धार्मिक स्थलों में हो रही भगदड़ का आखिर जिम्मेदार कौन ?

Who is responsible for the stampede happening in religious places?

अशोक भाटिया

आज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी और भीड़-भाड़ के बीच भगदड़ एक सामान्य घटना बनती जा रही है। कभी धार्मिक सभाओं के आयोजन, रेल में चढ़ते वक्त, तो कभी मंदिरों में भगदड़ से लोगों की जान जा रही है। मगर, चिंता की बात है कि इन घटनाओं से कहीं कोई सबक नहीं लिया जाता। हर बार गहन जांच, सख्त कार्रवाई और भविष्य में एहतियाती उपाय करने के दावे तो किए जाते हैं, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहता है।

उत्तराखंड के हरिद्वार में मनसा देवी मंदिर क्षेत्र में रविवार को भगदड़ में आठ श्रद्धालुओं की मौत इसी लापरवाही का नतीजा है। हैरत की बात है कि इससे अगले ही दिन उत्तर प्रदेश में बाराबंकी जिले के अवसानेश्वर मंदिर में भी ऐसी ही घटना में दो लोगों की मौत हो गई। ऐसा लगता है कि भगदड़ का एक सिलसिला शुरू हो गया है और व्यवस्थागत खामियों की सिलवटें हैं कि ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही हैं।

पिछले दिनों महाकुंभ में भगदड़ मचने से अनेक लोग मारे गए। इसके बाद बंगलुरु में आरसीबी की जीत के जश्न में आयोजित समारोह में भगदड़ से कई लोगों की जान चली गई। इससे पहले हाथरस के एक आश्रम में हुई भगदड़ की घटना को भी नहीं भूलाया जा सकता। सवाल है कि आखिर ऐसी कितनी घटनाओं के बाद शासन और प्रशासन चेतेगा? मनसा देवी मंदिर में भगदड़ का कारण करंट फैलने की अफवाह को बताया जा रहा है। मगर, क्या इस तरह की अफवाह को हादसे में तब्दील होने से रोका नहीं जा सकता था? प्रशासनिक अमला इस तरह की आशंकाओं का अनुमान लगाने में इतना अक्षम क्यों है?ऐसी घटनाएँ देश भर में धार्मिक स्थलों और सार्वजनिक समारोहों में घातक भगदड़ की श्रृंखला में नवीनतम है।मंदिरों, रेलवे स्टेशनों और महाकुंभ जैसे बड़े स्थानों पर हुई त्रासदियों में इस साल अब तक 80 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है।

गौरतलब है कि हरिद्वार के प्रसिद्ध मनसा देवी मंदिर में सावन के पवित्र अवसर पर घटी भगदड़ की घटना ने एक बार फिर हमारी व्यवस्थागत असफलताओं और भीड़ प्रबंधन की कमजोरी को उजागर कर दिया है। अफवाहों से उपजी यह त्रासदी महज़ एक आकस्मिक दुर्घटना नहीं थी, बल्कि वर्षों से चली आ रही लापरवाहियों और अनदेखियों का परिणाम है। यह पहली बार नहीं है, जब किसी धार्मिक स्थल पर भीड़ बेकाबू हुई हो और निर्दोष श्रद्धालुओं को अपनी जान गंवानी पड़ी हो। हर बार ऐसी घटनाओं के बाद प्रशासनिक हलचल तो होती है, परंतु समय के साथ सबक भुला दिए जाते हैं और वही चूक दोहराई जाती है।धार्मिक आयोजन, विशेष अवसरों और मेलों में लाखों की संख्या में श्रद्धालु एकत्र होते हैं। भीड़ का यह स्वाभाविक संकेंद्रण प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती बन जाता है। क्राउड मैनेजमेंट या भीड़ नियंत्रण कोई नया मुद्दा नहीं है, लेकिन भारत जैसे देश में, जहां आस्था के नाम पर लोगों का एक अपार जनसैलाब स्वतःस्फूर्त रूप से उमड़ता है, वहां इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

