निर्मल रानी
देश में किसी भी राजनैतिक दल का कोई भी नेता वंशवाद या परिवारवाद को लेकर सार्वजनिक चर्चा करे या न करे परन्तु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस विषय पर प्रायः मुखरित होकर बोलते रहते हैं। पहले तो उनके द्वारा चिन्हित ‘परिवारवाद ‘ का अर्थ नेहरू गांधी परिवार ही हुआ करता था परन्तु जैसे जैसे अनेक क्षेत्रीय राजनैतिक दलों ने यह महसूस करना शुरू किया कि उनकी व उनके दल की अपनी क्षेत्रीय राजनीतिक अस्मिता यहाँ तक कि उसकी पहचान तक के लिये भाजपा बड़ा ख़तरा हो सकती है और उन्होंने भाजपा के साथ चलने के बजाये ‘आत्म निर्भर ‘ होना शुरू किया तब ही से उन क्षेत्रीय राजनैतिक दलों को भी परिवारवादी व वंशवादी कहकर संबोधित किया जाने लगा। परन्तु सवाल यह है कि देश के प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च पद पर बैठने के बाद जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अनेकानेक बार राजनीति में परिवारवादी व वंशवादी व्यवस्था पर प्रहार करते रहते हों तो निश्चित रूप से इस विषय पर चिंतन-मंथन किया जाना ज़रूरी है कि वास्तव में प्रधानमंत्री का वंशवाद विरोधी ‘विलाप’ कितना सही है ? और यह भी कि क्या उनका वंशवाद विरोध वास्तविक है या इसमें भी कोई विरोधाभास नज़र आता है।
पिछले दिनों गुजरात व हिमाचल प्रदेश विधान सभा और दिल्ली नगर निगम सहित देश के कई राज्यों में लोकसभा व विधानसभा के उपचुनाव संपन्न हुये। इनमें केवल गुजरात विधानसभा में रिकार्ड जीत हासिल करने व रामपुर विधान सभा के अतिरिक्त लगभग सभी चुनाव-उपचुनाव भाजपा हार गयी। हिमाचल प्रदेश में जहां भाजपा से कांग्रेस ने सत्ता छीन ली वहीं दिल्ली नगर निगम जहां लगभग 15 वर्षों से भाजपा सत्ता में थी,उसे आम आदमी पार्टी के हाथों बुरी तरह पराजित होना पड़ा। परन्तु गोदी मीडिया द्वारा भाजपा की रिकार्ड गुजरात जीत को तो अपने प्रोपेगेंडा में सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा गया जबकि अनेक जगहों पर भाजपा की हार पर रौशनी डालना भी मुनासिब नहीं समझा गया। और इसी गुजरात की जीत को जहां राजनैतिक विश्लेषक राज्य की धरातलीय राजनैतिक स्थिति के लिहाज़ से इसकी समीक्षा कर रहे थे वहीं प्रधानमंत्री ने इन चुनावों के परिणामों के सन्दर्भ में एक अनोखा स्टैंड लेते हुये यह फ़रमाया कि- ‘बीजेपी को मिल रहा जनसमर्थन बता रहा है कि लोगों का ग़ुस्सा परिवारवाद के प्रति बढ़ रहा है ‘। भाजपा के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि बीजेपी को मिल रहा समर्थन वंशवाद और बढ़ते भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लोगों के ग़ुस्से को दिखाता है।
अब सवाल यह है कि हिमाचल में भाजपा राज्य की सत्ता से बाहर हुई। उस राज्य से जहाँ के जे पी नड्डा पार्टी के सबसे बड़े यानी अध्यक्ष पद पर आसीन हैं। नड्डा ने तो दिल्ली में भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए गुजरात परिणामों से उत्साहित होकर यहां तक कह दिया कि वंशवाद, परिवारवाद,अकर्मण्य नेता व ग़ैर ज़िम्मेदारना विपक्ष के कारण गुजरात में कांग्रेस की ये हालत हुई है। परन्तु उन्होंने अपने गृह राज्य में अपनी पार्टी की दुर्दशा का कारण नहीं बताया। इसी तरह राज्य की राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा हिमाचल के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के पुत्र और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का है। उनके कई फ़ायर ब्रांड बयानों के बाद उनके पद और क़द में वृद्धि होती रही है। तो क्या प्रधान मंत्री के कथनानुसार हिमाचल के लोगों ने भी वंशवाद के ख़िलाफ़ वोट दिया ? मैनपुरी लोकसभा सीट को भी भाजपा ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। परन्तु इस उपचुनाव में समाजवादी पार्टी प्रत्याशी डिंपल यादव ने ऐतिहासिक जीत दर्ज करते हुये भाजपा प्रत्याशी रघुराज सिंह शाक्य को 288461 वोटों से हरा दिया। यह सीट तो ‘घोर वंशवाद’ का उदाहरण कही जा सकती है। फिर यहाँ के लोगों ने।’वंशवाद ‘ के विरुद्ध अपना ‘ग़ुस्सा’ क्यों नहीं दिखाया ? ऐसे कई परिणाम इन चुनावों में सामने आये जो कि प्रधानमंत्री की ‘वंशवाद ‘ विरोधी थ्योरी को ख़ारिज करते हैं।
चुनाव परिणामों के अतिरिक्त भी प्रधानमंत्री के ‘वंशवाद ‘ का विरोध महज़ एक ‘विलाप ‘ ही समझ आता है। क्योंकि गत दिनों हरियाणा में आदमपुर विधानसभा सीट से भाजपा ने कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुये नेता स्व भजन लाल के पौत्र और कुलदीप विश्नोई के पुत्र भव्य विश्नोई को उपचुनाव में प्रत्याशी बनाया। उपचुनाव में मिली जीत के फ़ौरन बाद ही उन्हें विधानसभा में लेखा समिति का सदस्य बनाया गया है।और चंद दिनों पूर्व कुलदीप बिश्नोई,उनकी पत्नी रेणुका बिश्नोई और सुपुत्र विधायक भव्य विश्नोई तीनों को ही भाजपा की हरियाणा राज्य कार्यकारिणी का सदस्य नियुक्त किया गया। भजन लाल परिवार के यही सदस्य जब कांग्रेस में रहकर या अपनी पार्टी बनाकर राजनीति करें तो वही ‘वंशवादी राजनीति ‘ का प्रतीक और जब उन्हें भाजपा ‘रेवड़ियां’ बांटे तो यह वंशवाद के विरुद्ध जनता के ग़ुस्से का परिणाम ? आख़िर यह कैसा तर्क है ? पूरी भाजपा वंशवाद के ‘कुल दीपकों ‘ से भरी पड़ी है। जिस तरह अमित शाह के सुपुत्र जय शाह को भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया उसी तरह पिछले दिनों केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के पुत्र महा आर्यमन सिंधिया को मध्य प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन सदस्य बनाकर उनकी भविष्य की तरक़्क़ी की बुनियाद डाली गयी। यह अपनी योग्यता के बल पर नहीं बल्कि इसलिये सत्ता द्वारा संरक्षण प्राप्त हैं क्योंकि यह सभी वंशवादी राजनीति के ही ‘कुलदीपक ‘ हैं।
कांग्रेस पार्टी के ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे अनेक नेता जो कांग्रेस में रहकर अपनी ख़ानदानी राजनीति का चिराग़ रौशन किया करते थे वे अपनी उसी ‘वंशवादी ‘ व परिवारवादी ‘योग्यता’ के आधार पर सिर्फ़ इसलिये भाजपा में ऊँचा मुक़ाम हासिल करते हैं क्योंकि प्रधानमंत्री देश को ‘कांग्रेस मुक्त’ करने का आह्वान करते रहते हैं। इसलिये कांग्रेस के किसी भी वंशवादी से उनका कोई बैर नहीं बशर्ते कि वह कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो। फिर चाहे वह मेनका गांधी और उनके पुत्र वरुण गांधी ही क्यों न हों। रहा सवाल प्रधानमंत्री के अनुसार चुनाव परिणामों को वंशवाद के साथ साथ भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनता के ग़ुस्सा दर्शाने का परिणाम बताना तो यह बात भी न्यायसंगत इसलिये प्रतीत नहीं होती क्योंकि गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान ही भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा सुबूत मोरबी झूला पुल हादसे के रूप में सामने आया। जनमत तो भ्रष्टाचार विरोधी तब ज़रूर माना जाता जब मोरबी और उसके आस पास की सीटें भाजपा हार जाती परन्तु आश्चर्यजनक तरीक़े से वह वहां भी सारी सीटें जीत गयी। इसलिये इन चुनाव परिणामों को वंशवाद या परिवारवाद की राजनीति पर अथवा भ्रष्टाचार पर प्रहार कहना क़तई मुनासिब नहीं है। गुजरात चुनाव नरेंद्र मोदी की उसी छवि का परिणाम है जो उन्होंने गुजरात में अर्जित की है। अब मीडिया के माध्यम से वे अपनी उस ‘विशेष छवि’ से छुटकारा पाने के लिये भले ही परिवार और वंशवाद की बात करते रहें परन्तु उनके यह तर्क ही अपने आप में काफ़ी विरोधाभास भी पैदा करते हैं।