क्या अब विपक्षी एकता कायम रहेगी?

Will opposition unity be maintained now?

सुरेश हिंदुस्तानी

राजनीति में कब क्या हो जाए, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसलिए ही तो राजनीति को अनिश्चितता का खेल कहा जा सकता है। लेकिन ज़ब राजनेता और राजनीतिक दल इस धारणा को तिलांजलि देते दिखाई देते हैं, तो उस अवस्था को अति आत्म विश्वास के भाव में व्यक्त किया जाता है। अति आत्मविश्वास का होना सदैव विनाशकारी और आत्म घातक माना जाता है। ऐसा ही दुखद अध्याय दिल्ली विधानसभा के चुनाव में स्पष्ट रूप से दिखाई दिया। इस चुनाव में आम आदमी पार्टी के नेताओं का व्यवहार निश्चित ही ऐसा होता जा रहा था, जो अति विश्वास को ही परिलक्षित करने वाला ही था। हालांकि किसी किसी भी चुनाव के दो पहलू होते हैं। किसी भी चुनाव क्षेत्र में केवल एक ही व्यक्ति विजय प्राप्त करता है, शेष सभी पराजित ही होते हैं। पराजय निश्चित रूप से गलती सुधारने का अवसर प्रदान करती है। आम आदमी पार्टी इस पराजय को अपनी भूल सुधार के लिए स्वीकार करेगी, यह होना चाहिए, लेकिन आम आदमी पार्टी के नेता ऐसा करने की मानसिकता में दिखाई नहीं देते। इसका कारण यही है कि उनमें राजनीतिक दल की सरकार को चलाने का अनुभव नहीं है। आम आदमी पार्टी के नेताओं का अभी भी यह मानना है कि उनकी पार्टी मात्र दो प्रतिशत के अंतर से हारी है, लेकिन उनको पता होना चाहिए कि एक प्रतिशत का अंतर भी राजनीति का दृश्य बदल सकता है। इसलिए यही कहा जा सकता है कि हार तो हार होती है, उसके तर्क का सहारा लेकर मन को दिलासा दी जा सकती है, जीत नहीं मानी जा सकती।

वैसे विपक्ष को इसकी आदत सी हो गई है कि वह हार को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाता। पिछले लोकसभा के चुनाव परिणाम आने के बाद भी ऐसी ही तस्वीर दिखाने का प्रयास किया गया कि विपक्ष ने मानो सरकार बनाने लायक़ जीत हासिल कर ली हो, लेकिन तस्वीर का असली चेहरा कुछ और ही था।

वर्तमान राजनीतिक उतार चढ़ाव का अध्ययन किया जाए तो यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी राजनीतिक दल सत्ता में आने के लिए एक होने की क़वायद कर चुके हैं, लेकिन यह क़वायद परवान नहीं प्राप्त कर सकी। लोकसभा चुनाव के समय इंडी गठबंधन बनाकर तमाम भाजपा विरोधी दलों ने कई राज्यों में एकता का दिखावा किया। लेकिन कई राज्यों के विधानसभा चुनाव के समय इंडी गठबंधन के दल एक साथ न होकर बिखरे हुए दिखाई दिए। अब आगे चलकर एकता के प्रयास किए तो जाएंगे, लेकिन वे एक साथ हो जाएंगे, इस बात की संभावना बहुत कम दिखाई देती है। सीधे अर्थों में कहा जाए तो विपक्षी एकता को कई बार झटके लग चुके हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की हार विपक्ष की एकता के लिए एक और बड़ा झटका माना जा रहा है। कांग्रेस ने जिस प्रकार से आम आदमी पार्टी को सत्ता से बाहर करने का सुनियोजित षड्यंत्र किया, वह चुनाव परिणाम आने के बाद पूरी तरह से सामने आ गया। ऐसी स्थिति में अब कांग्रेस और आम आदमी पार्टी एक मंच पर आएंगे, इस बात की संभावना बहुत कम ही है। हालांकि कांग्रेस की ओर अपनाई गई यह रणनीति कोई नई बात नहीं है। कई दलों को ऐसा झटका मिल चुका है, स्वयं आम आदमी पार्टी ने हरियाणा में ऐसा ही राजनीतिक खेल खेलकर कांग्रेस को सत्ता में आने से रोक दिया था।

जहां तक विपक्षी एकता की बात है तो इसकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम खुद इंडी गठबंधन या भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों ने किया है। कई राज्यों में एक दूसरे के विरोध में ताल ठोकने वाले यह दिखावे की एकता वाले राजनीतिक दल आगे भी ऐसी ही नीति का अनुसरण करेंगे, इस बात की गुंजाईश ज्यादा दिखाई देती है। क्योंकि गठबंधन में शामिल होने का दावा करने वाले राजनीतिक दल किसी भी दल से पीछे रहने की मानसिकता में दिखाई नहीं देते। कांग्रेस भी इसी मानसिकता से ग्रसित दिखाई देती है। राज्यों तक प्रभाव रखने वाले क्षेत्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस को बेहद कमजोर मानकर व्यवहार कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कई बार कांग्रेस को आईना दिखाते हुए व्यवहार किया है। ऐसी स्थिति में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और ममता बनर्जी की पार्टी एक साथ आकर पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव लड़ेंगे, दूर की बात दिखती है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने भी कांग्रेस को ज़मीन दिखाने के प्रयास में खुद के लिए आत्म घाती रास्ता तैयार किया। यह बात सही है कि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल अपने आपको कांग्रेस से बड़ा मानने लगे थे, इसलिए ही कांग्रेस से किनारा करके चुनाव मैदान में कूद गए, और पहली बार सत्ता से दूर हो गए। वर्तमान राजनीतिक स्थिति में कब क्या हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। इसलिए राजनेताओं को बड़े बोल बोलने से हमेशा बचना चाहिए। लेकिन अरविंद केजरीवाल यहां पर चूक गए। उन्होंने जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया, वह उनके अहंकार का ही परिचायक कहा जा सकता है। अब केजरीवाल को स्वयं समझ जाना चाहिए कि व्यवहार ऐसा होना चाहिए, जो प्रिय लगे।

कहा जाता है कि क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के उभार ने कांग्रेस का बंटाधार करने का ही काम किया है। कहीं कहीं यह भी सत्य है कि कांग्रेस के अप्रिय व्यवहार के चलते ही इन क्षेत्रीय दलों का गठन हुआ। इसलिए यह क्षेत्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस के साथ मिलकर आसानी से चुनाव लड़ेंगे, यह उचित प्रतीत नहीं होता। कई राज्यों में यह भी दिखाई दिया कि जिन क्षेत्रीय दलों के साथ कांग्रेस ने समझौता किया, उन राज्यों में कांग्रेस तो डूबी ही, साथ में साथ आने वाले दलों को भी डुबा दिया। कहीं कहीं कांग्रेस को डूबता हुआ जहाज तक कहा गया। आज कांग्रेस की मजबूरी यह है कि उसे तिनके की जरूरत है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की स्थिति में जो मामूली सुधार हुआ, उसका कारण क्षेत्रीय दलों का सहयोग ही था। उत्तरप्रदेश में अगर समाज़वादी पार्टी का साथ नहीं होता तो कांग्रेस आज की स्थिति में भी नहीं होती।

दिल्ली विधानसभा चुनाव का परिणाम आम आदमी पार्टी के विजयी रथ को रोकने वाला ही साबित हुआ। यह कहीं न कहीं विपक्षी एकता के सपने को चूर चूर करने वाला भी है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या अब विपक्षी एकता कायम रह पाएगी।