
अशोक भाटिया
देश-दुनिया में महिलाओं की समानता को लेकर भले ही कितनी भी बड़ी-बड़ी बाते की जाती हों, लेकिन सच यही है कि आज भी महिलाएं अपने अधिकारों के लिए जद्दोजहद कर रही हैं। इसकी झलक सत्ता के गलियारों से लेकर खेती-किसानी तक में देखी जा सकती है।संयुक्त राष्ट्र ने अपनी नई रिपोर्ट “वीमेन राइट्स इन रिव्यु 30 ईयर आफ्टर बीजिंग” में इसपर प्रकाश डालते हुए लिखा है 2024 में दुनिया के एक चौथाई देशों में महिला अधिकारों पर संकट बढ़ा है। इसका मतलब है कि इन देशों में लैंगिक समानता में सुधार के लिए किए जा रहे प्रयासों पर दबाव बढ़ा है।हैरानी की बात है कि महिला सशक्तिकरण की दिशा में हुई प्रगति के बावजूद, महज 87 देशों का ही नेतृत्व कभी किसी महिला ने किया है। इससे ज्यादा विडम्बना क्या होगी कि हर 10 मिनट में, एक महिला या बच्ची की उसके साथी या परिवार के सदस्य द्वारा हत्या कर दी जाती है।रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में महिलाओं और बच्चियों के अधिकार खतरे में हैं, भेदभाव बढ़ रहा है, कानूनी सुरक्षा कमजोर हो रही है और महिलाओं का समर्थन, सुरक्षा और सहायता करने वाले कार्यक्रमों और संस्थानों के लिए धन की कमी हो रही है।अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस से ठीक पहले, 5 मार्च 2025 को संयुक्त राष्ट्र के संगठन यूएन वीमेन ने यह रिपोर्ट जारी की। यह संगठन महिला सशक्तिकरण और लैंगिक समानता के लिए काम करता है। गौरतलब है कि हर साल 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है।
डिजिटल प्रौद्योगिकी और एआई जहां वरदान साबित हुए हैं, वहीं रिपोर्ट के मुताबिक यह रूढ़िवादिता को भी फैला रहे हैं। डिजिटल तकनीकों में मौजूद लैंगिक अंतर, महिलाओं के अवसरों को सीमित कर रहा है।रिपोर्ट का यह भी कहना है कि पिछले दशक में संघर्ष के बीच रहने को मजबूर महिलाओं और बच्चियों की संख्या में 50 फीसदी की वृद्धि हुई है, जोकि बेहद चिंताजनक हैं। महिला अधिकारों की पैरवी करने वालों को हर दिन धमकियों और हमलों का सामना करना पड़ रहा है, यहां तक की उनकी हत्याएं तक की जा रही हैं। वहीं दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन, कोरोना महामारी और खाद्य एवं ईंधन की बढ़ती कीमतों जैसे वैश्विक संकटों ने कार्रवाई को पहले से कहीं अधिक जरूरी बना दिया है।
महिला सुरक्षा के मुद्दे का समाधान केवल कानून के माध्यम से संभव नहीं है। इसके लिए समाज के प्रत्येक सदस्य को अपनी भूमिका समझनी होगी। सबसे पहले, लड़कियों और लड़कों दोनों को समानता और सम्मान के मूल्य सिखाने की जरूरत है। यह शिक्षा न केवल परिवार में, बल्कि स्कूलों और कॉलेजों में भी दी जानी चाहिए।इसके अलावा, महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए। उन्हें यह पता होना चाहिए अगर वे किसी तरह की हिंसा का सामना करती हैं तो क्या कदम उठा सकती हैं। समाज में महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव की आवश्यकता है।पितृसत्तात्मक सोच को खत्म करने के लिए सांस्कृतिक और सामाजिक परिवर्तन आवश्यक हैं। इसके लिए फिल्मों, टीवी कार्यक्रमों, और अन्य माध्यमों के जरिए महिलाओं के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना चाहिए।
महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के प्रति समाज की संवेदनशीलता बढ़ाई जानी चाहिए। अक्सर देखा जाता है कि महिलाएं अगर किसी अपराध की रिपोर्ट करती हैं तो उन्हें ही दोषी ठहराया जाता है। इस मानसिकता को बदलने की आवश्यकता है।कानून का सख्ती से पालन और त्वरित न्याय महिलाओं की सुरक्षा के लिए अनिवार्य है। अपराधियों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए और कानून व्यवस्था को मजबूत बनाया जाना चाहिए ताकि महिलाएं बिना किसी डर के अपने अधिकारों का उपयोग कर सकें।
कानून बनाने और उन्हें लागू करने के बीच के अंतर को खत्म करने के लिए सरकार को ठोस कदम उठाने होंगे। महिला सुरक्षा एक जटिल और बहुआयामी मुद्दा है, जिसे केवल कानून, शिक्षा या समाज के किसी एक हिस्से के प्रयास से हल नहीं किया जा सकता। इसके लिए एक समग्र और सामूहिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी भूमिका समझनी होगी और महिलाओं के प्रति सम्मान और समानता का दृष्टिकोण अपनाना होगा। तभी हम एक ऐसा समाज बना सकते हैं, जहां महिलाएं वास्तव में सुरक्षित महसूस कर सकें और अपने सपनों को साकार कर सकें। महिला सुरक्षा के इस संघर्ष में समाज, सरकार, और कानून सभी का समान रूप से योगदान आवश्यक है।जब तक हम सभी मिलकर इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाते, तब तक महिला सुरक्षा का सपना अधूरा ही रहेगा। समाज को बदलना एक जटिल और लंबी प्रक्रिया है, जिसमें कई कारकों का योगदान होता है। हालांकि, यह एक आवश्यक कदम है ताकि समाज अधिक न्यायपूर्ण, समावेशी और प्रगतिशील बन सके।समाज में बदलाव लाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपकरण शिक्षा है। स्कूलों और कालेज में बच्चों और युवाओं को समानता, मानवाधिकार, पर्यावरण संरक्षण, और सामाजिक न्याय के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए।शिक्षा केवल अकादमिक नहीं होनी चाहिए, बल्कि इसमें नैतिक और सामाजिक मूल्यों का समावेश होना चाहिए। बच्चों को शुरू से ही ईमानदारी, समानता, और सहिष्णुता के मूल्यों की शिक्षा दी जानी चाहिए।
हालिया एक रिपोर्ट के अनुसार, 2022 के अंत तक देश भर की अदालतों में यातना से संबंधित 200,000 से अधिक मामले लंबित थे, जिनमें से 2022 में से 18,500 मामले पूरे हो चुके थे। केवल 5,000 मामलों में जहां ट्रायल पूरा हुआ, जबकि आरोपियों को 12,000 से अधिक मामलों में बरी कर दिया गया। यह एक प्रतिशत से अधिक है। इन आंकड़ों और उल्लिखित वास्तविक परिस्थितियों से, देश में अत्याचार के लगातार बढ़ते मामलों के पीछे के तथ्यों को ध्यान में रखना आश्चर्यजनक नहीं है।आंकड़ों के अनुसार, 2012 से पहले एक वर्ष में दुर्व्यवहार की औसतन 25,000 घटनाएं दर्ज की गई थीं; हालांकि, उसके बाद, संख्या 30,000 से अधिक हो गई। 2013 में ही, यह संख्या 39,000 हो गई। 2012 में, महिलाओं के खिलाफ अपराधों के 2.44 लाख मामले दर्ज किए गए और 2022 में 4.45 लाख से अधिक मामले दर्ज किए गए। यानी हर दिन 1200 से अधिक मामले सामने आए! यातना के मामलों में भी वृद्धि हुई है। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार, 2012 में अत्याचार के 24,923 मामले दर्ज किए गए थे। यह 68 में रिपोर्ट किए गए 31,561 मामलों की तुलना में प्रति दिन औसतन 2022 मामले हैं, औसतन 86 मामले, प्रति घंटे तीन और हर 20 मिनट में एक।