राहुल विदेश में,प्रियंका शिमला में, पीके काे कांग्रेस में लाने का फैसला लेता कौन?

संदीप ठाकुर

पीके और कांग्रेस ने दोस्ताना मोड़ पर अपने रास्ते अलग अलग कर लिए। क्यों
? क्योंकि पीके काे लेकर कांग्रेस गंभीर नहीं है। इस बात का एहसास पीके
काे भी हो गया। ऐसा उनकी बातों से लगता है। कांग्रेस भी पीके काे लेकर
ज्यादा गंभीर नहीं दिखी। इस महाशय काे पार्टी में लेना है या नहीं,जब यह
फैसला लेना था ताे राहुल गांधी विदेश में थे और प्रियंका गांधी शिमला
में। इसके पहले भी कई अहम मौकों पर राहुल ऐसा कर चुके हैं। पार्टी काे
बचाने काे लेकर चली इस पूरी कवायद के दौरान सिर्फ पार्टी चीफ सोनिया
गांधी मौजूद रहीं और वे कोई फैसला नहीं ले सकीं। और वही हुआ। पीके अपने
रास्ते,कांग्रेस अपने रास्ते।

यह पहला मौका नहीं था जब राहुल किसी बड़ी हलचल के दौरान नदारद हों। ऐसा
पहले भी कई बार हो चुका है। 2014 में कांग्रेस बुरी तरह से लोकसभा चुनाव
हारी थी। उसे सिर्फ 44 सीटें मिली थीं। राहुल अचानक विदेश दौरे पर निकल
लिए थे। फिर अक्टूबर 2015 में बिहार चुनाव से पहले वो फ्रांस निकल गए थे।
इसी साल दिसंबर में देश के पांच राज्यों में चुनाव तैयारियां चल रही थीं।
पार्टी को उनकी जरूरत थी। लेकिन राहुल यूरोप ट्रिप पर निकल गए थे।
कांग्रेस जिस दुर्दिन से गुजर रही है, उसके लिए यही सब कारण जिम्मेदार
है। यदि उसे अपना पुराना वैभव हासिल करना है तो उसके लिए उसे खुद ही हाथ
पैर मारने होंगे न कि किसी बाहरी के भरोसे बैठना होगा। पार्टी में जमीन
पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं की या तो कोई पूछ नहीं है या फिर ऐसे
कार्यकर्ताओं और नेताओं की कमी है। पॉलिटिक्स फुल टाइम जॉब है, पार्ट
टाइम भूमिका के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। राहुल गांधी अगर कमान
संभालते हैं तो उन्हें पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच, जनता के बीच भरपूर
समय देना होगा। जब तब छुट्टी के नाम पर देश से बाहर जाने की आदत पर रोक
लगानी हाेगी।

पीके एक ऐसे शख्स हैं जिसने जिंदगी में कभी कोई चुनाव तक नहीं लड़ा हो।
जो राजनीतिक अनुभव के मामले में निल बटे सन्नाटा । जिसकी अपनी विचारधारा
क्या है, ये किसी को पता न हो। जो डील होने पर किसी भी पार्टी, किसी भी
विचारधारा के लिए काम करने को तैयार हो। लेकिन पीके के इलेक्शन मैनेजमेंट
कौशल पर कोई सवाल नहीं उठ सकता। इस पेशेवर चुनावी रणनीतिकार की
कामयाबियों के ताज में एक से एक रत्न जड़े हैं। 2014 में नरेंद्र मोदी की
अगुवाई में पहली बार केंद्र में बीजेपी की पूर्ण बहुमत की सरकार से लेकर
आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी को सत्ता तक, 2015 में बिहार में तब के
आरजेडी-जेडीयू-कांग्रेस महागठबंधन की शानदार जीत से लेकर 2021 के बंगाल
चुनाव में ममता बनर्जी की जीत की हैट्रिक तक…बतौर रणनीतिकार पीके की इन
सब में बड़ी भूमिका मानी जाती है। लेकिन इलेक्शन मैनेजमेंट स्किल और
पार्टी चलाना या पार्टी का हिस्सा बनना अलग अलग बातें है। पर्दे के पीछे
रहकर रणनीति तैयार करने वाले पीके कांग्रेस में अपनी शर्तों पर आथे ना
चाहते थे जो कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी में संभव प्रतीत नहीं होता है।
शायद यही वजह है कि सोनिया गांधी से कई दौर के बातचीत के बाद भी बात नहीं
बनी। बताया जाता है कि प्रशांत किशोर खुद के लिए न्यूनतम जवाबदेही के साथ
असीमित अधिकार चाह रहे थे जिस पर बात बनी नहीं।