हमेशा देश में 10वीं और 12वीं कक्षा के रिजल्ट में लड़कियां ही पहले पायदान पर रहती हैं। चाहे आईएएस बनने की होड़ हो, विमान या लड़ाकू जहाज उड़ाने की या फिर मैट्रो चलाने की, लड़कियां हर क्षेत्र में अपनी सफलता के झंडे गाड़ रही हैं। कौन कहता है कि लड़कियां बोझ है? आज की लड़की अपना बोझ तो क्या, परिवार का बोझ भी अपने कंधों पर उठाने की हिम्मत रखती है। बेटों की तरह वह भी पूरी निष्ठा के साथ जिम्मेदारियां संभाल रही है। देश की बेटियां अब सिर्फ सिलाई- कढ़ाई या ब्यूटी पार्लर तक ही सीमित नहीं रह गई है बल्कि वह तो दुश्मनों के छक्के छुड़ाने के लिए तैयार हैं।
प्रियंका सौरभ
आज की लड़कियां तमाम बंधनों को तोड़कर आसमान छू रही हैं और समाज के लिए आदर्श बनी हुई हैं। अमूमन समाज में लड़कियों को लड़कों से कमतर आंका जाता है। शारीरिक सामर्थ्य ही नहीं अन्य कामों में भी यही समझा जाता है कि जो लड़के कर सकते हैं वह लड़कियां नहीं कर सकतीं, जबकि इसके कई उदाहरण मिल जाएंगे जिन में लड़कियों ने खुद को लड़कों से बेहतर साबित किया है। खेलों में खिलाडिय़ों की इतनी बड़ी फौज में से ज्यादातर लड़कियों ने ही देश की झोली में मैडल डाल कर देश का नाम रोशन किया। यही नहीं अन्य क्षेत्रों में भी लड़कियां लड़कों से न केवल कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं बल्कि आगे हैं। हमेशा देश में 10वीं और 12वीं कक्षा के रिजल्ट में लड़कियां ही पहले पायदान पर रहती हैं। चाहे आईएएस बनने की होड़ हो, विमान या लड़ाकू जहाज उड़ाने की या फिर मैट्रो चलाने की, लड़कियां हर क्षेत्र में अपनी सफलता के झंडे गाड़ रही हैं। इस के बावजूद लड़कियों को लड़कों से कमतर आंकना समाज की भूल है।
कौन कहता है कि लड़कियां बोझ है? आज की लड़की अपना बोझ तो क्या, परिवार का बोझ भी अपने कंधों पर उठाने की हिम्मत रखती है। तभी तो उन्हे संसार की जननी कहा गया है। बेशक पहले स्त्री को अबला माना जाता है, लेकिन आज की नारी अबला नहीं। शिक्षा हो या खेल कूद का क्षेत्र हो वह हर जगह अपनी मेहनत के बलबूते पर आगे बढ़ी रही हैं। बेटों की तरह वह भी पूरी निष्ठा के साथ जिम्मेदारियां संभाल रही है। देश की बेटियां अब सिर्फ सिलाई- कढ़ाई या ब्यूटी पार्लर तक ही सीमित नहीं रह गई है बल्कि वह तो दुश्मनों के छक्के छुड़ाने के लिए तैयार हैं। लोकतांत्रिक देश में राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक दृष्टि से बालिका शिक्षा का बहुत अधिक महत्त्व है। नारी की शिक्षा पूरे परिवार को शिक्षित करती है। शिक्षित महिला पुरुष से किसी भी कार्यक्षेत्र में पीछे नहीं रहती। कुछ क्षेत्रों में तो वह पुरुष से भी अधिक कुशल सिद्ध हुई है– जैसे शिक्षा, चिकित्सा व परिचर्या के क्षेत्र में। यदि बालिका को समुचित शिक्षा दी जाए तो वह कुशल नेत्री, समाजसेवी, कुशल व्यवसायी, राजनैतिक नेत्री यहाँ तक कि कुशल इंजीनियर, टेक्नीशियन, सूचना प्रौद्योगिकी, अधिवक्ता, चिकित्सक बन राष्ट्र की सर्वतोमुखी प्रगति में योगदान दे सकती है। शिक्षा से नारी अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो सकती है।
इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि धार्मिक, सैद्धान्तिक, मान्यतागत रूप में स्त्री को पूज्य माना जाता रहा है परन्तु उसका कार्यक्षेत्र घर की चहारदीवारी तक सीमित कर दिये जाने से उसकी शिक्षा– दीक्षा पर कम ध्यान दिया गया है। वैदिक काल में बालिकाएं प्रायः परिवार में ही शिक्षा ग्रहण करती थीं क्योंकि उनके लिए पृथक गुरुकुल, आश्रम, आदि की प्रथा नहीं थी। केवल कुछ गुरुकुलों में गुरु की पुत्री के शिक्षा में सम्मिलित होने के उदाहरण प्राप्त होते हैं। वैदिक काल में बालिकाओं को घरों में धर्म, साहित्य, नृत्य, संगीत, काव्य आदि की शिक्षा दी जाती थी। वैदिक काल में यद्यपि विदुषी घोषा, गार्गी, आत्रेयी, शकुंतला, उर्वशी, अपाला महिलाओं के उदाहरण ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं जो वेदों के अध्ययन में प्रवीण थीं। वर्तमान समय में बालिकाओं द्वारा हर क्षेत्र में उच्च स्थान प्राप्त करने के बावजूद भी बालक बालिकाओं की शिक्षा में अंतराल चला आ रहा है। समाज में अधिकतर यह मानसिकता पाई जाती है कि बालिकाओं की शिक्षा आवश्यक नहीं है उन्हें कौनसी नौकरी करानी है । वे केवल चिट्ठी पत्री लिखना, घरेलू कार्य करना सीख लें यही पर्याप्त है। इस मानसिकता के चलते कुछ परिवारों में प्राथमिक, कुछ में मिडिल तथा कुछ में मैट्रिक तक की शिक्षा ही पर्याप्त मान ली जाती है तथा इससे ऊपर की उच्च शिक्षा के अवसर तो भाग्यशील बालिकाओं को ही मिल पाते हैं।
इसी जनमानसिकता के कारण बालिकाओं की शिक्षा अतीत से लेकर आज तक कुप्रभावित होती रही है। बालकों को वंश की वृद्धि करने वाला, कमाऊ– बुढ़ापे का सहारा मानकर उसे उच्च शिक्षा दिलायी जाती है और बालिकाओं के लिये यह धारणा है कि इसे अधिक पढ़ायेंगे तो उसके लिए अधिक पढ़ा– लिखा लड़का ढूँढना होगा जिसके लिए अधिक दहेज भी देना होगा। घरेलू कार्यों में व्यस्त होने के कारण स्कूल से मिला गृहकार्य या निर्धारित पाठ के लिए बालिकाएं पढ़ने का समय नहीं निकाल पातीं। इसके कारण कई बालिकाएं पढ़ना छोड़ देती हैं। बालिकाओं के लिए पृथक विद्यालय न होने से कई अभिभावक बालिकाओं को ऐसे स्कूलों में भेजना पसंद नहीं करते जहाँ सहशिक्षा हो। मुस्लिम वर्ग में बालिकाओं की पर्दा प्रथा तथा बुरका प्रथा उन्हें उच्च शिक्षा अर्जित करने की छूट नहीं देता। कई हिन्दू जातियों में भी पर्दा प्रथा के कारण या बाल विवाह, कम उम्र में सगाई आदि के कारण लड़कियों की पढ़ाई छूट जाती है। अनेक क्षेत्रों में बालिकाएं इसलिए भी स्कूल नहीं जा पातीं क्योंकि गुंडा तत्त्व असामाजिक तत्त्व, बालिकाओं पर फब्तियां कसना, छेड़छाड़ करने जैसे कुकृत्य करते हैं। बालिका शिक्षा की प्रगति की दिशा में ऐसी घटनाएं अवरोधक हैं।
शिक्षा पर पैसा व्यय करने के बाद भी नौकरी के अवसर उपलब्ध न होना उनमें शिक्षा के प्रति वितृष्णा भी उत्पन्न कर देता है। प्राइवेट सेक्टर के स्कूलों, हॉस्पिटल आदि में पढ़ी– लिखी महिलाओं को उपयुक्त वेतन अप्रयाप्त होता है तथा स्वयं के खर्च तक के लिए वे वेतन से व्यय कर सकने में असमर्थ रहती है। घर से दूर नौकरी कराने हेतु लड़कियों के माता– पिता सहमत नहीं होते। बालिका शिक्षा में अवरोध का एक कारण यह भी है कि महिला शिक्षकों की स्कूलों व कॉलेजों में कमी है जिसके कारण अनेक बालिकाएं शिक्षा प्रक्रिया में इन संस्थाओं में घुल– मिल नहीं पातीं तथा स्वयं को अजनबी अनुभव करती हैं। घर से दूर होस्टलों आदि में रहकर शिक्षा प्राप्त करना अनेक परम्परागत विचारों के परिवारों की बालिकाओं के लिए संभव नहीं हो पाता। ऐसे में घर में रहकर दूरस्थ शिक्षा द्वारा उच्च शिक्षा के कोर्स करना बालिकाओं के लिए अधिक अनुकूल होता है। बालिका की शिक्षा की बालकों की तुलना में कमी को दूर करने के लिए न केवल शैक्षिक सुविधाओं का व्यापक विकास करना आवश्यक है बल्कि बालिका शिक्षा के मार्ग की अवरोधक स्थितियों का निराकरण भी जरूरी है। बालिका शिक्षा की असमता के कारणों हेतु ठोस तथा कारगर उपाय उठाए जाने की भी आवश्यकता है। इस हेतु विशेष योजनाएं, अधिक बजट आवंटन के साथ प्रशासन के सख्त व अनुकूल कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।