरमाइंड’ बन जाता है?
कहीं यह स्त्री की बढ़ती बौद्धिक, सामाजिक, और आर्थिक स्वतंत्रता से हमारा डर तो नहीं?
कोमल भावना मर गई या आत्मरक्षा जाग गई?
हम कहते हैं — “कहां मर गई स्त्री की कोमल भावना?”
लेकिन यह सवाल तब क्यों नहीं उठता जब हर 15 मिनट में एक स्त्री घरेलू हिंसा का शिकार होती है, जब दहेज के लिए जलती हैं बेटियाँ, जब किसी छात्रा को इंस्टाग्राम पर ब्लैकमेल कर आत्महत्या पर मजबूर कर दिया जाता है?
स्त्री कोमल थी, है और रहेगी — लेकिन अब वह सिर्फ ‘दया की मूर्ति’ नहीं रहना चाहती। वह अपनी रक्षा करना जानती है। वह पूछती है — “हमारे लिए कोमल भावना मांगने वाला समाज, खुद कब कोमल था?”
अपराधी स्त्री या स्त्री अपराधी?
कर्नाटक कांड हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या स्त्री का अपराध उसे ‘स्त्री’ होने के अधिकार से वंचित कर देता है? क्या वह फिर सिर्फ ‘अपराधी’ नहीं, बल्कि समाज की ‘गिरती नैतिकता’ की मिसाल बन जाती है?
पुरुषों के अपराध को कभी-कभी बहादुरी, राजनीति, दबंगई या फिल्मी नायकत्व की तरह glorify किया जाता है — लेकिन स्त्री अगर गलती करे, तो वह पाप की देवी बन जाती है।
क्या समाज तैयार है आज़ाद स्त्री के लिए?
यह प्रश्न उठता है कि क्या हमारा समाज वास्तव में एक स्वतंत्र, सोचने-समझने वाली स्त्री के लिए तैयार है? नहीं, क्योंकि हमें अब भी वही स्त्री चाहिए जो संकोच में रहे, पर्दे में रहे, प्रेम छिपाकर करे, और गुस्सा पल्लू में छुपा ले।
लेकिन आज की स्त्री प्रेम भी खुलकर करती है, विद्रोह भी, और विरोध भी। वह रिश्तों में भी बराबरी चाहती है और समाज में भी।
नई स्त्री: न देवी, न दासी, सिर्फ इंसान
समाज को अब स्त्री को देवी या दासी की भूमिका से बाहर निकाल कर इंसान समझने की ज़रूरत है। और इंसान होने का मतलब है — अच्छाई और बुराई दोनों की संभावनाएं। गलती करने, सुधारने, चुनने और लड़ने का हक।
आख़िर में…
कर्नाटक DGP हत्याकांड में आरोपी महिला दोषी है या नहीं — यह न्यायालय तय करेगा। लेकिन समाज ने पहले ही उसे दोषी ठहराकर, “क्या हो गया है इन औरतों को?” जैसी टिप्पणियों से स्त्री जाति को कठघरे में खड़ा कर दिया है।
ज़रूरत इस बात की है कि हम स्त्री को पूर्वाग्रह की नजरों से नहीं, इंसान की नजरों से देखें।
ज़रूरत इस बात की है कि हम परवरिश को लिंग से न जोड़ें, और नैतिकता की चाबी सिर्फ महिलाओं के गले में न टांगे।
स्त्रियाँ बदल रही हैं — और समाज को अब तय करना है कि वह इस बदलाव को डर की निगाह से देखेगा या सम्मान की।