ललित गर्ग
एक बार फिर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री को नीचा दिखाने के इरादे से लद्दाख में चारागाह भूमि पर चीनी सेना का कब्जा होने का दावा किया है, निश्चित इस तरह के बयान न केवल सेना के मनोबल को कमजोर करते हैं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता एवं अखण्डता को ध्वस्त करते हैं। राहुल गांधी मोदी-विरोध में कुछ भी बोले, यह राजनीति का हिस्सा हो सकता है, लेकिन वे मोदी विरोध के चलते जिस तरह के अनाप-शनाप दावे करते हुए गलत बयान देते हैं, वह उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता को ही दर्शाता है। आखिर कब राहुल एक जिम्मेदार एवं विवेकवान सशक्त नेता बनेंगे?
राहुल गांधी ने कथित तौर पर लद्दाख की जमीन पर चीन का कब्जा होने का जो दावा किया गया है, वह जल्दीबाजी में बिना सोच के दिया गया गुमराह करने वाला बयान है, उससे यही पता चलता है कि उन्हें न तो प्रधानमंत्री की बातों पर यकीन है, न रक्षा मंत्री की और न ही विदेश मंत्री की। यह भी स्पष्ट है कि उन्हें शीर्ष सैन्य अधिकारियों पर भी भरोसा नहीं। ध्यान रहे, वह सर्जिकल और एयर स्ट्राइक पर भी बतूके सवाल खड़े कर चुके हैं। उनकी कार्यशैली एवं बयानबाजी में अभी भी बचकानापन एवं गैरजिम्मेदाराना भाव ही झलकता है। लगता है कांग्रेस के शीर्ष नेता होने के कारण वे अहंकार के शिखर पर चढ़ बैठे हैं, निश्चित ही राहुल के विष-बुझे बयान इसी राजनीतिक अहंकार से उपजे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि भारत के सबसे बड़े दुश्मन राष्ट्र की वे तरफदारी करते एवं चीन के एजेंडे को बल देते नजर आते हैं। उनका यह रवैया नया नहीं, लेकिन यह देश के लिये घातक है। यह भूला नहीं जा सकता कि डोकलाम विवाद के समय वह भारतीय विदेश मंत्रालय को सूचित किए बिना किस तरह चीनी राजदूत से मुलाकात करने चले गए थे। जब इस मुलाकात की बात सार्वजनिक हो गई तो उन्होंने यह विचित्र दावा किया कि वह वस्तुस्थिति जानने के लिए चीनी राजदूत से मिले थे। क्या इससे अधिक गैरजिम्मेदाराना हरकत और कोई हो सकती है?
राहुल गांधी अपने आधे-अधूरे, तथ्यहीन एवं विध्वंसात्मक बयानों को लेकर निरन्तर चर्चा में रहते हैं। उनके बयान हास्यास्पद होने के साथ उद्देश्यहीन एवं उच्छृंखल भी होते हैं। राहुल ने पहले भी बातों-बातों में यह कहा था कि चीन ने भारत की जमीन पर कब्जा कर लिया है। वह देश के प्रमुख विपक्षी दल के नेता हैं। सरकार की नीतियों से नाराज होना, सरकार के कदमों पर सवाल उठाना उनके लिए जरूरी है। राजनीतिक रूप से यह उनका कर्तव्य भी है। लेकिन चीन के साथ उनकी सहानुभूति अनेक प्रश्नों को खड़ा करती है। ऐसे ही सवालों में आज तक इस सवाल का जवाब भी नहीं मिला कि आखिर राजीव गांधी फाउंडेशन को चीनी दूतावास से चंदा लेने की जरूरत क्यों पड़ी? वह यह नहीं बताते कि 2008 में अपनी बीजिंग यात्रा के दौरान सोनिया गांधी और उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी से समझौता क्यों किया था?
