क्या बिहार का चुनाव तय करेगा मोदी सरकार का भविष्य?

Will Bihar elections decide the future of Modi government?

अजेश कुमार

बिहार की राजनीति एक बार फिर राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में है। हाल ही में पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने यह कहकर राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी कि केंद्र की मोदी सरकार तीसरा कार्यकाल पूरा कर पाएगी या नहीं, यह बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों पर निर्भर करेगा।

तेजस्वी का यह बयान सिर्फ़ चुनावी बयानबाज़ी नहीं था, यह उस सच्चाई की ओर भी इशारा करता है कि इस बार बिहार में होने वाला विधानसभा चुनाव महज़ एक प्रांतीय परीक्षा नहीं, बल्कि केंद्र की सत्ता संतुलन की परीक्षा भी बन सकता है।

2024 के लोकसभा चुनाव के नतीजों ने भारतीय राजनीति में एक नई जटिलता जोड़ दी। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। पार्टी 240 सीटों पर सिमट गई, जबकि सरकार बनाने के लिए 272 सीटों की आवश्यकता होती है। मोदी सरकार ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के सहयोग से सत्ता में वापसी तो की, लेकिन यह वापसी अब पहले जैसी अजेय नहीं दिखती। एनडीए के सहयोगियों में नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) के 12 और चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के 16 सांसद हैं। यही दोनों दल अब मोदी सरकार की रीढ़ हैं।

इनके अलावा चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के सात और एकनाथ शिंदे की शिवसेना के पाँच सांसद हैं। कुल मिलाकर एनडीए को 293 सीटें मिलीं, यानी बहुमत से केवल 21 ज़्यादा हैं। काग़ज़ पर सरकार सुरक्षित दिखती है, लेकिन राजनीतिक रूप से यह बहुमत उतना स्थिर नहीं जितना दिखता है। अगर, जेडीयू जैसे बड़े घटक दल का समर्थन वापस जाता है, तब भी एनडीए के पास 281 सांसद रहेंगे, यानी तकनीकी रूप से सरकार नहीं गिरेगी, पर सवाल यह है कि क्या सरकार की स्थिरता और प्रधानमंत्री की राजनीतिक साख एक ही बात है?

राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि बिहार का चुनाव नतीजा मोदी सरकार के भविष्य का मनोवैज्ञानिक संकेत होगा। उनके अनुसार, अगर बिहार में एनडीए हारता है, तो भले सरकार न गिरे, लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की अजेयता की छवि को गहरी चोट पहुंचेगी। लोकसभा चुनाव के बाद से हुए राज्य चुनावों, विशेषकर महाराष्ट्र और हरियाणा में बीजेपी ने जिस आक्रामकता के साथ जीत दर्ज की, उसने मोदी के आत्मविश्वास को पुनर्जीवित किया था, लेकिन बिहार में हार की स्थिति उस आत्मविश्वास को हिला सकती है।

बिहार की राजनीति में यह दिलचस्प स्थिति है कि नीतीश कुमार कमज़ोर पड़ चुके हैं, फिर भी बीजेपी के लिए वही मजबूरी बने हुए हैं। पार्टी ने सम्राट चौधरी को राज्य का चेहरा बनाने की कोशिश की, लेकिन वह प्रयास अपेक्षित असर नहीं छोड़ सका। वहीं, प्रशांत किशोर के आरोपों ने सम्राट की राजनीतिक जमीन को और भी डगमगा दिया है। बिहार में नीतीश कुमार का राजनीतिक पतन अब किसी से छिपा नहीं। 74 वर्ष के नीतीश, जो कभी विकास और सुशासन के प्रतीक माने जाते थे, अब राजनीति और स्वास्थ्य दोनों मोर्चों पर थके हुए दिखते हैं। उनकी कमजोर स्थिति ने राज्य की राजनीति में एक निर्वात पैदा कर दिया है, जिसे भरने की तैयारी न बीजेपी ने की, न ही किसी और ने।

विशेषज्ञों के अनुसार, यही राजनीतिक खालीपन प्रशांत किशोर के लिए अवसर बनता जा रहा है। 2020 के चुनावों में नीतीश को चिराग पासवान के हमलों से जितनी क्षति हुई, उसका दीर्घकालिक प्रभाव अब भी दिखाई देता है। एलजेपी ने जहां जेडीयू प्रत्याशियों के विरुद्ध आक्रामक उम्मीदवार उतारे, वहीं बीजेपी ने चुप्पी साधे रखी। नतीजा यह हुआ कि नीतीश कमजोर पड़े और बीजेपी ने यह मान लिया कि इससे उसे भविष्य में लाभ होगा। लेकिन हुआ उल्टा, नीतीश के वोट बैंक का बड़ा हिस्सा न तो बीजेपी में आया, न आरजेडी में गया। बिहार की राजनीति जाति के इर्द-गिर्द घूमती रही है, लेकिन अब समीकरण बदलते दिख रहे हैं।

इस बार विशेषज्ञों का मानना है कि चुनाव में कोई लहर नहीं है। फ्लोटिंग वोट, यानी वे मतदाता जो आख़िरी क्षणों में अपना निर्णय लेते हैं निर्णायक भूमिका में होंगे। कांग्रेस इस बार अति पिछड़ा वर्ग (EBC) को लुभाने में सक्रिय है, जो अब तक नीतीश कुमार का कोर वोट बैंक रहा है।

अगर, कांग्रेस 3–4% वोट भी इस वर्ग से अपनी ओर खींच लेती है, तो उसका प्रदर्शन अप्रत्याशित रूप से बेहतर हो सकता है।

नीतीश कुमार की गिरती लोकप्रियता और लालू यादव की सेहतगत सीमाओं के बीच अब बिहार में कोई सर्वमान्य नेतृत्व नहीं बचा है। लालू परिवार की राजनीतिक पकड़ अब केवल यादव-मुस्लिम समीकरण तक सिमट गई है। वहीं बीजेपी के पास स्थानीय स्तर पर करिश्माई चेहरा नहीं है। नीतीश कुमार को कमजोर करने में बीजेपी की भूमिका किसी से छिपी नहीं। 2020 में जब चिराग पासवान ने जेडीयू के खिलाफ मोर्चा खोला, तब बीजेपी ने उसे रोकने की कोशिश नहीं की, पर अब यही रणनीति उलटी पड़ती दिख रही है। नीतीश के कमजोर पड़ने से बीजेपी का ‘सहयोगी-आश्रित’ चरित्र उजागर हो गया है।

पार्टी ने नित्यानंद राय और फिर सम्राट चौधरी जैसे चेहरों को आगे करने की कोशिश की, लेकिन बिहार की जातीय-सामाजिक संरचना में ये चेहरे निर्णायक अपील नहीं बना पाए। बीजेपी के भीतर यह चिंता साफ़ है कि नीतीश के बिना बिहार में सत्ता तक पहुंचाना मुश्किल होगा, और नीतीश के साथ रहना अब जोखिम भरा है। यही दुविधा इस चुनाव को और जटिल बना रही है। बिहार में 2005 से लेकर अब तक का राजनीतिक इतिहास लगभग तीन ध्रुवों लालू परिवार, नीतीश कुमार और बीजेपी के इर्द-गिर्द घूमता रहा है।

2005 में नीतीश कुमार पहली बार एनडीए के साथ सत्ता में आए। तब एनडीए ने 243 में से 143 सीटें जीतीं और सुशासन बाबू की छवि बनी। 2010 में यह गठबंधन और मज़बूत हुआ, जब एनडीए ने 206 सीटें हासिल कीं और विपक्ष सिमट गया, लेकिन 2015 में नीतीश और लालू की महागठबंधन की प्रयोगात्मक राजनीति ने बीजेपी को करारा झटका दिया। 2020 में बीजेपी और जेडीयू ने फिर साथ मिलकर चुनाव लड़ा, लेकिन इस बार नीतीश को सिर्फ़ 43 सीटें मिलीं जबकि बीजेपी ने 74 सीटें जीतीं।

यानी गठबंधन में वरिष्ठ साथी का संतुलन अब उलट चुका था। यहीं से नीतीश की राजनीतिक गिरावट और बीजेपी के आत्मविश्वास का दौर शुरू हुआ। विशेषज्ञ मानते हैं कि 2025 का बिहार चुनाव नीतीश कुमार के लिए अस्तित्व की लड़ाई है। अगर, इस बार जेडीयू हारती है, तो पार्टी में टूट की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। कई विधायक पहले से ही बीजेपी के करीब बताए जाते हैं।

दूसरी ओर, अगर नीतीश और जेडीयू सम्मानजनक प्रदर्शन कर लेते हैं, तो वह मोदी सरकार के भीतर शक्ति-संतुलन को प्रभावित कर सकता है। बीजेपी के लिए भी यह चुनाव एक टेस्ट केस है, क्या वह नीतीश की छाया से बाहर निकलकर बिहार में खुद को स्थापित कर पाएगी? और अगर नहीं, तो क्या बिहार की हार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय अजेयता की छवि को पहली बड़ी दरार देगी?

बिहार में इस बार कोई करिश्मा नहीं, बल्कि गणित और मनोविज्ञान की लड़ाई है। एनडीए का बहुमत केंद्र में फिलहाल सुरक्षित है, लेकिन बिहार में उसकी हार या जीत दिल्ली के गलियारों में सत्ता की हवा का रुख़ बदल सकती है। विशेषज्ञों का कहना है कि बिहार के नतीजे तय करेंगे कि मोदी सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में कितनी आत्मविश्वास से शासन करती है या फिर सहयोगियों की शर्तों पर। नीतीश कुमार अब पहले जैसे निर्णायक नहीं रहे, पर उनकी राजनीतिक उपयोगिता अभी समाप्त नहीं हुई। तेजस्वी यादव अपनी पीढ़ी का चेहरा बनकर उभरने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि बीजेपी राज्य में नेतृत्वविहीन दिखाई दे रही है। इस परिदृश्य में 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव न सिर्फ़ पटना की सत्ता का फैसला करेगा, बल्कि दिल्ली की राजनीति की दिशा भी तय कर सकता है।