संजीव ठाकुर
देश में शहरों और गांवों में नारियों पर हो रहे अत्याचारों की खबरें मानवीय संवेदनाओं को झकझोर कर रख देती है। आसपास और पास पास इतनी दिल दहला देने वाली घटनाएं प्रकाश में आती हैं की मानवता केवल आंसू बहा कर रह जाती है। क्या इतना बड़ा सशक्त पुरुषों का समाज इसे रोकने में सक्षम नहीं है। देश में यह प्रश्न यक्ष प्रश्न की तरह हम सबके सामने खड़ा है। भारत में गरीब तबके में महिलाओं की स्थिति अभी भी दयनीय है मजदूरी करने से लेकर घरों में झाड़ू पोछा बर्तन मांजने तक औरत अपनी आजीविका चलाने के लिए मजबूर है। नारी उत्पीड़न की शुरुआत यहीं से होती है ।भारत में नारी अभी भी बहुत उपेक्षित प्रताड़ित तथा उत्पीड़ित है। हजारों उत्पीड़न तथा प्रताड़ना की घटनाएं प्रकाश में ही नहीं आ पाती हैं, और हम नारी दिवस पर जोर जोर से नारी उत्थान की दलीलें देते फिरते हैं। यह अत्यंत पीड़ा दायक तथा विचारणीय है।स्त्री जागरण के परिपेक्ष में भारत में नई स्त्री की संकल्पना उभरती है। भारत की स्त्री जागरण स्थितियों में पश्चिम नारीवाद का सर्वाधिक प्रभाव दिखाई देता है, इसमें बुनियादी नारी अधिकारों के जरिए सशक्तिकरण की बात की गई है। भारत में नारी उत्थान और समानता का संकल्प एवं विमर्श मूलतः मध्यम वर्गीय, शहरी और अभिजात्य इसमें स्त्रियों के बुनियादी अधिकार शिक्षा रोजगार आर्थिक स्वतंत्रता की बात का जोर शोर से जिक्र किया गया है। गांव की स्त्रियों पर घरेलू हिंसा तथा कस्बाई स्त्रियों के शोषण की समस्याएं लगभग हाशिए पर हैं। इसके अलावा भारत की परंपरागत विशेषताएं हैं जो भारतीय जनमानस में इस तरह घुली मिली हैं कि यकायक दलित स्त्री को सबला या सर्व शक्तिमान मानना पुरुष समाज को स्वीकार्य नहीं होगा। भारतीय स्त्री पति को परमेश्वर एवं मातृत्व के दायित्व को निभाने वाली एक अबला स्त्री ही है। पिता, भाई तथा पति के संरक्षण में पलने, बढ़ने के बाद उनके अधिकारों से परे जाने में अभी भी सक्षम नहीं हुई है। जबकि यूरोपीय देशों का नारीवाद एवं नारी सशक्तिकरण एक अलग दृष्टि तथा नई दिशा को दर्शाता है। भारत की नारी अपनी “स्त्री”होने के दायित्व को यकायक ठुकरा कर उसकी बेड़ियों से बाहर नहीं निकल सकती। भारतीय समाज अभी भी स्त्रियों को मान्य रुप से बराबरी का दर्जा नहीं दे पाया है। वह अभी भी स्त्री को अबला एवं विज्ञापन का एक अच्छा जरिया मानता है, स्त्रियों को आज भी पुरुष विहीन समाज किसी भी तरह ग्राह्य एवं मान्य नहीं है। भारतीय संदर्भ में नई स्त्री की कल्पना वास्तव में महिलाओं के लिए एक मिथक तथा मृग मरीचिका के रूप में है। स्त्री उत्थान विमर्श के लिए यह समझना अत्यंत आवश्यक होगा की हर समाज की अपनी वैचारिक विशेषता, संस्कृति एवं सीमाएं होती हैं। नारी सशक्तिकरण की जितनी भी अवधारणाएं और नियम कानून बने हैं, वह सब पश्चिम से अनुसरण करके बनाए गए हैं, ऐसे में भारतीय दलित स्त्री की वैचारिकी क्या हो सकती है, इसकी संकल्पना भारतीय नारी ही कर सकती है। भारत की नई स्त्री वह होगी जो अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो, एवं स्वतंत्रत विचारों के अधिकार से अच्छी तरह वाकिफ एवं जानकार हो। कस्बाई तथा झोपड़पट्टी में रहने वाली स्त्रियों को जहां भारत में शिक्षा का अभाव है, ऐसे में उनके लिए जागरूकता लाना अभी भी एक टेढ़ी खीर तथा एक बड़े अभियान चलाने जैसी बात होगी। भारत में जहां 35% स्त्रियां साक्षर नहीं है, ऐसे में नई स्त्री की परिकल्पना केवल पश्चिमी देशों में ही की जा सकती है। भारत में स्वतंत्रता संग्राम से स्त्रियों की सहभागिता रही है, उसके उपरांत पंचायती चुनाव में महिला आरक्षण, संरक्षण,शिक्षा तथा रोजगार में बढ़ती सहभागिता नौकरी पेशा स्त्रियों का मातृत्व सुविधा कार्य के लिए समान वेतन का संघर्ष भारत में स्त्री बेचारी की मानसिकता को सशक्त करते हैं। भारत में नारी सशक्तिकरण एवं नारी समानता के उदाहरण चिकित्सा, तकनीकी, विधि विधाई, शिक्षा जगत, सेना तथा सरकारी नौकरी में दिखाई तो देते हैं, पर यह स्त्रियों की संख्या उनकी जनसंख्या के अनुपात में अत्यंत ही न्यून है। भारत में स्त्री समानता के लिए भारतीय समाज, सरकार, राजनेताओं, चिंतकों को पश्चिमी देशों का अंधानुकरण न कर भारत की भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, तथा धार्मिक पृष्ठभूमि को देखकर उसके अनुरूप स्त्रियों के विकास तथा सशक्तिकरण एवं समानता के लिए सशक्त योजनाएं बनाकर उसके क्रियान्वयन की आवश्यकता होगी है। वरना नारी सशक्तिकरण नारी समानता और नारी उत्थान की बातें कागजों तक सिमट के रह जाएंगी, और नारी अभी भी अंधेरों में, गांवों में झोपड़पट्टीयों में उत्पीड़न एवं शोषण का शिकार होती रहेंगी।