बिहार की राजनीति में क्यों अहम हुईं अगड़ी जातियां?

Why did the forward castes become important in Bihar politics?

अशोक भाटिया

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले CM नीतीश कुमार ने बड़ा दांव खेल दिया है। नीतीश कुमार ने राज्य में अगड़ी जातियों के विकास के लिए एक आयोग गठित करने का निर्णय लिया है, जिसे उच्च जाति आयोग नाम दिया गया है। भाजपा नेता महाचंद्र प्रसाद सिंह को इस आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है। सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा गुरुवार को इसकी आधिकारिक अधिसूचना जारी की गई। महाचंद्र प्रसाद सिंह को तीन वर्ष के कार्यकाल के लिए इस पद पर नियुक्त किया गया है।जेडीयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव रंजन प्रसाद को आयोग का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया है। यह कदम ऐसे समय उठाया गया है जब राज्य में महत्वपूर्ण राजनीतिक बदलाव देखने को मिल रहे हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री और जेडी(यू) के पूर्व नेता राम चंद्र प्रसाद सिंह ने हाल ही में अपने राजनीतिक दल आप सबकी आवाज (ASA) का प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी में विलय कर दिया है। सिंह ने 2023 में जेडी(यू) छोड़ दिया था, भाजपा में शामिल हो गए और बाद में 2024 में अपनी खुद की पार्टी बनाई और 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने की योजना की घोषणा की। बिहार विधानसभा चुनाव इस साल अक्टूबर-नवंबर में होने की उम्मीद है। भाजपा, जेडीयू और एलजेपी से मिलकर बना राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सत्ता बरकरार रखने का लक्ष्य लेकर चल रहा है, जबकि विपक्षी दल इंडिया ब्लॉक मौजूदा नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार को चुनौती देने की तैयारी कर रहा है।

ज्ञात हो कि बिहार की राजनीति यही कोई तीन दशक से गैर सवर्ण जातियों के इर्द-गिर्द घूमती आई है। ख़ास तौर पर पिछड़ा वर्ग का प्रभुत्व इतना बढ़ा कि इस तबके से आने वाले लालू यादव-राबड़ी देवी-नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री होते आए हैं। हालांकि एक दौर वह भी रहा है, जब मुख्यमंत्री अगड़ी जातियों के ही होते थे। 90 के दशक में जब मंडल-कमंडल की राजनीति ने अपने पांव फैलाए, तो देश के तमाम दूसरे राज्यों की तरह बिहार की सियासत का नक़्शा भी बदल गया। लेकिन हाल के दिनों में, बिहार की राजनीति में एक बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है। अचानक वहां अगड़ी जातियों की अहमियत बढ़ गई है।

राज्य में इस साल परशुराम जयंती का आयोजन बहुत भव्य स्तर पर किया गया, जिसमें तेजस्वी यादव ने शिरकत की। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कुंवर सिंह का विजय उत्सव बहुत धूमधाम से मनाया गया। इस समारोह में अमित शाह शामिल हुए। और तो और, जदयू ने अपनी पार्टी में सवर्ण प्रकोष्ठ बना दिया है। अमूमन राजनीतिक दलों में पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ, अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ और अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ हुआ करते हैं, लेकिन नीतीश कुमार ने यह नया प्रयोग किया है।

बिहार में मुख्य रूप से चार बड़ी अगड़ी जातियां हैं- भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला। राजनीतिक गलियारों में उन्हें सांकेतिक भाषा में ‘भूराबाल’ कहा जाता है। बिल्कुल वैसे ही जैसे मुस्लिम-यादव समीकरण को ‘एमवाई’ कहते हैं। नब्बे के दशक में जब बिहार की राजनीति में लालू युग शुरू हुआ, तो उनको लेकर बड़ा राजनीतिक विवाद खड़ा हुआ था। कहा यह गया कि लालू ने बिहार की राजनीति में ‘भूराबाल’ को साफ़ करने की बात कही है। हालांकि लालू यादव इसे अपने ख़िलाफ़ एक बड़ी राजनीतिक साजिश बताते रहे हैं। उन्होंने कई मौकों पर कहा कि उन्होंने ऐसा कोई बयान नहीं दिया था। खैर, सच्चाई जो भी रही हो, लेकिन इस विवाद के बाद वहां लालू यादव की छवि ‘एंटी अपर कास्ट’ नेता के रूप में उभरी। लालू यादव ने भी इसकी परवाह किए बिना यादव, मुस्लिम और अति पिछड़ा वर्ग-दलित वर्ग की कुछ अन्य जातियों को गोलबंद कर अपने को मजबूत बनाए रखा।

