योगेश कुमार गोयल
बिहार में विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा होने के बाद से ही राज्य की सियासत उबाल पर है। दो चरणों में मतदान और 14 नवंबर को परिणाम, इन दो तिथियों के बीच अब हर बयान, हर गठबंधन, हर रैली और हर अपराध की खबर चुनावी हवा की दिशा तय करेगी। इस बार मुकाबला केवल नीतीश बनाम तेजस्वी या एनडीए बनाम इंडिया गठबंधन का नहीं है बल्कि अनुभव बनाम उम्मीद, सुशासन बनाम बदलाव और भरोसे बनाम मोहभंग की त्रिकोणीय लड़ाई बन गया है। बीस वर्षों से सत्ता के शिखर पर बैठे नीतीश कुमार का राजनीतिक भविष्य अब जनता की अदालत में है और इस फैसले में बिहार का आने वाला दशक छिपा है। बिहार में इस बार 7.43 करोड़ से अधिक मतदाता वोट डालेंगे, जिनमें 3.50 करोड़ महिलाएं और 3.92 करोड़ पुरुष शामिल हैं। इनमें से करीब 14 लाख युवा ऐसे हैं, जो पहली बार मतदान करेंगे। यही नई पीढ़ी अब इस चुनाव की दिशा मोड़ सकती है क्योंकि वह जातीय समीकरणों से अधिक रोजगार, शिक्षा, पलायन और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर केंद्रित है। इस बार का चुनावी रण बिहार की पारंपरिक राजनीति की जड़ों को चुनौती दे रहा है। जातिवाद, परिवारवाद और गठबंधन की राजनीति के बीच अब विकास, सुरक्षा और रोजगार की गूंज पहले से अधिक मुखर हो चुकी है।
राज्य की राजनीतिक पटकथा पिछले दो दशकों में अनेक बार बदली लेकिन एक चेहरा स्थायी रहा, नीतीश कुमार। 2005 में उन्होंने लालू यादव के शासन से ‘सुशासन’ की ओर संक्रमण का नारा दिया और जनता ने उसे हाथों-हाथ लिया लेकिन बीस वर्षों में वही चेहरा अब थकान का प्रतीक बन गया है। सत्ता विरोधी लहर स्पष्ट दिख रही है और विपक्ष इसे ‘नीतीश थकान सिंड्रोम’ कहकर प्रचारित कर रहा है। तेजस्वी यादव की आरजेडी, कांग्रेस और वाम दलों के साथ गठित महागठबंधन इस बार जोर-शोर से मैदान में है। वहीं एनडीए, जिसमें जेडीयू, भाजपा, लोजपा (रामविलास) और हम जैसे सहयोगी हैं, अपने पुराने समीकरणों पर भरोसा कर रहा है। मगर इन समीकरणों की जमीन पहले जैसी ठोस नहीं रही। भाजपा और जेडीयू के रिश्तों में तनाव है, सीट बंटवारे को लेकर खींचतान हुई है और नीतीश कुमार की उम्र और स्वास्थ्य पर लगातार चर्चा हो रही है।
भाजपा ने रणनीतिक रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनाव का मुख्य चेहरा बनाया हुआ है। राज्य में मोदी फैक्टर अब भी प्रभावी है लेकिन स्थानीय असंतोष इसे सीमित कर सकता है। बेरोजगारी, स्वास्थ्य और शिक्षा के ढ़ांचे की बदहाली, लगातार पलायन और अपराध के बढ़ते ग्राफ ने सुशासन की कहानी को कमजोर किया है। पटना से लेकर मुजफ्फरपुर और गया तक अपराध की घटनाएं आम होती जा रही हैं। हाल ही में मोकामा में हुई हत्या ने राज्य की कानून व्यवस्था पर बड़ा सवाल खड़ा कर दिया। चुनावी माहौल के बीच खुलेआम गोली चलना और जन सुराज के प्रत्याशी का खुलकर समर्थन कर रहे बाहुबली दुलारचंद यादव की हत्या यह संकेत देती है कि बिहार आज भी अपराध के साए से मुक्त नहीं है। विपक्ष इसे ‘सुशासन का पतन’ और ‘जंगल राज’ कहकर प्रचारित कर रहा है। जनता के मन में यह सवाल गूंज रहा है कि क्या बिहार का ‘जंगल राज’ कभी ‘मंगल राज’ बन सकेगा?