वास्तविकता यह है कि अधिकतर धार्मिक आयोजनों में भीड़ का कोई सटीक पूर्वानुमान नहीं लगाया जाता। लोग कितनी संख्या में आएंगे, कब आएंगे, किस मार्ग से प्रवेश करेंगे और किस दिशा से बाहर निकलेंगे, यह सब अक्सर नियोजन के अभाव में अधर में रहता है। ऐसे में, किसी भी छोटी-सी अफवाह, धक्का-मुक्की या अप्रत्याशित स्थिति से भगदड़ जैसी त्रासदियां जन्म लेती हैं। पिछले एक वर्ष के भीतर ही कई बड़े हादसे यह सिद्ध कर चुके हैं कि हमारी प्रशासनिक तैयारी, तकनीकी व्यवस्था और जन-जागरूकता गंभीर रूप से अपर्याप्त हैं। जुलाई 2024 में हाथरस में एक विशाल धार्मिक आयोजन के दौरान आयोजक भीड़ का अनुमान नहीं लगा पाए। अफरा-तफरी मची और 121 लोगों की मौत हो गई। यह त्रासदी इसलिए और भयावह रही, क्योंकि आयोजक और स्थानीय प्रशासन, दोनों ही न तो आयोजन स्थल का निरीक्षण कर पाए और न ही पर्याप्त निकास मार्ग सुनिश्चित कर सके।

इसी तरह, जनवरी 2025 में तिरुपति के मंदिर के टोकन वितरण केंद्र पर अचानक भीड़ उमड़ पड़ी और व्यवस्थाएं चरमरा गईं। पुलिस हालात संभालने में असफल रही और छह लोगों की जान चली गई। ऐसे में, सवाल यह है कि टोकन वितरण जैसे डिजिटल रूप से नियंत्रित कार्य में भी इतनी भीड़ कैसे इकट्ठी हो गई? इसी साल, 2025 में महाकुंभ और नई दिल्ली रेलवे स्टेशन में भी ऐसा हादसा हुआ। मौनी अमावस्या के अवसर पर प्रयागराज में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ के बीच हुए हादसे और फिर दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ट्रेनों की देरी व प्लेटफॉर्म पर लोगों की संख्या अधिक होने से हुई भगदड़, ये दोनों उदाहरण धार्मिक आयोजनों और रोजमर्रा की भीड़भाड़ दोनों में प्रशासनिक नाकामी के परिचायक हैं।ऐसी घटनाएँ अव्यवस्था, खराब मार्ग व्यवस्था और एकल निकास प्रणाली की ओर संकेत करती है।

इन सभी घटनाओं की गहराई में जाएं, तो तीन मुख्य कारक बार-बार सामने आते हैं। पहला, अफवाह और सूचना का अभाव। जब भीड़ में किसी ने कुछ चिल्लाया, जैसे सांप है, धमाका हुआ या बिजली गिरी, तब बेकाबू स्थिति बनती है। अफवाहों को रोकने और सही सूचना समय पर देने की व्यवस्था लगभग न के बराबर होती है।दूसरा, अपर्याप्त मार्ग और निकास व्यवस्था। दरअसल, कई धार्मिक स्थलों पर मार्ग अत्यंत संकरे होते हैं, चढ़ाई-उतार होती है, मार्गों की संख्या सीमित होती है और निकास व प्रवेश एक ही रास्ते से होते हैं, इससे बेतरतीब भीड़ और जानलेवा दबाव उत्पन्न होता है, और तीसरा अधूरी और यांत्रिक प्रशासनिक तैयारी, प्रशासन के स्तर पर की गई तैयारियां अक्सर सिर्फ कागजों तक सीमित रहती हैं। जब वास्तविकता का सामना होता है तो सारी योजना चरमरा जाती है।