राहुल को यह भी विस्मृत नहीं करना चाहिए कि जवाहरलाल नेहरू के समय चीन ने किस तरह पहले तिब्बत को हड़पा और फिर 1962 के युद्ध में ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ का नारा जप कर भारत माता की 45,000 वर्ग किलोमीटर भूमि चीन को दे दी। आज जब भारत चीन के अतिक्रमणकारी एवं अति महत्वाकांक्षी रवैये के खिलाफ डटकर खड़ा है और उसे उसी की भाषा में जवाब दे रहा है तब राहुल गांधी जानबूझकर प्रधानमंत्री की एक सशक्त एवं विश्व नेता की छवि पर हमला करने के लिए उतावले रहते हैं। वह अंध मोदी विरोध के चलते सारी मर्यादाओं का अतिक्रमण कर जाते हैं। वह यह बुनियादी बात समझने के लिए तैयार नहीं कि जब रक्षा और विदेश नीति के मामलों में राजनीतिक वर्ग एक सुर में नहीं बोलता तो इससे राष्ट्रीय हितों को चोट ही पहुंचती है, इससे राष्ट्र कमजोर होता है। चीन एवं पाकिस्तान जैसे दुश्मन राष्ट्र इसी से ऊर्जा पाकर अधिक हमलावर बनते हैं।
देश की जनता मोदी एवं राहुल के बीच के फर्क को महसूस कर रही है। जनता यह गहराई से देख रही है कि राहुल किस तरह गलवान में हमारे सैनिकों की वीरता-शौर्य-बलिदान पर सवाल उठाते रहे हैं, भारत की बढ़ती साख, सुरक्षा एवं विकास की तस्वीर कोे बट्टा लगा रहे हैं जबकि मोदी ने न केवल अपनी सरकार के दौरान भारत में आए बदलावों की सकारात्मक तस्वीरें देशी-विदेशी मंच पर पेश कीं, बल्कि दुनिया की समस्याओं को लेकर भी अपनी समाधानपरक सोच रखी। इसलिये उन्हें विश्व नेता के रूप में स्वीकार्यता मिल रही है। किन्हीं राहुल रूपी गलतबयानी की वजह से मोदी की छवि पर कोई असर नहीं पड़ा है, भारत ही नहीं, समूची दुनिया में मोदी के प्रति सम्मान एवं श्रद्धा का भाव निरन्तर प्रवर्द्धमान है। राहुल गांधी, उनके रणनीतिकारों और विदेशों में कांग्रेस के संचालकों का नरेंद्र मोदी, भाजपा और संघ परिवार के प्रति शाश्वत वैर-भाव एवं विरोध की राजनीति समझ में आती है लेकिन देश की छवि खराब करने, सरकार को कमजोर बता कर और मोदी जैसे कद्दावर नेता को खलनायक बनाने से उन्हें इज्जत नहीं मिलेगी। यह तो विरोध की हद है! नासमझी एवं राजनीतिक अपरिपक्वता का शिखर है!! उजालों पर कालिख पोतने के प्रयास हैं!!!
लगता है राहुल गांधी मोदी विरोध के नाम पर देश के विरोध पर उतर आए हैं। ये पहली बार नहीं है। राहुल गांधी इस तरह का आचरण इसीलिए करते हैं, क्योंकि उन्हें शासन संचालन, राजनीतिक परिपक्वता के तौर-तरीकों का कोई अनुभव नहीं। उनकी तरह सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी भी कोई जिम्मेदारी लिए बिना पर्दे के पीछे से सब कुछ करने में ही यकीन रखती हैं। कांग्रेस की मजबूरी यह है कि वह गांधी परिवार के बिना चल नहीं सकती। कांग्रेस नेताओं की भी यह विवशता है कि अपने नेता के बयानों को सही एवं जायज ठहराने में सारी हदें लांघ जाते हैं। लेकिन, प्रश्न यह है कि क्या दुश्मन राष्ट्र से जुड़ी स्थितियों पर बोलते हुए वह मात्र भारत के विपक्षी दल के नेता होते हैं? क्या उन्हें यह नहीं सोचना चाहिए कि वह भारत का भी प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? यह समस्या मात्र राहुल गांधी की नहीं है। पूरा विपक्ष यह नहीं समझ पा रहा है कि सत्ताधारी दल के विरोध और देश के विरोध के बीच फर्क है। सत्ताधारी दल का विरोध करना स्वाभाविक है, लेकिन उस लकीर को नहीं पार करना चाहिए, जिससे वह देश का विरोध बन जाए। ऐसे बयानों से किस पर और कैसे प्रभाव पड़ता है। सरकार और राष्ट्र के विरोध के बीच अंतर समझना भी आवश्यक है।
उल्लेखनीय बात यह है कि निन्दक एवं आलोचक कांग्रेस को सब कुछ गलत ही गलत दिखाई दे रहा है। मोदी एवं भाजपा में कहीं आहट भी हो जाती है तो कांग्रेस में भूकम्प-सा आ जाता है। मजे की बात तो यह है कि इन कांग्रेसी नेताओं को मोदी सरकार की एक भी विशेषता दिखाई नहीं देती, कितने ही कीर्तिमान स्थापित हुए हो, कितने ही आयाम उद्घाटित हुए हो, कितना ही देश को दुश्मनों से बचाया हो, कितनी ही सीमाओं एवं भारत भूमि की रक्षा की हो, कितना ही आतंकवाद पर नियंत्रण बनाया हो, देश के तरक्की की नई इबारतें लिखी गयी हो, समूची दुनिया भारत की प्रशंसा कर रही हो, लेकिन इन कांग्रेसी नेताओं को सब काला ही काला दिखाई दे रहा है। कमियों को देखने के लिये सहस्राक्ष बनने वाले राहुल अच्छाई को देखने के लिये एकाक्ष भी नहीं बन सके? बने भी तो कैसे? शरीर कितना ही सुन्दर क्यों न हो, मक्खियों को तो घाव ही अच्छा लगेगा। इसी प्रकार राहुल एवं कांग्रेस को तो अच्छाइयों में भी बुराई का ही दर्शन होगा।