मासूम और चमकती आँखों का बचपन बहदाल क्यों?

ललित गर्ग

बच्चों के अधिकारों, शिक्षा और कल्याण के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए पूरे भारत में बाल दिवस मनाया जाता है। हर साल 14 नवंबर को भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन के अवसर पर यह दिवस मनाया जाता है। भारत के अलावा बाल दिवस दुनिया भर में अलग-अलग तारीखों पर मनाया जाता है। कहा जाता है कि पंडित नेहरू बच्चों से बेहद प्यार करते थे इसलिए उनके जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में चुना गया। पंडित नेहरू बच्चों को देश के भविष्य की तरह देखते थे। नेहरू ने बच्चों के मासूम चेहरों और चमकती आँखों में भारत का भविष्य देखा। उनका कहना था कि बच्चों का जैसा पालन-पोषण करेंगे वह देश का भविष्य निर्धारित करेगा।’ लेकिन उनका यह बचपन रूपी भविष्य आज नशे एवं अपराध की दुनिया में धंसता चला जा रहा है। बचपन इतना डरावना एवं भयावह हो जायेगा, किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। आखिर क्या कारण है कि बचपन अपराध की अंधी गलियों में जा रहा है? बचपन इतना उपेक्षित एवं बदहाल क्यों हो रहा है? बचपन के प्रति न केवल अभिभावक, बल्कि समाज और सरकार इतनी बेपरवाह कैसे हो गयी है? यह प्रश्न बाल दिवस मनाते हुए हमें झकझोर रहे हैं।

बाल मजदूरी से बच्चों का भविष्य अंधकार में जाता ही है, देश भी इससे अछूता नहीं रहता क्योंकि जो बच्चे काम करते हैं वे पढ़ाई-लिखाई से कोसों दूर हो जाते हैं और जब ये बच्चे शिक्षा ही नहीं लेंगे तो देश की बागडोर क्या खाक संभालेंगे? इस तरह एक स्वस्थ बाल मस्तिष्क विकृति की अंधेरी और संकरी गली में पहुँच जाता है और अपराधी की श्रेणी में उसकी गिनती शुरू हो जाती हैं। महान विचारक कोलरिज के ये शब्द-‘पीड़ा भरा होगा यह विश्व बच्चों के बिना और कितना अमानवीय होगा यह वृद्धों के बिना?’ वर्तमान संदर्भ में आधुनिक पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन शैली पर यह एक ऐसी टिप्पणी है जिसमें बचपन की उपेक्षा को एक अभिशाप के रूप में चित्रित किया गया है। जब हम किसी गली, चौराहे, बाजार, सड़क और हाईवे से गुजरते हैं और किसी दुकान, कारखाने, रैस्टोरैंट या ढाबे पर 4-5 से लेकर 12-14 साल के बच्चे को टायर में हवा भरते, पंक्चर लगाते, चिमनी में मुंह से या नली में हवा फूंकते, जूठे बर्तन साफ करते या खाना परोसते देखते हैं और जरा-सी भी कमी होने पर उसके मालिक से लेकर ग्राहक द्वारा गाली देने से लेकर, धकियाने, मारने-पीटने और दुर्व्यवहार होते देखते हैं तो अक्सर ‘हमें क्या लेना है’ या ज्यादा से ज्यादा मालिक से दबे शब्दों में उस मासूम पर थोड़ा रहम करने के लिए कहकर अपने रास्ते हो लेते हैं। लेकिन कब तक हम बचपन को इस तरह प्रताड़ित एवं उपेक्षा का शिकार होने देंगे।

किसी भी राष्ट्र का भावी विकास और निर्माण वर्तमान पीढ़ी के मनुष्यों पर उतना अवलम्बित नहीं है जितना कि आने वाली कल की नई पीढ़ी पर। अर्थात् आज का बालक ही कल के समाज का सृजनहार बनेगा। बालक का नैतिक रूझान व अभिरूचि जैसी होगी निश्चित तौर पर भावी समाज भी वैसा ही बनेगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि बालक नैतिक रूप से जिसे सही समझेगा, आने वाले कल के समाज में उन्हीं गुणों की भरमार का होना लाजिमी है। ऐसी स्थितियों में हम बचपन को शिक्षा की ओर अग्रसर न करके उनसे बंधुआ मजदूरी कराते हैं, इन स्थितियों का उन पर कितना दुष्प्रभाव पड़ता है, और इन कमजोर नींवों पर हम कैसे एक सशक्त राष्ट्र की कल्पना कर सकते हैं?

कैसा विरोधाभास है कि हमारा समाज, सरकार और राजनीतिज्ञ बच्चों को देश का भविष्य मानते नहीं थकते लेकिन क्या इस उम्र के लगभग 25 से 30 करोड़ बच्चों से बाल मजदूरी के जरिए उनका बचपन और उनसे पढने का अधिकार छीनने का यह सुनियोजित षड्यंत्र नहीं लगता? मिसाल के तौर पर एक कानून बनाकर हमने बच्चों से उनका बचपन छिनने की कुचेष्टा की है। इस कानून में हमने यदि पारिवारिक कामधंधा या रोजगार है तो 4 से 14 की उम्र के बच्चों से कानूनन काम कराया जा सकता है और कोई उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यह कैसी विडम्बना है कि जब इस उम्र के बच्चों को स्कूल में होना चाहिए, खानदानी व्यवसाय के नाम पर एक पूरी पीढ़ी को शिक्षा, खेलकूद और सामान्य बाल्य सुलभ व्यवहार से वंचित किया जा रहा है और हम अपनी पीठ थपथपाए जा रहे हैं। बच्चों को बचपन से ही आत्मनिर्भर बनाने के नाम पर हकीकत में हम उन्हें पैसा कमाकर लाने की मशीन बनाकर अंधकार में धकेल रहे हैं।

बचपन को लेकर सरकार और समाज का नजरिया कितना विडम्बनापूर्ण है, इसे हमें समझना होगा। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1979 में बाल मजदूरी के खिलाफ एक प्रस्ताव पास किया, जिसे ध्यान में रखते हुए 1986 में भारत सरकार ने बाल श्रम निषेध एवं विनियम कानून का रूप दिया। इस कानून को गुरुपाद स्वामी समिति की सिफारिशों पर 14 अगस्त 1987 को मंत्रिमंडल द्वारा मंजूरी दी गई। इस नीति का उद्देश्य बच्चों को रोजगार से हटाकर उनका समुचित रूप से पुनर्वास कराना था, इस कानून के मुताबिक 5 से 14 साल के बच्चे काम नहीं करेंगे और यदि करते हुए पाए गए तो काम कराने वालों पर कानूनी कार्रवाई का भी प्रावधान बनाया गया। साथ ही 64 ऐसे क्षेत्र निर्धारित किए गए थे जो बच्चों के काम करने के लिहाज से खतरनाक थे जैसे सिल्क बुनाई, कांच, बीड़ी, कारपैट बुनाई, कोयले की खान आदि। संशोधित बिल में परिवार के कारोबार, एंटरटेनमैंट और स्पोटर्स एक्टिविटी जैसे सैक्टर छोड़कर बाकी सभी सैक्टरों में बालश्रम को प्रतिबंधित किया गया है लेकिन घरेलू रोजगार के नाम पर उनसे कैसा भी काम लिया जा सकता है। इस बिल के साथ ही बहुत सारे एन.जी.ओ. ने इस बिल की बारीकियों पर ध्यान देना शुरू किया।

बचपन बचाओ आंदोलन, चाइल्ड फंड, केयर इंडिया, तलाश एसोसिएशन, चाइल्ड राइट्स और ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर आदि संस्थाओं ने बाल श्रम खत्म करने की दिशा में इस बिल की कमियों को उजागर करते हुए संदेह जताया है कि इसके लागू होने पर बच्चों के बचपन और शिक्षा के अधिकार का हनन होगा क्योंकि अगर वे घर पर ही पारिवारिक व्यवसाय के नाम पर मजदूरी करेंगे तो पढने-लिखने, खेलने-कूदने कब जाएंगे। क्या यह उनके लिए समुचित शिक्षा का प्रबंध न कर सकने की अयोग्यता को छिपाना नहीं है? नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए अपना विरोध व्यक्त किया है। चाइल्ड राइट ट्रस्ट की ओर से डाक्टर आर. पदमिनी का कहना है कि बिल में जो भी संशोधन किए गए हैं उसने बच्चों के शोषण और दुरुपयोग के लिए अनौपचारिक रूप से दरवाजे खोल दिए हैं। पर क्या इसी आधार पर उनसे उनका बचपन छीनना और पढने-लिखने की उम्र को काम की भट्टी में झोंक देना उचित है? ऐसे बच्चे अपनी उम्र और समझ से कहीं अधिक जोखिम भरे काम करने लगते हैं। वहीं कुछ बच्चे ऐसी जगह काम करते हैं जो उनके लिए असुरक्षित और खतरनाक होती है जैसे कि माचिस और पटाखे की फैक्टरियां जहां इन बच्चों से जबरन काम कराया जाता है। इतना ही नहीं, लगभग 1.2 लाख बच्चों की तस्करी कर उन्हें काम करने के लिए दूसरे शहरों में भेजा जाता है।

इतना ही नहीं, हम अपने स्वार्थ एवं आर्थिक प्रलोभन में इन बच्चों से या तो भीख मंगवाते हैं या वेश्यावृत्ति में लगा देते हैं। देश में सबसे ज्यादा खराब स्थिति है बंधुआ मजदूरों की जो आज भी परिवार की समस्याओं की भेंट चढ़ रहे हैं। सच्चाई यह है कि देश में बाल अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है। बच्चे अपराधी न बने इसके लिए आवश्यक है कि अभिभावकों और बच्चों के बीच बर्फ-सी जमी संवादहीनता एवं संवेदनशीलता को फिर से पिघलाया जाये। फिर से उनके बीच स्नेह, आत्मीयता और विश्वास का भरा-पूरा वातावरण पैदा किया जाए। श्रेष्ठ संस्कार बच्चों के व्यक्तित्व को नई पहचान देने में सक्षम होते हैं। अतः शिक्षा पद्धति भी ऐसी ही होनी चाहिए। सरकार को बच्चों से जुड़े कानूनों पर पुनर्विचार करना चाहिए एवं बच्चों के समुचित विकास के लिये योजनाएं बनानी चाहिए। ताकि इस बिगड़ते बचपन और भटकते राष्ट्र के नव पीढ़ी के कर्णधारों का भाग्य और भविष्य उज्ज्वल हो सकता है। ऐसा करके ही हम बाल दिवस को मनाने की सार्थकता हासिल कर सकेंगे।