जब जांच ही अधिकारों का उल्लंघन बन जाए

When investigation itself becomes a violation of rights

नार्को टेस्ट और संविधान : अधिकार, नैतिकता और न्याय

डॉ सत्यवान सौरभ

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनैच्छिक नार्को‑विश्लेषण परीक्षणों को पुनः असंवैधानिक करार देना भारतीय लोकतंत्र में संविधान की सर्वोच्चता की एक महत्वपूर्ण पुनःघोषणा है। यह निर्णय केवल आपराधिक जांच की किसी एक तकनीक तक सीमित नहीं है, बल्कि यह राज्य की दंडात्मक शक्ति, व्यक्ति की गरिमा और न्याय व्यवस्था की नैतिक दिशा पर गहरा प्रश्न उठाता है। आधुनिक आपराधिक न्याय व्यवस्था का मूल सिद्धांत यह है कि अपराध नियंत्रण के नाम पर भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों से समझौता नहीं किया जा सकता।

नार्को टेस्ट मूलतः एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें आरोपी या संदिग्ध व्यक्ति को विशेष रासायनिक दवाएँ देकर उसकी चेतन अवस्था को कमजोर किया जाता है, ताकि वह बिना प्रतिरोध के प्रश्नों के उत्तर दे सके। इसे अक्सर ‘सत्य निकालने’ की तकनीक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। किंतु सत्य तक पहुँचने का कोई भी मार्ग यदि असंवैधानिक, अमानवीय और अवैज्ञानिक है, तो वह न्याय का मार्ग नहीं हो सकता। भारतीय संविधान ने राज्य और नागरिक के संबंधों को संतुलित करने के लिए स्पष्ट सीमाएँ तय की हैं, जिनका उल्लंघन किसी भी परिस्थिति में स्वीकार्य नहीं है।

संविधान का अनुच्छेद 20(3) आत्म‑अभिशंसा से संरक्षण का अधिकार प्रदान करता है। इसका आशय यह है कि किसी भी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। अनैच्छिक नार्को टेस्ट इस अधिकार का सीधा उल्लंघन है, क्योंकि इसमें व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध उससे जानकारी उगलवाने का प्रयास किया जाता है। सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010) के ऐतिहासिक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि नार्को टेस्ट, ब्रेन मैपिंग और पॉलीग्राफ जैसी तकनीकें यदि बिना सहमति के कराई जाती हैं, तो वे असंवैधानिक हैं। यह निर्णय केवल विधिक व्याख्या नहीं, बल्कि संवैधानिक नैतिकता की रक्षा का घोषणापत्र है।

अनुच्छेद 21, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है, नार्को टेस्ट के संदर्भ में और भी व्यापक अर्थ ग्रहण करता है। जीवन का अधिकार केवल शारीरिक अस्तित्व तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें गरिमा, मानसिक स्वायत्तता और निजता भी सम्मिलित हैं। किसी व्यक्ति के शरीर में रासायनिक पदार्थ डालकर उसकी चेतना पर नियंत्रण करना उसकी शारीरिक और मानसिक स्वतंत्रता का गंभीर अतिक्रमण है। सर्वोच्च न्यायालय ने समय‑समय पर अनुच्छेद 21 की व्याख्या करते हुए कहा है कि राज्य की प्रत्येक कार्रवाई ‘न्यायसंगत, उचित और तर्कसंगत’ होनी चाहिए। नार्को टेस्ट इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता।

न्यायिक प्रक्रिया के दृष्टिकोण से भी नार्को टेस्ट अनेक प्रश्न खड़े करता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत वही साक्ष्य स्वीकार्य होते हैं जो स्वेच्छा से और विश्वसनीय तरीके से प्राप्त किए गए हों। नार्को टेस्ट के दौरान दिए गए कथन न तो पूर्णतः स्वैच्छिक होते हैं और न ही वैज्ञानिक रूप से विश्वसनीय। दवाओं के प्रभाव में व्यक्ति की स्मृति, कल्पना और बाहरी सुझाव आपस में घुल‑मिल जाते हैं। ऐसी स्थिति में प्राप्त जानकारी को सत्य मान लेना न्यायिक त्रुटि को आमंत्रित करना है। इसी कारण सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे परीक्षणों के परिणामों को साक्ष्य के रूप में स्वीकार करने से इंकार किया है।

एक और गंभीर संवैधानिक समस्या ‘सहमति’ की अवधारणा से जुड़ी है। समर्थक यह तर्क देते हैं कि यदि आरोपी सहमति दे, तो नार्को टेस्ट कराया जा सकता है। किंतु हिरासत की स्थिति में दी गई सहमति कितनी स्वतंत्र और स्वैच्छिक होती है, यह एक जटिल प्रश्न है। पुलिस हिरासत में शक्ति का असंतुलन स्वाभाविक होता है। भय, दबाव और भविष्य की अनिश्चितता के बीच दी गई सहमति को वास्तविक सहमति नहीं कहा जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने भी माना है कि हिरासत में प्राप्त सहमति की विश्वसनीयता संदिग्ध होती है।

संवैधानिक पहलुओं के साथ‑साथ नार्को टेस्ट गहरे नैतिक प्रश्न भी उठाता है। मानव गरिमा आधुनिक मानवाधिकार विमर्श का केंद्रीय तत्व है। किसी व्यक्ति को उसकी चेतन अवस्था से वंचित कर, रासायनिक रूप से नियंत्रित कर उससे जानकारी प्राप्त करना उसकी गरिमा को ठेस पहुँचाता है। यह दृष्टिकोण व्यक्ति को एक ‘साधन’ में बदल देता है, जबकि संविधान व्यक्ति को ‘लक्ष्य’ मानता है। दार्शनिक दृष्टि से भी यह प्रक्रिया मानव को उसकी इच्छा और विवेक से अलग कर देती है, जो किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकती।

वैज्ञानिक दृष्टि से नार्को टेस्ट की विश्वसनीयता पर भी गंभीर प्रश्नचिह्न हैं। यह धारणा कि दवाओं के प्रभाव में व्यक्ति केवल सत्य ही बोलेगा, एक मिथक है। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार ऐसी दवाएँ व्यक्ति की निर्णय क्षमता को कमजोर कर देती हैं, जिससे वह काल्पनिक घटनाओं को भी वास्तविक समझकर बयान कर सकता है। कई बार पूछताछ करने वाले के प्रश्नों का प्रभाव उत्तरों को दिशा देता है, जिससे ‘सत्य’ नहीं बल्कि जांचकर्ता की अपेक्षा सामने आती है। इस प्रकार नार्को टेस्ट सत्य की खोज के बजाय भ्रम की सृष्टि कर सकता है।

चिकित्सीय नैतिकता के संदर्भ में भी नार्को टेस्ट गंभीर चिंता का विषय है। चिकित्सा पेशा ‘हानि न पहुँचाने’ के सिद्धांत पर आधारित है। जब कोई चिकित्सक बिना किसी उपचारात्मक उद्देश्य के, केवल जांच के लिए, किसी व्यक्ति को दवाएँ देता है, तो वह इस सिद्धांत का उल्लंघन करता है। इसके अतिरिक्त, नार्को टेस्ट के दौरान स्वास्थ्य जोखिम भी मौजूद रहते हैं, विशेषकर यदि व्यक्ति पहले से किसी शारीरिक या मानसिक रोग से ग्रस्त हो। ऐसे में चिकित्सकों की भूमिका और जिम्मेदारी पर भी प्रश्न उठते हैं।

नार्को टेस्ट के समर्थन में यह तर्क दिया जाता है कि गंभीर अपराधों, आतंकवाद या जटिल मामलों में यह जांच को दिशा देने में सहायक हो सकता है। किंतु यह तर्क संवैधानिक मूल्यों के सामने कमजोर पड़ जाता है। संविधान किसी भी परिस्थिति में मूल अधिकारों के निलंबन की अनुमति नहीं देता, सिवाय आपातकाल जैसी असाधारण स्थितियों के, वह भी सीमित दायरे में। अपराध की गंभीरता राज्य को मनमानी करने का अधिकार नहीं देती। यदि आज हम गंभीर अपराधों के नाम पर अधिकारों से समझौता करते हैं, तो कल यह दायरा सामान्य अपराधों तक भी फैल सकता है।

वास्तव में, नार्को टेस्ट जांच एजेंसियों की उस मानसिकता को दर्शाता है, जो त्वरित परिणामों की चाह में संवैधानिक रास्तों से भटक जाती है। यह जांच की अक्षमता को ढकने का एक आसान रास्ता बन जाता है। इसके विपरीत, आधुनिक आपराधिक न्याय व्यवस्था साक्ष्य‑आधारित, वैज्ञानिक और पेशेवर जांच पर बल देती है। डीएनए विश्लेषण, डिजिटल फॉरेंसिक, वित्तीय जांच और गवाह संरक्षण जैसी तकनीकें न केवल अधिक विश्वसनीय हैं, बल्कि अधिकारों के अनुरूप भी हैं।

पुलिस सुधार और प्रशिक्षण इस संदर्भ में अत्यंत आवश्यक हैं। जब तक जांच एजेंसियों को आधुनिक तकनीक, पर्याप्त संसाधन और संवैधानिक मूल्यों का प्रशिक्षण नहीं दिया जाएगा, तब तक वे ऐसे शॉर्टकट अपनाने के लिए प्रेरित होती रहेंगी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा जारी हिरासत संबंधी दिशा‑निर्देश और पुलिस आधुनिकीकरण योजनाएँ इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं, किंतु इनके प्रभावी क्रियान्वयन की आवश्यकता है।

न्यायपालिका की भूमिका भी केवल प्रतिबंध लगाने तक सीमित नहीं होनी चाहिए। अदालतों को यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी जांच प्रक्रिया में अधिकारों का उल्लंघन न हो। साथ ही, न्यायिक प्रशिक्षण में भी संवैधानिक नैतिकता और मानवाधिकारों पर विशेष बल दिया जाना चाहिए, ताकि निचली अदालतों में भी इन मूल्यों की रक्षा हो सके।

अंततः, नार्को टेस्ट का प्रश्न केवल एक तकनीक का नहीं, बल्कि उस दृष्टिकोण का है जिससे राज्य अपने नागरिकों को देखता है। क्या नागरिक केवल जांच के साधन हैं, या वे अधिकारों से युक्त गरिमामय व्यक्ति हैं? भारतीय संविधान ने स्पष्ट रूप से दूसरे विकल्प को चुना है। लोकतंत्र की मजबूती इसी में है कि वह अपराध से निपटते समय भी अपने मूल्यों से विचलित न हो।

निष्कर्षतः, सर्वोच्च न्यायालय का रुख यह स्मरण कराता है कि न्याय का उद्देश्य केवल दोषसिद्धि नहीं, बल्कि निष्पक्ष, मानवीय और संवैधानिक प्रक्रिया के माध्यम से सत्य तक पहुँचना है। नार्को टेस्ट जैसी विधियाँ इस उद्देश्य के विपरीत हैं। एक सशक्त लोकतंत्र वही है जो सबसे कठिन परिस्थितियों में भी मानव गरिमा और मौलिक अधिकारों की रक्षा करे। यही संवैधानिक चेतना भारत की न्याय व्यवस्था की आत्मा है।