
राजेश जैन
बस एक बार एब्रॉड चला जाऊं… फिर ज़िंदगी सेट है… ये लाइन आज भी भारत के लाखों घरों में गूंजती है। बच्चों के स्कूल बैग से लेकर मां-बाप की दुआओं तक, सब इसी एक ख्वाब में बंधे हैं। पढ़ाई की बात हो या करियर की, विदेश जाना अब सिर्फ एक ऑप्शन नहीं, ज़िंदगी का लक्ष्य बन गया है।
हाल ही में जब अमेरिका ने सभी नए स्टूडेंट वीज़ा इंटरव्यू कुछ वक्त के लिए रोक दिए थे। वजह टेक्निकल बताई गई — सोशल मीडिया वेरिफिकेशन, सिक्योरिटी चेक और इंटरव्यू प्रोसेस को टाइट करना। लेकिन हज़ारों भारतीय छात्रों को बड़ा झटका लगा था। लगता भी क्यों नहीं किसी ने एजुकेशन लोन ले रखा था, किसी ने भारत का कॉलेज छोड़ दिया था, किसी ने नौकरी तक ठुकरा दी थी… एक बार तो सभी धक्क रह गए। हालांकि बाद में कुछ राहत मिली लेकिन इस घटना ने बड़ा सवाल खड़ा कर दिया — क्या हमारी पढ़ाई का सिस्टम इतना कमजोर है कि बच्चों को भरोसा ही नहीं होता कि वे भारत में रहकर भी वैसा ही फ्यूचर बना सकते हैं?
हर साल लाखों बच्चे जेईई, नीट, सीयूईटी जैसी परीक्षाएं देते हैं। टैलेंट की कोई कमी नहीं। लेकिन जब बात आती है कॉलेज चुनने की, तो टॉप पर विदेशी नाम होते हैं —एमआईटी, स्टैनफोर्ड, हार्वर्ड। हमारे यहां आईआईटी, आईआईएम जैसे कुछ गिने-चुने संस्थान ही इंटरनेशनल स्टैंडर्ड के हैं। बाकी ज़्यादातर कॉलेजों में वही पुराना कोर्स, कम रिसर्च और इंडस्ट्री से बिल्कुल भी कनेक्शन नहीं। ऐसे में बच्चों को लगता है कि यहां पढ़ने से सिर्फ डिग्री मिलेगी, दुनिया बदलने का स्कोप नहीं।
ऐसे में क्या पढ़ाई को सिर्फ डिग्री तक सीमित रखने की बजाय उसे भविष्य की तैयारी नहीं बनाना चाहिए? आज ज़रूरत है ऐसे कोर्स लाने की जो आने वाले कल की तस्वीर तय करें। जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्लाइमेट टेक्नोलॉजी, डिजिटल एथिक्स, न्यूरोसाइंस, स्पेस लॉ, क्वांटम कंप्यूटिंग। ये सब फील्ड्स आज दुनिया को बदल रहे हैं, लेकिन भारत के बहुत कम कॉलेजों में इनकी ठीक से पढ़ाई होती है। हमें चाहिए कि हर राज्य, हर शहर में ऐसी शिक्षा सुलभ हो जो छात्रों को ग्लोबल बना सके, बगैर बॉर्डर पार किए..। इसके लिए जरूरी है पढ़ाने वाले अपडेट रहें। इंटरनेशनल फैकल्टी को बुलाया जाए, संयुक्त डिग्री प्रोग्राम शुरू किए जाएं, ग्लोबल रिसर्च प्रोजेक्ट्स में भारत के कॉलेज भी हिस्सा लें। आज की टेक्नोलॉजी ने वो सारी दीवारें हटा दी हैं, जो पहले दुनिया को अलग करती थीं। एक कोटा का बच्चा भी अब हार्वर्ड की क्लास वर्चुअली अटेंड कर सकता है — बस सिस्टम में दम होना चाहिए।
कॉलेजों को चाहिए कि वे बच्चों को रियल वर्ल्ड के लिए तैयार करें। थ्योरी से निकलकर अब असली दुनिया की ट्रेनिंग देनी होगी। लाइव प्रोजेक्ट्स, स्टार्टअप इंटर्नशिप्स, इंडस्ट्री एक्सपोजर — ये सब आज के एजुकेशन का हिस्सा बनने चाहिए। बच्चों को सिर्फ नौकरी की नहीं, खुद की पहचान बनाने की ताकत दीजिए।
इस सब के बीच एक और बात जो अक्सर छूट जाती है — बच्चों का मानसिक स्वास्थ्य। आज का स्टूडेंट सिर्फ पढ़ाई नहीं करता, वह सोशल मीडिया की तुलना, पैरेंट्स की उम्मीदें, और फ्यूचर का डर — सब एक साथ झेलता है। ऐसे में कॉलेजों को काउंसलिंग की सुविधा देनी चाहिए, लाइफ स्किल्स की क्लास होनी चाहिए और यह समझ बनानी चाहिए कि एग्जाम के नंबर ही सब कुछ नहीं होते।
सरकार को इस दिशा में बड़ी भूमिका निभानी होगी। शिक्षा का बजट डबल से ज्यादा करना होगा। जैसे डिजिटल इंडिया और स्टार्टअप इंडिया को मिशन मोड में लाया गया, वैसे ही शिक्षा को भी एक नेशनल मिशन की तरह लेना होगा। रिसर्च को फंड मिले, कॉलेजों को ज़्यादा ऑटोनॉमी दी जाए और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा दिया जाए। सिर्फ रैंकिंग के चश्मे से मत देखिए, असल में स्टूडेंट्स को क्या मिला — ये पूछिए।
भारत के अलग-अलग शहरों को शिक्षा और इनोवेशन के हब बनाया जा सकता है। जैसे स्टैनफोर्ड और सिलिकॉन वैली ने मिलकर अमेरिका में टेक्नोलॉजी की क्रांति लाई, वैसे ही जयपुर-जोधपुर, भोपाल-इंदौर, पुणे-नासिक जैसे कॉरिडोर बन सकते हैं, जहां पढ़ाई, रिसर्च और स्टार्टअप साथ चलें। हमें पता है ये सब करना मुश्किल है, लेकिन नामुमकिन नहीं। हमें अब ये तय करना है कि हम हर बार दूसरों के दरवाज़े खटखटाते रहें या अपने देश में ही ऐसे रास्ते बनाएं जो सीधा भविष्य की ओर जाएं। पढ़ाई को समझौता नहीं, गर्व बनाना होगा। वो गर्व जो हर छात्र को यह कहने का हक़ दे —“मैं भारत में पढ़ा हूं, और मुझे दुनिया में कहीं भी खड़े होने का भरोसा है।”
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। शिक्षा और युवा नीति पर नियमित लेखन करते हैं।)