इस समय यह आवश्यक हो गया है कि धार्मिक आयोजनों और भीड़-भाड़ वाले स्थलों पर एक व्यापक और व्यावहारिक भीड़ नियंत्रण नीति लागू की जाए।रियल-टाइम मॉनिटरिंग और तकनीकी निगरानी जरूरी रूप से हो। जैसे एयरपोर्ट या बड़े खेल स्टेडियम में कैमरे, सेंसर और एआई आधारित मॉनिटरिंग होती है, उसी तरह धार्मिक स्थलों पर भी ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए। लोगों की संख्या का लाइव ट्रैकिंग, सीसीटीवी विश्लेषण और भीड़ की गति पर नजर रखकर स्थिति को समय रहते संभाला जा सकता है। पूर्वानुमान और आंकड़ों पर आधारित तैयारी हो, श्रद्धालुओं की संभावित संख्या का अनुमान ऐतिहासिक आंकड़ों और मौसम-त्योहारों के कैलेंडर को ध्यान में रखते हुए लगाया जाना चाहिए। फिर उसी हिसाब से पुलिस बल, मेडिकल टीम, फायर ब्रिगेड, वाटर-लॉजिस्टिक्स और निकास प्रणाली तैयार की जाए।

मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास हो, सभी प्रमुख धार्मिक स्थलों और आयोजनों के लिए न्यूनतम मानक तय किए जाने चाहिए, जैसे चौड़ाई, प्रवेश व निकास मार्ग की संख्या, संचार व्यवस्था, ऑडियो-वीडियो सूचना प्रणाली, प्राथमिक चिकित्सा केंद्र आदि। जन-जागरूकता अभियान चलाया जाए, श्रद्धालुओं को यह बताया जाना आवश्यक है कि भीड़ में कैसे चलना है, क्या नहीं करना है, अफवाहों पर कैसे प्रतिक्रिया नहीं करनी है, क्या संकेतों पर ध्यान देना है। छोटे-छोटे वीडियो, रेडियो संदेश, मंदिरों में पोस्टर, स्थानीय टीवी पर प्रचार, ये सब मददगार हो सकते हैं। इसके अलावा, कानून निर्माण और जवाबदेही तय की जानी चाहिए।

कर्नाटक सरकार ने आरसीबी इवेंट हादसे के बाद एक ‘क्राउड मैनेजमेंट बिल’ लाने की प्रक्रिया शुरू की है। ऐसा ही हर राज्य को करना चाहिए। इस कानून में आयोजकों, स्थानीय प्रशासन, पुलिस और अन्य विभागों की जिम्मेदारियां स्पष्ट रूप से तय की जानी चाहिए, ताकि दुर्घटना के बाद सिर्फ मुआवज़ा बांटने और जांच बैठाने तक सीमित प्रतिक्रिया न हो। भारत में आस्था की शक्ति अपार है। यह लोगों को जोड़ती है, आंदोलित करती है, प्रेरित करती है, लेकिन जब यही आस्था लापरवाही के कारण जानलेवा बन जाए, तब यह चिंता का विषय बन जाती है। मनसा देवी मंदिर की घटना हो या कुंभ के मेले की, हमें समझना होगा कि धार्मिक स्थल और आयोजन अब सिर्फ आध्यात्मिकता के केंद्र नहीं, बल्कि व्यवस्थात्मक परीक्षण की कसौटी बन गए हैं।

कुल मिलाकर, हर बार हादसे के बाद बयान आते हैं, मुआवज़े घोषित होते हैं, जांच आयोग गठित होते हैं, लेकिन फिर वही दोहराव, वही लापरवाही। ज़रूरत इस बात की है कि अब हम सिर्फ प्रतिक्रिया न दें, बल्कि पूर्व-क्रियाशील नीति अपनाएं। हर आयोजन को एक परियोजना की तरह देखें, जिसमें लक्ष्य सिर्फ धार्मिक रस्म अदायगी नहीं, बल्कि प्रत्येक सहभागी की सुरक्षित वापसी भी हो। श्रद्धा और सुरक्षा का संतुलन तभी बन सकेगा, जब नीति, तकनीक, प्रशासन और जनता, चारों एक साथ जागरूक, उत्तरदायी और समन्वित होकर काम करेंगे।

अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार