वन्यजीव संकट: टूटती पारिस्थितिकी की कड़ी!

Wildlife crisis: The link between ecology is breaking!

सोनम लववंशी

हमारे देश में 1 जुलाई से 7 जुलाई तक मनाया जाने वाला ‘वन महोत्सव’ केवल औपचारिकता बन कर न रह जाए, इसके लिए अब गहराई से चिंतन की आवश्यकता है। इस उत्सव का मूल उद्देश्य वनों की सुरक्षा और संरक्षण को लेकर जागरूकता फैलाना है। क्या एक सप्ताह की सक्रियता हमारे घटते वनों की पीड़ा को शांत कर सकती है? भारत एक समय हराभरा देश था। आज ये हरियाली लगातार सिकुड़ती जा रही है। भारतीय वन सर्वेक्षण 2023 की रिपोर्ट के अनुसार देश में कुल वन क्षेत्र लगभग 80.73 मिलियन हेक्टेयर है, जो कि भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का मात्र 24.62 प्रतिशत है। यह आंकड़ा सुनने में बड़ा प्रतीत होता है। जब यह ज्ञात होता है कि इसमें से 12 फीसदी से अधिक क्षेत्र केवल स्क्रब, झाड़ियाँ या क्षतिग्रस्त वन भूमि है, तब स्थिति की गंभीरता स्पष्ट हो जाती है। वैश्विक औसत के मुकाबले भारत वन आच्छादन में अब भी पीछे है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, किसी देश का कम से कम 33 प्रतिशत क्षेत्र वनाच्छादित होना चाहिए। हमारा लक्ष्य अब भी अधूरा है। वन केवल हरियाली नहीं हैं, ये एक जटिल परिस्थकीय तंत्र का हिस्सा हैं। वन पृथ्वी के फेफड़े हैं, जो वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड लेकर हमें प्राणवायु ऑक्सीजन प्रदान करते हैं। वनों के कारण वर्षा होती है, मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है, भूजल स्तर संतुलित रहता है और जैव विविधता संरक्षित होती है। भारत जैसे देश में जहां कृषि मुख्य व्यवसाय है, वहां वनों का विनाश सीधे तौर पर किसान की आजीविका से जुड़ा होता है। वन कटने से मिट्टी का कटाव बढ़ता है। जल स्रोत सूखने लगते हैं। इसका असर खाद्य उत्पादन, पशुपालन और ग्रामीण जीवन की स्थिरता पर गहरा पड़ता है।

आर्थिक विकास के नाम पर सड़कें, रेललाइन, बिजली परियोजनाएं और उद्योग वनों को निगल रहे हैं। पिछले एक दशक में भारत में विकास परियोजनाओं के चलते 14,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक वन क्षेत्र साफ किया गया है। कई बार यह कटाई उस पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट कर देती है, जिसे बनने में सैकड़ों साल लगे थे। उदाहरण के तौर पर मध्य भारत के जंगलों में पाए जाने वाले बाघ, हाथी, गौर, और अन्य कई प्रजातियों का आवास क्षेत्र सीमित होता जा रहा है। जैव विविधता का यह संकट केवल वन्यजीवों का नहीं, मानव जाति का भी है। बढ़ती वन कटाई और अवैध शिकार का एक दर्दनाक प्रमाण देश में बाघों की लगातार हो रही मौतें हैं। वर्ष 2025 के पहले छह महीनों में ही 107 बाघ अपनी जान गंवा चुके हैं, जिनमें 20 मासूम शावक भी शामिल हैं। यह संख्या पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 40 प्रतिशत अधिक है और बीते पाँच वर्षों में सबसे भयावह आँकड़ा है।

वर्ष 2021 से अब तक देश में 666 बाघ मृत पाए गए हैं। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में सबसे अधिक मौतें दर्ज हुई हैं, जो बताता है कि जंगलों का सिकुड़ता दायरा और मानवीय दखल अब उन प्रजातियों को भी निगल रहा है, जिन्हें हमने कभी ‘राष्ट्रीय गौरव’ कहा था। वैसे भी जब एक पारिस्थितिक तंत्र नष्ट होता है, तो उसकी कड़ी में जुड़े सभी अंग प्रभावित होते हैं जिनमें हम भी शामिल हैं। वनों के संरक्षण के लिए सरकारें पौधरोपण अभियान चलाती हैं। प्रश्न यह है कि क्या यह पर्याप्त है? बरसात के मौसम में लगाए गए पौधे जीवित भी रह पाएँ, इसके लिए देखरेख और स्थानीय लोगों की सहभागिता आवश्यक है। आंकड़ों के अनुसार, भारत में लगाए गए लगभग 60 प्रतिशत पौधे पहले दो वर्षों में ही सूख जाते हैं या नष्ट हो जाते हैं। इसका कारण केवल जलवायु नहीं है। प्रशासनिक लापरवाही, देखरेख की कमी और जनमानस में स्वामित्व की भावना का अभाव भी इसकी वजहें हैं।

‘चिपको आंदोलन’ की तरह आज फिर से एक जनआंदोलन की ज़रूरत है। सोशल मीडिया पर पर्यावरण बचाने की बातें करने से आगे बढ़ना होगा। स्थानीय स्तर पर पौधे लगाने, उन्हें संरक्षित करने और जंगलों को बचाने के ठोस प्रयास करने होंगे। वनों का संकट केवल वन विभाग का विषय नहीं है। यह पूरे समाज का प्रश्न है। वनों को बचाने के लिए नीति निर्धारण में आम जनता की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। केवल शहरी क्षेत्रों में पौधरोपण कर लेने से पर्यावरण नहीं बचेगा। ग्रामीण और वनवासी क्षेत्रों में मौजूद प्राकृतिक वनों की रक्षा ज़रूरी है। वनवासी समुदायों का पारंपरिक ज्ञान, जंगल से उनका संबंध, और उनकी जीवनशैली को संरक्षण के केंद्र में लाना होगा। वन महोत्सव का यह सप्ताह महज एक उत्सव नहीं है। यह एक चेतावनी है। समय रहते नहीं चेते तो सांस लेने के लिए हवा भी बाजार में बिकेगी और पानी की एक-एक बूँद के लिए संघर्ष होगा। यह स्वीकार करना होगा कि वन हमारे लिए नहीं, हम वनों के लिए हैं। जब तक यह भाव मन में नहीं आएगा, तब तक कोई भी वन महोत्सव केवल औपचारिक रस्म बनकर रह जाएगा।