इन सबके बीच भ्रष्टाचार भी इस बार बड़ा मुद्दा बनकर उभरा है। प्रशांत किशोर, जो पहले चुनावी रणनीतिकार थे और अब जन सुराज पार्टी के नेता हैं, उन्होंने एनडीए के कई वरिष्ठ नेताओं पर भ्रष्टाचार और परिवारवाद के गंभीर आरोप लगाए हैं। उनके आरोपों ने सत्ता पक्ष को रक्षात्मक बना दिया है। भाजपा ने पलटवार किया लेकिन जन धारणा में पीके की ‘साफ-सुथरी राजनीति’ का प्रभाव देखा जा सकता है। जन सुराज पार्टी का जनाधार भले सीमित हो लेकिन वह कई सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबले की स्थिति पैदा कर सकती है। युवाओं और पढ़े-लिखे वर्ग में पीके की अपील बढ़ रही है, खासकर उन लोगों के बीच, जो जातिगत राजनीति से ऊब चुके हैं और नए विकल्प की तलाश में हैं।
एनडीए सरकार ने इस बार मतदाताओं को लुभाने के लिए कई लोकलुभावन घोषणाएं की हैं, महिलाओं को 10 हजार रुपये की सहायता राशि, सामाजिक सुरक्षा पेंशन में वृद्धि, युवाओं के लिए बेरोजगारी भत्ता, किसानों को फसल बीमा राहत और मुफ्त बिजली जैसी योजनाएं। भाजपा और जेडीयू दोनों इस बात पर दांव लगा रहे हैं कि महिलाओं का वर्ग, जो बिहार के चुनावों में अब निर्णायक बन चुका है, इन योजनाओं से प्रभावित होकर वोट करेगा। 2020 के चुनाव में महिला मतदान प्रतिशत पुरुषों से अधिक था और इस बार भी यह रुझान कायम रह सकता है। महिला मतदाताओं की नब्ज इस बार निर्णायक हो सकती है, वे ही तय करेंगी कि स्थायित्व बेहतर है या परिवर्तन की शुरुआत। दूसरी ओर, विपक्ष भी अपनी रणनीति पर आक्रामक है। तेजस्वी यादव ने रोजगार, शिक्षा और पलायन के मुद्दे को केंद्र में रखकर युवाओं को आकर्षित करने की कोशिश की है। राहुल गांधी के साथ उनकी साझा रैलियों में भीड़ उमड़ रही है लेकिन भीड़ को वोट में बदलना उनकी सबसे बड़ी चुनौती है। विपक्ष ने मतदाता सूची में कथित गड़बड़ी और वोट चोरी का मुद्दा उठाया, यह नैरेटिव खासकर शहरी मतदाताओं और पढ़े-लिखे वर्ग में कुछ हद तक असर डाल सकता है।
राज्य का जातीय गणित भी बदला है। 2022 के जाति आधारित सर्वेक्षण ने यह स्पष्ट किया कि बिहार में अत्यंत पिछड़ा वर्ग अब सबसे बड़ा समूह है, करीब 36 प्रतिशत। ओबीसी करीब 27 प्रतिशत, एससी 19.6 प्रतिशत और मुस्लिम लगभग 17 प्रतिशत हैं। यही वर्ग अब चुनाव का निर्णायक चेहरा बन गया है। एनडीए इन वर्गों में अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश में है जबकि इंडिया गठबंधन यादव-मुस्लिम समीकरण को सहेजकर साथ ही पिछड़ों और दलितों को जोड़ने की रणनीति पर काम कर रहा है। सवाल यह है कि क्या जातीय पहचान अब भी वोट का आधार बनी रहेगी या फिर मतदाता अपनी प्राथमिकताएं बदल चुका है? दिलचस्प तथ्य यह है कि बिहार के ग्रामीण इलाकों में एनडीए की पकड़ मजबूत है जबकि शहरी इलाकों में विपक्ष को समर्थन बढ़ता दिख रहा है। लेकिन भाजपा सत्ता विरोधी भावना को संगठनात्मक ताकत से काउंटर करने की कोशिश कर रही है। मोदी फैक्टर और केंद्र की योजनाओं का लाभ एनडीए को मिला है पर यह लाभ तभी टिकेगा, जब नीतीश सरकार की छवि ‘थकी हुई व्यवस्था’ से उबर सके। भाजपा के भीतर भी यह चिंता है कि नीतीश अब वोट खींचने वाले नहीं रहे पर वे गठबंधन के लिए ‘अनिवार्य चेहरा’ हैं, उन्हें हटाना जोखिम भरा कदम होगा।