बिहार में अगड़ी जातियों की आबादी 15 से 20 प्रतिशत के बीच है। एक वक़्त यह कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करती थीं, लेकिन बाद में भाजपा के साथ आईं। नीतीश कुमार के भाजपा के साथ गठबंधन में होने की वजह से इनका समर्थन जदयू को मिलता रहा। लेकिन पिछले चुनाव में यह देखा गया कि सवर्ण जातियों ने भाजपा को तो वोट किया, लेकिन जदयू को नहीं। यही वजह रही कि जदयू को पहली बार भाजपा से कम सीट मिलीं और राज्य विधानसभा में सीटों की संख्या के क्रम में तीसरे पायदान पर पहुंच गई।

राजनीति में बिना मकसद कुछ भी नहीं होता। अगर बिहार में अगड़ी जातियों की पूछ बढ़ गई है, तो उसकी वजह भी है। बिहार में जिस तरह से भाजपा तनकर खड़ी हुई है और जीतनराम मांझी, मुकेश सहनी जैसे अपनी-अपनी जातियों के नेताओं का प्रभाव बढ़ना शुरू हुआ है, उसमें आरजेडी को लगने लगा है कि ‘एमवाई’ समीकरण के सहारे राज्य की सत्ता में वापसी मुश्किल है। तेजस्वी यादव ने पिछले चुनाव के मौके पर कहा भी था कि अब हम ‘एमवाई’ की पार्टी नहीं बल्कि ए टू जेड की पार्टी होंगे। इसी कोशिश में वह अगड़ी जातियों के साथ अपनी दोस्ती बढ़ा रहे हैं। मार्च महीने में स्थानीय निकाय चुनाव में प्रत्याशियों के चयन में यह बात साफ़ दिखी भी। बिहार के सियासी गलियारों में यह कहा भी जाने लगा है कि लालू यादव जिस ‘भूराबाल’ को साफ़ करने की बात करते थे, तेजस्वी यादव उसी ‘भूराबाल’ को साथ लेकर चलने की बात करने लगे हैं।

उधर, पिछले चुनावी नतीजों से झटका खाए नीतीश कुमार को लगता है कि अगर वह ख़ुद अपने पांव पर नहीं खड़े हुए और भाजपा ने अपनी बैसाखी छीन ली, तो फिर उनके सियासी लड़ाई मुश्किल हो जाएगी। अपने पांव पर खड़े होने की कवायद में ही वह अगड़ी जातियों में अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश में हैं। राज्य में पिछड़ा वर्ग की नुमाइंदगी करने वाले आरजेडी और जेडीयू, दोनों को अब यह अहसास हो चला है कि अगड़ी जातियों का साथ लेकर ही वे अपने वोट बैंक का विस्तार कर सकते हैं।बिहार में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस पार्टी ने अपनी तैयारियां तेज कर दी हैं। रविवार को पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने 58 एआईसीसी (अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी) पर्यवेक्षकों की नियुक्ति की है, जो राज्य में चुनावी गतिविधियों की निगरानी और सांगठनिक मजबूती के काम को सुनिश्चित करेंगे।

न्यूज एजेंसी की रिपोर्ट के मुताबिक इन पर्यवेक्षकों में विंग कमांडर (सेवानिवृत्त) अनूमा आचार्य, अली मेहंदी, अशोक चांदना, मनोज यादव, नदीम जावेद, शोएब खान, अखिलेश यादव, वीरेन्द्र यादव जैसे प्रमुख नाम शामिल हैं। ये सभी नेता अलग-अलग क्षेत्रों में पार्टी के प्रदर्शन, उम्मीदवार चयन, स्थानीय मुद्दों और जमीनी हालात का आकलन करेंगे।बिहार में कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा है, जिसमें राजद (राष्ट्रीय जनता दल) सबसे बड़ा घटक है। पिछले विधानसभा चुनाव (2020) में राजद ने 144 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 75 सीटें जीती थीं। वहीं कांग्रेस ने 70 सीटों पर किस्मत आजमाई, लेकिन केवल 19 सीटों पर जीत मिली। माकपा (सीपीआई-एमएल ) ने 19 सीटों पर चुनाव लड़ा और 12 सीटें जीती थीं।राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, 2024 के लोकसभा चुनाव में कमजोर प्रदर्शन के बाद कांग्रेस के लिए बिहार चुनाव एक महत्वपूर्ण मौका है जिससे वह संगठन को पुनर्गठित कर राज्य में अपनी पकड़ मज़बूत कर सकती है। पर्यवेक्षकों की यह तैनाती एक संगठित रणनीति का हिस्सा है।

अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार