
अशोक भाटिया
बिहार विधानसभा चुनाव नजदीक हैं और सभी पार्टियों ने तैयारियों को लेकर कमर कस ली है। नीतीश कुमार की अगुवाई वाली एनडीए सरकार को आरजेडी की अगुवाई वाला महागठबंधन चुनौती दे रहा है। भाजपा के बड़े नेताओं के बिहार के लगातार दौरे हो रहे है । पिछले कुछ महीनों से बिहार के लिए केंद्र सरकार ने अपना खजाना खोल दिया है। इसी क्रम में अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हाल ही में एक बार फिर बिहार पहुंचे हैं, जहां उन्होंने 12,992 करोड़ रुपये की लागत वाली कई परियोजनाओं का उद्घाटन किया। इसमें गंगा पर बना 6 लेन वाला पुल भी शामिल है। इसके अलावा वैशाली से कोडरमा के बीच का बुद्ध सर्किट ट्रेन की शुरुआत भी हुई। इस बीच चुनाव में छोटी-छोटी पार्टियां भी बड़ी भूमिका अदा करने के लिए तैयार दिख रही हैं। ये छोटी पार्टियां भले ही कम सीटों पर अपना असर दिखाएंगी, लेकिन चुनाव के बाद बनने वाले सियासी परिदृश्य में किंगमेकर की भूमिक निभा सकती हैं।
इतिहास पर नज़र डाले तो बिहार में 2020 का विधानसभा चुनावों बेहद रोमांचक साबित हुआ था। इसका एक कारण छोटे दलों का मजबूत प्रदर्शन था। 11 सीटों पर फैसला एक हजार से भी कम वोटों से हुआ, और 26 सीटों पर 1 प्रतिशत से 2।5 प्रतिशत के अंतर से जीत हासिल हुई थी। इसमें जद (यू) के कृष्ण मुरारी शरण (प्रेम मुखिया) की जीत भी शामिल है। उन्होंने हिलसा विधानसभा क्षेत्र में सिर्फ 12 वोटों से जीत हासिल की, जो बिहार के इतिहास में कम से कम 14 चुनावों में सबसे कम अंतर से जीत थी।
मुख्य मुकाबला भाजपा और जद(यू) के नेतृत्व वाले एनडीए और राजद, कांग्रेस और वाम दलों के नेतृत्व वाले महागठबंधन के बीच था, लेकिन हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर), लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), विकासशील इंसान पार्टी (VIP), राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (उपेंद्र कुशवाहा), जन अधिकार पार्टी (पप्पू यादव), जैसी कई छोटी पार्टियों ने उन सीटों पर चुनाव लड़ा जहां उनकी जाति या समुदाय का अच्छा प्रभाव है। सीटों की संख्या कम होने के बावजूद, उन्होंने मुकाबले को और व्यापक बनाया और पारंपरिक वोट बैंक को विभाजित किया।
मुकेश सहनी की वीआईपी पार्टी की स्थापना 2018 में हुई । विकासशील इंसान पार्टी शुरू में महागठबंधन के साथ थी लेकिन सीट बंटवारे को लेकर हुए विवाद और उनके अनुसार राष्ट्रीय जनता दल द्वारा छोटे दलों को अहमियत न देने के कारण मुकेश सहनी ने गठबंधन छोड़ दिया। 2020 के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने NDA में शामिल होकर 11 सीटों पर चुनाव लड़ा जिनमें से पार्टी ने 4 सीटें जीती। हालांकि खुद मुकेश सहनी चुनाव हार गए। VIP पार्टी वोट शेयर में 1।52% भागीदार रहे। VIP 2025 में 60 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है। सहनी इस समय विपक्षी महागठबंधन का हिस्सा है जिसमें राष्ट्रीय जनता दल (RJD), कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां शामिल हैं। मुकेश सहनी ने 60 सीटों की मांग करते हुए ये दावा किया कि उनकी पार्टी 150 से ज़्यादा विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव परिणामों को प्रभावित कर सकती है।
दूसरी ओर, अख्तरुल ईमान के क्षेत्रीय नेतृत्व वाली एआईएमआईएम ने 2020 में बिहार की राजनीति में प्रवेश किया, जहां उसने 20 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिनमें से पांच मुस्लिम बहुल सीमांचल क्षेत्र में थीं। 1.24 प्रतिशत वोट शेयर के साथ, एआईएमआईएम ने किशनगंज, अररिया, पुरीना और कटिहार में प्रभाव बनाया है, जो सीधे तौर पर मुस्लिम मतदाताओं पर कब्जा जमाकर आरजेडी को चुनौती दे रहा है। “घुसपैठियों” के खिलाफ भाजपा के अभियान के बावजूद, इसका असर महागठबंधन पर पड़ सकता है।
बिहार विधानसभा चुनाव में वाम दल (लेफ्ट पार्टियाँ) अब महागठबंधन का अहम हिस्सा बन गए हैं। 2020 में तीन वाम दल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी CPI(M) ने मिलकर 243 में से 29 सीटों पर चुनाव लड़े थे जिनमें से उन्होंने 16 सीटें जीती थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन ने अकेले ही 12 सीटों पर जीत पायी थी। सीपीआई (एमएल) लिबरेशन के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने हाल ही में मीडिया से बात करते हुए कहा कि उनकी पार्टी 40 से 45 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है।
इन दलों के अलावा बिहार के और दलों मेंपूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) है। जीतन राम मांझी बिहार के एक बड़े दलित नेता के जैसे जाने जाते हैं। HAM पार्टी 2015 में स्थापित हुयी थी। 2015 के चुनावों में हम ने अकेले 21 सीटों में चुनावो लड़ा था जिसमें से केवल 1 सीट पर उन्हें जीत मिली थी और लगभग 2% वोट हासिल किये थे। वहीँ 2020 के चुनाव में हम ने जेडीयू के साथ लड़ा था और 7 सीटों में से 4 सेटों पर जीत हासिल की थी। हालाँकि इनका वोट शेयर 0.8% था फिलहाल ये एनडीए गुट में हैं।
उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी जो एनडीए में शामिल है। कुशवाहा ने RLSP 2013 में जेडीयू से अलग होने पर बनायीं थी मगर वो एनडीए के साथ एक ही गुट में हैं। इस पार्टी को ज़्यादातर कोरी और कुशवाहा समाज का वोट मिलता है जो बिहार की प्रमुख पिछड़ी जाती में आती हैं। 2015 में पार्टी ने 23 सीटों में चुनाव लड़ा था और उनमें से 2 सीटें जीती थी और लगभग 2.56% वोट शेयर पाया था। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद उपेंद्र कुशवाहा ने अपनी पार्टी को राष्ट्रीय जनता दल की अगुवाई वाले महागठबंधन से अलग कर लिया और बहुजन समाज पार्टी और जनतांत्रिक पार्टी (सोशलिस्ट) के साथ गठबंधन कर लिया। RLSP ने 2020 में 104 सीटों से चुनाव लड़ा और एक भी सीट नहीं जीत पाई, लेकिन उसकी सहयोगी पार्टियाँ AIMIM और BSP कुल मिलाकर 6 सीटें जीतने में कामयाब रहीं। RLSP का वोट शेयर 2020 में 1.77% रहा।
हालांकि, सबसे दिलचस्प घटनाक्रम मशहूर राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी (जेएसपी) का उदय है। 2024 के उपचुनाव में इस पार्टी ने चार निर्वाचन क्षेत्रों में लगभग 10 प्रतिशत वोट हासिल किए, जिसमें इमामगंज निर्वाचन क्षेत्र में जितेंद्र पासवान को 20 प्रतिशत वोट मिले। जेएसपी की राज्यव्यापी ‘बिहार बदलाव यात्रा’ ने इसकी जमीनी पहुंच को बढ़ाया है। हालांकि इसमें बिहार की राजनीतिक व्यवस्था को उलटने के लिए पर्याप्त ताकत नहीं है, लेकिन ग्रामीण असंतोष और दोनों गठबंधनों के खिलाफ युवाओं की शिकायतें इसके राजनीतिक भविष्य को आकार दे सकती हैं।
द प्लुरलस पार्टी की स्थापना 2020 में पुष्पम प्रिया चौधरी ने की। इस पार्टी ने 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में अपना चुनावी डेब्यू (पहला चुनाव) किया और सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे लेकिन पार्टी के सभी उम्मीदवार चुनाव हार गए, जिसमें पार्टी अध्यक्ष पुष्पम प्रिया चौधरी भी शामिल थीं, जिन्होंने बांकीपुर और बिस्फी सीटों से चुनाव लड़ा था। इन्हे कुल 209,417 वोट मिले।
हिन्द सेना के शिवदीप वामनराव लांडे ये तक ऐलान किया कि उनकी पार्टी आने वाले चुनाव में बिहार की सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इनके अलावा जन सुराज पार्टी भी सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। बीएसपी ने भी बिहार के औरंगाबाद से ऐलान किया की वो भी सभी 243 सीटों में अकेले उतरेंगे।
ऐसा लग रहा है कि ये सारे छोटे दल किसी भी बड़े दल के साथ गढ़बंधन करने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे तो इनका वोटकटवा बनने के ज़्यादा आशंका है। दरअसल, ऐसा देखा गया है कि छोटे दल बड़े पार्टियों के वोटों को काटने की भूमिका निभाते हैं क्यूंकि इनमे ज़्यादातर कोई उम्मीदवार सत्ता में नहीं आता मगर कुछ वोट ज़रूर ले जाता है जिससे चुनाव के परिणाम में फ़र्क़ पड़ता है। समुदाओं के वोट बिखरने से नतीजा बदल जाता है।
जन सुराज और द प्लुरलस पार्टी को छोड़ दें, तो बिहार की ज़्यादातर नई और छोटी पार्टियों का आधार जातीय और क्षेत्रीय है। लेकिन सिर्फ जाति के दम पर चुनाव जीतना अब मुमकिन नहीं रहा। ये बात चिराग पासवान समझ गए हैं- वो पासवान समुदाय के मजबूत नेता हैं लेकिन अब वो भी समझते हैं कि सिर्फ एक जाति के वोट से बात नहीं बनेगी। यही वजह है कि वे इस बार गैर-आरक्षित सीट से चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं, ताकि व्यापक जनसमर्थन हासिल किया जा सके।
अगर हम पारंपरिक दलों की बात करें, तो RJD का मुख्य वोट बैंक यादव और मुस्लिम समुदाय रहा है। वहीं, JDU का आधार कुर्मी और कोरी समुदाय रहा है। इसके अलावा, बीजेपी के साथ गठबंधन के चलते जेडीयू को सवर्ण जातियों जैसे राजपूत, भूमिहार और ब्राह्मण का समर्थन भी मिलने लगा है। लोक जनशक्ति पार्टी के साथ आने से पासवान यानी दलित वोटों का एक बड़ा हिस्सा भी एनडीए खेमे में जुड़ता दिख रहा है।
विकासशील इंसान पार्टी (VIP) का मुख्य वोट बैंक निषाद समुदाय है, जिसमें लगभग 20 से 22 उपजातियां शामिल हैं। बिहार में यह समुदाय अति पिछड़ा वर्ग (EBC) में आता है। मुकेश सहनी की पार्टी VIP इस समुदाय का पहला संगठित राजनीतिक प्रतिनिधित्व करती है, क्योंकि इससे पहले निषाद समुदाय का कोई प्रभावी नेतृत्व नहीं रहा है। राज्य की कुल आबादी में इस समुदाय की हिस्सेदारी लगभग 10% मानी जाती है, जो इसे राजनीतिक रूप से एक अहम ताकत बनाती है।अब सवाल ये है कि नई पार्टियां जैसे हिंद सेना, इंकलाब पार्टीया जन सुराज इन पारंपरिक जातीय समीकरणों में कितना घुस पाती हैं? क्या ये दल किसी विशेष समुदाय में अपनी पकड़ बना पाएंगे, या सभी जातियों को जोड़कर कोई नई राजनीति गढ़ेंगे? यह तो आने वाला चुनाव ही तय करेगा।