विपक्ष के पास मौका है लेकिन उसके भीतर नेतृत्व का असंतुलन एक बड़ी कमजोरी भी है। तेजस्वी यादव की लोकप्रियता सीमित क्षेत्रों में केंद्रित है और कांग्रेस की पकड़ कमजोर पड़ चुकी है। यदि विपक्षी गठबंधन एकजुट रह सका और भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, अपराध जैसे मुद्दों को जनता के बीच जीवंत बनाए रख सका तो मुकाबला बेहद करीबी हो सकता है अन्यथा एनडीए सत्ता-विरोधी लहर को भी ‘स्थायित्व और सुशासन’ की ढ़ाल से झेल लेगा। एक और बड़ा प्रश्न यह है कि क्या बिहार में इस बार महिला मतदाता कोई निर्णायक बदलाव ला पाएंगी? यह प्रश्न इसलिए अहम है क्योंकि 2005 से लेकर 2020 तक हर चुनाव में महिला मतदाताओं का रुझान उस दल की जीत से जुड़ा रहा है, जिसने उन्हें सम्मान, सुरक्षा और आर्थिक सुविधा का भरोसा दिलाया। यदि महिलाएं एनडीए की योजनाओं से प्रभावित हुई तो यह गठबंधन को बढ़त दिला सकता है लेकिन यदि उन्हें लगे कि उनके जीवन में वास्तविक सुधार नहीं हुआ तो वे बदलाव का विकल्प चुन सकती हैं।
बिहार का यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का नहीं बल्कि राजनीतिक संस्कृति के संक्रमण का चुनाव है। एक तरफ ‘सुशासन बाबू’ की थकान और सत्ता के स्थायित्व की कहानी है, दूसरी ओर नई पीढ़ी की उम्मीदें और बदलाव की मांग। बीच में प्रशांत किशोर जैसा तीसरा विकल्प है, जो राजनीति के पुराने समीकरणों को चुनौती दे रहा है। यह चुनाव बताएगा कि बिहार अब भी परंपरागत जातीय राजनीति में बंधा है या वह सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को केंद्र में रखकर नई दिशा चुनने को तैयार है। 14 नवंबर को जब नतीजे आएंगे तो केवल यह नहीं बताएंगे कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा बल्कि यह भी उजागर करेंगे कि बिहार का जनमत अब भी बीस वर्षों पुराने भरोसे पर टिका है या नई सोच की ओर अग्रसर हो चुका है। मोकामा जैसी घटनाएं, बढ़ते अपराध, भ्रष्टाचार के आरोप, बेरोजगारी और पलायन की त्रासदी ने बिहार के मतदाताओं को सोचने पर मजबूर कर दिया है। इस चुनाव के नतीजे केवल सत्ता नहीं, बिहार की राजनीति की आत्मा को भी नया रूप देंगे। यह चुनाव बिहार के लिए वह मोड़ साबित हो सकता है, जहां से राज्य या तो भविष्य की ओर छलांग लगाएगा या फिर अतीत के साए में लौट जाएगा, जहां ‘जंगल राज’ और ‘मंगल राज’ के बीच केवल जनता की समझदारी की दीवार खड़ी है।