राजस्थान में अत्याचार के सबसे अधिक मामले दर्ज किए गए, 2022 में 5,399 मामले दर्ज किए गए, इसके बाद उत्तर प्रदेश में 3,690 मामले दर्ज किए गए। चौंकाने वाली बात यह है कि 96 प्रतिशत से अधिक मामलों में आरोपी परिचित निकले। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, यातना के मामलों में सजा की संभावना केवल 27 से 28 प्रतिशत है। यानी 100 में से 27 मामलों में आरोपी दोषी पाए जाते हैं, बाकी में वे बरी हो जाते हैं।
पुणे की पूर्व पुलिस कमिश्नर – डॉ। मीरां चड्ढा बोरवांकर के अनुसार भारत, यदि अपनी प्राचीन गौरवशाली स्थिति पर पहुंचना और विकसित देशों की श्रेणी में शामिल होना चाहता है तो उसे अपनी लड़कियों और महिलाओं को सुरक्षित वातावरण प्रदान करने का कार्य निश्चित रूप से करना होगा। इस विषय पर अनगिनत चर्चाएं की जा चुकी हैं, लेकिन धरातल पर ठोस कार्रवाई कम हुई है। परिणामस्वरूप, महिलाओं के विरुद्ध अपराध बढ़ रहे हैं और उनकी सुरक्षा को लेकर गंभीर चिंताएं उभर रही हैं। महिलाओं के विरुद्ध अपराध के आंकड़ों में वृद्धि का एक कारण यह भी है कि अब महिलाएं ज्यादा तादाद में अपनी शिकायतें दर्ज करा रही हैं और पुलिस भी उनको टाल नहीं रही है। यह कटु सत्य है कि लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ अधिकांश अपराध घर की चारदीवारी के भीतर या आस-पड़ोस में ही होते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा दहेज उत्पीड़न ही नहीं, बल्कि परिचितों द्वारा यौन शोषण और छेड़छाड़ के मामले भी चिह्नित किए गए हैं। इन अपराधों को रोकने का सबसे प्रभावी उपाय यह है कि छोटी उम्र से ही लड़कियों को ‘अच्छे और बुरे स्पर्श’ के बारे में बताया जाए। यह कार्य परिवारों और प्राथमिक विद्यालय दोनों कर सकते हैं। एक जागरूक और शिक्षित मां इस दिशा में बेहतर भूमिका निभा सकती है। इस प्रकार, महिलाओं की सुरक्षा का मामला महिला साक्षरता दर से भी जुड़ा है। हालांकि जरूरी नहीं कि केवल शिक्षा से ही कोई महिला शोषण या दहेज उत्पीडऩ के खिलाफ आवाज उठाने लगेगी, लेकिन इससे उसके ऐसा करने की संभावना अवश्य बढ़ जाएगी। इसलिए, लैंगिक सुरक्षा में परिवारों और शैक्षणिक संस्थानों की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। हमारे देश में अक्सर सार्वजनिक स्थानों पर सुरक्षा की जिम्मेदारी केवल पुलिस पर डाल दी जाती है, यह उचित नहीं है। ग्राम पंचायतों से लेकर नगर निकायों और कॉरपोरेट तथा सार्वजनिक उपक्रमों तक सभी को इसमें योगदान देना होगा। अच्छी रोशनी वाली सड़कें, पार्क, गलियां, आवासीय सोसायटियों तथा नगरपालिकाओं और पुलिस द्वारा लगाए गए सीसीटीवी कैमरे अपराध की रोकथाम और पहचान में मदद करते हैं। सभी एजेंसियों और स्थानीय समुदायों द्वारा समन्वित प्रयास ही इसका समाधान हैं। नागरिकों की सुरक्षा जरूरत के बारे में नियमित सर्वेक्षण करने से पुलिस को अपराध संभावित क्षेत्रों की निगरानी करने में मदद मिलती है। भारत में अब तक राष्ट्रीय स्तर के किसी सार्वजनिक सुरक्षा सर्वेक्षण में निवेश नहीं किया गया है। परिणामस्वरूप, पुलिस की गश्त नागरिकों की वास्तविक सुरक्षा चिंताओं की बजाय अपनी समझ के आधार पर होती है। इस अंतर को मिटाना आवश्यक है।
अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार