चुनाव में क्यों गायब रहा बेरोजगारी का मुद्दा?

मधुरेन्द्र सिन्हा

इस बार के चुनाव में शोर इतना रहा कि असली मुद्दे गायब से हो गये और मुफ्तखोरी तथा बेकार की बातें हावी रहीं। किसी भी पार्टी ने सच्चे दिल से बेरोजगारी के मुद्दे पर बात नहीं की और न ही इसे कोई बड़ा मुद्दा बनाया। चलते-फिरते नेतागण इसकी चर्चा करते रहे। कहीं कोई गंभीर सवाल नहीं और न ही इसके समाधान के बारे में बातें। बस सारी बातें घोषणा पत्र में लिख दी गईं जैसे कि घोषणा पत्र न हो बल्कि रामायण हो। जनता तक इस तरह की कोई बात नहीं पहुंची कि पार्टियां आखिरकार बेरोजगारी के दानव से कैसे लड़ेंगी। बस मुफ्तखोरी की बातें मसलन बेरोजगारी भत्ता देने की बातें की गईं जैसे कि उससे देश में बेरोजागारी खत्म हो जायेगी।

देश में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। पढ़े-लिखे नौजवानों की तादाद भी बढ़ती जा रही है और गांवों में जन संख्या का दबाव भी बढ़ता जा रहा है। कोविड काल में यानी 2020 में 27 लाख लोगों का रोजगार छिन गया था और बाद में यानी स्थिति में सुधार होने के बाद भी उनमें कुछ को ही वापस रोजगार मिल पाया। देश में बेरोजगारी के सही आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन मोटे तौर पर अंदाजा है कि देश में तीन करोड़ से भी ज्यादा लोग बेरोजगार हैं। सरकारी संगठन एनएसओ के मुताबिक 2020-21 में बेरोजागारी की दर 4.1 फीसदी थी। शहरी इलाकों में बेरोजगारी की दर 6.7 फीसदी है जो चार सालों में सबसे ज्यादा है।

इन आंकड़ों का सहारा लेकर विपक्ष मोदी सरकार को घेरने की कोशिश तो करता है लेकिन सवाल है कि किसी के पास समाधान है क्या? सच तो है कि यह मुद्दा इतना गंभीर है कि इसका सरल समाधान नहीं है। नोबल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी ने एक बड़ा हास्यास्पद सा सुझाव दिया था कि सरकार को सभी बेरोजगारों को कम से कम आठ हजार रुपये प्रति माह का भत्ता देना चाहिए। वैसे वह यह नहीं बता पाये कि इससे बेरोजगारी कैसे कम होगी। उन्होंने यह भी जानने की कोशिश की कि आखिर यह भत्ता बंटेगा कैसे? छोटे-छोटे रोजगार करने वाला हर व्यक्ति बेरोजगारी भत्ता लेने लगेगा। अरबों रुपये की बंदरबांट होगी।

बहरहाल असली मुद्दा तो है कि आखिर कैसे बेरोजगारी से निबटा जाये। इसके लिए क्या तरीका अपनाया जा सकता है और कैसे नौजवानों को उनकी मंजिल मिले। इस बारे में विपक्ष भी इसलिए चुप रहा कि उसके शासित राज्यों में लाखों सरकारी पद खाली होने के बावजूद वे भरे नहीं जा रहे हैं। विपक्ष भर भी नहीं सकता है क्योंकि इस पर भारी खर्च आयेगा जो उसके राज्य झेल नहीं पायेंगे। उदाहरण के लिए आम आदमी पार्टी को ही लीजिये। पार्टी ने नये जॉब्स देना तो दूर, 30,000 अस्थायी शिक्षकों तथा अन्य को आज तक पक्का नहीं किया। उन्हें पक्की नौकरी से दूर रखने के लिए केजरीवाल सरकार ने नौकरियों की उम्र घटा दी ताकि उनकी पात्रता खत्म हो जाये और वे जीवन भर अस्थायी ही रहें। राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे कांग्रेस शासित राज्यों में लाखों पद तो खाली हैं लेकिन सरकारें डर रही हैं कि इससे उनका बजय डगमगा जायेगा। देश में छठे और सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के बाद उन राज्यों का खर्च दुगना हो गया है। हजारों करोड़ रुपये वेतन और भत्तों पर जा रहा है। इस पर तुर्रा यह कि फिर से सत्ता में आने के लिए राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत ने पुराना पेंशन लागू करने का खतरनाक कदम उठाया है जिससे राज्य का घाटा बढ़ता चला जाएगा। वोटों के लालच में मुख्य मंत्री यह भूल गये कि उनके राज्य पर चार लाख करोड़ रुपये से भी ज्यादा का कर्ज है। अशोक गहलोत को देखकर छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे राज्य भी आगे आ गये हैं और जनता के टैक्स का पैसा उड़ा रहे हैं। अगर वह दिल से जनता का भला चाहते होते तो खरबों रुपए उन लोगों पर खर्च करने की बजाय नई नौकरियां देते। लेकिन उन्होंने वोटों की खातिर राज्य को आर्थिक बर्बादी के कगार पर ले जाना उचित समझा। कितनी दुखद बात है, इससे मोटा वेचन पाने वाले सरकारी कर्मचारियों का ही भला होगा जिन्हें सभी सुविधाएं मिलती रही हैं।