सुरेश हिन्दुस्थानी
वर्तमान में कांग्रेस अपनी डूबती नाव को किनारे पर लाने का गंभीरता से प्रयास करती हुई दिखाई देने लगी है। ऐसा लगने लगा है कि अब कांग्रेस के नेताओं को यह भली भांति आभास होने लगा है कि केवल सरकार की नीतियों का विरोध मात्र करने से ही उसको राजनीतिक सफलता नहीं मिलेगी, इसके लिए कुछ और भी प्रयास करने होंगे। कांग्रेस की वर्तमान स्थिति के बारे में अध्ययन किया जाए तो यही परिलक्षित होता दिखाई देता है कि पार्टी में कोई चमत्कारिक नेता नहीं बचा है। जिस गांधी परिवार से चमत्कार की आशा की जा रही थी, वह प्रयोग भी अब अपने आप पर असफलता के टैग को स्थापित कर चुका है। इसलिए कांग्रेस नए प्रकार से सोचने के लिए विवश है। कांग्रेस की डूबती नाव को सहारा देने के लिए चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर पर विश्वास करने के अलावा कांग्रेस के पास कोई विकल्प नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि क्या प्रशांत किशोर कांग्रेस के डूबते जहाज को सुरक्षा दे पाएंगे। क्योंकि प्रशांत किशोर केवल पैसे के लिए ही काम करते हैं, उन्हें किसी के नीति और सिद्धांत से कोई सरोकार नहीं है। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है कि प्रशांत किशोर ने अब कई ऐसे राजनीतिक दलों के साथ कार्य किया है, जो विचारधारा से एकदम विपरीत हैं। इतना ही नहीं कांग्रेस को उबारना प्रशांत किशोर के लिए इसलिए भी टेड़ी खीर है, क्योंकि जब कांग्रेस नेतृत्व ही अपने नेताओं के निशाने पर है, तब प्रशांत किशोर किस आशा के साथ कांग्रेस को उबारने का संकल्प लेने के लिए उतावले हैं।
कांग्रेस को अधोगति से बचाने के लिए प्रशांत किशोर कितना कुछ कर पाएंगे, यह सवाल इसलिए भी उठ रहा है, क्योंकि कांग्रेस के नेता प्रशांत किशोर की सुनेंगे या फिर सोनिया गांधी, राहुल गांधी या फिर प्रियंका वाड्रा की मानेंगे। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि यह परिवार कांग्रेस को अपनी बपौती मानकर व्यवहार करता रहा है। और कांग्रेस के कई नेता इन्ही को अपना सब कुछ मानते हैं। हालांकि जो नेता कांग्रेस नेतृत्व पर सवाल उठा रहे हैं, उनको मिशन 2024 के लिए कांग्रेस को अपने ही वरिष्ठ नेतृत्व पर भरोसा नहीं है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का एक समूह अपने नेतृत्व के विरोध में खुले मैदान में आ चुका है। भले ही इन नेताओं के साथ प्रशांत किशोर पटरी बैठाने का प्रयास करने की कवायद कर रहे हैं, लेकिन यह प्रशांत किशोर को अपना नेता मानेंगे, इस बात की गुंजाइश कम ही है।
आज कांग्रेस की बड़ी समस्या यह है कि उसके बड़े-बड़े राजनीतिक शूरमा कांग्रेस से किनारा कर चुके हैं और कुछ किनारा करने की सोच रहे हैं। जो कांग्रेसी दूसरे दलों की विचारधारा को आत्मसात कर चुके हैं, वे निश्चित ही कांग्रेस की कमजोरी का कारण ही बनेंगे। पंजाब विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस की अप्रत्याशित विजय के कारण उसका राज्य नेतृत्व ही रहा। सरकार और संगठन के मुखिया एक दूसरे के खिलाफ ही अपनी ताकत आजमाते रहे। इसी प्रकार की स्थिति राजस्थान में भी कई बार बनी है और आगे भी बनी रह सकती है। अशोक गहलौत और सचिन पायलट के बीच राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई अब किसी से छिपी नहीं है। अभी हाल ही में जिस प्रकार से सचिन पायलट की सोनिया गांधी से मुलाकात हुई है, उसे अशोक गहलौत पचा नहीं पा रहे। अशोक गहलौत ने अप्रत्यक्ष रूप से त्याग पत्र देने की धमकी दे दी। इसलिए यही कहा जा सकता है कि कांग्रेस के अंदर जो लावा सुलग रहा है, वह कभी भी फूट सकता है। इसी प्रकार के हालात गुजरात में भी बनते दिखाई देने लगे हैं।
इसी प्रकार उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की स्थिति पूरी तरह से भंवर में समा गई है। कहा जाता है कि दिल्ली का रास्ता उत्तरप्रदेश से होकर जाता है। हालांकि पिछले दो दशकों से यह परिभाषा बदलती हुई दिखाई दी। लेकिन लोकसभा की सीटों के हिसाब से यह परिभाषा आज भी सटीक बैठती है। यानी कांग्रेस को अपनी हालत सुधारनी है तो उसे उत्तर प्रदेश पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में पूर्व में भी कई प्रयोग किए। लेकिन वे सभी प्रयोग फैल होते दिखाई दिए। विरासती पृष्ठभूमि को आधार बनाकर एक चमत्कारिक नेता के रूप में प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश के राजनीतिक मैदान में उतारा, लेकिन वे भी लौट के बुद्धू घर को आए वाली कहावत को चरितार्थ करती हुई दिखाई दीं। आज कांग्रेस की हालत यह है कि उसे कोई भी दो कौड़ी के भाव नहीं पूछ रहा। अभी हाल ही में राहुल गांधी ने मायावती से गठबंधन के बारे में वार्ता का जिक्र किया, जिसे मायावती ने सिरे से खारिज कर दिया। जिसके बाद कहा जा रहा है कि राहुल गांधी ने इस मामले पर भी झूंठ ही बोला। ऐसी ही राजनीति के कारण कांग्रेस पार्टी अविश्सनीय होती जा रही है।
इसलिए अब इस वैतरणी को पार करने के लिए चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर का सहारा लिया जा रहा है। वैसे तो पीके के नाम से मशहूर प्रशांत किशोर पेड सलाहकार माने जाते हैं, लेकिन कांग्रेस उन्हें अपना राष्ट्रीय महासचिव बनाकर सिर आंखों पर बैठाने को आतुर दिखाई दे रही है। अब प्रशांत किशोर कांग्रेस में शामिल होंगे या नहीं, इस पर संशय बरकरार है। कांग्रेस आज इतनी कमजोर हो चुकी कि राज्यों में वैशाखियों पर टिकी दिखती है या क्षेत्रीय क्षत्रपों के कंधे के भरोसे जीत हासिल कर रही है। कुछ राज्यों में पार्टी अंतर्कलह से जूझ रही है। संकट के इस भीषण दौर में कांग्रेस को सत्ता की ललक है जो उससे कोसों दूर है। कांग्रेस के बारे में यही कहा जा रहा है कि वह सत्ता पाने के लिए तड़प रही है, क्योंकि लम्बे समय से कांग्रेस ने जिस प्रकार से सत्ता का सुख भोगा है, वह उससे बाहर नहीं आ पा रही है।
कांग्रेस जानती है कि आगे की राह आसान नहीं है, उसे भाजपा के रूप में बहुत बड़ी चुनौती मिल रही है। इस चुनौती को आज की स्थिति में कांग्रेस स्वीकार कर पाने की स्थिति में नहीं है। क्योंकि भाजपा अपने पत्ते बड़ी सावधानी से खोलती है। अब चूंकि कांग्रेस सत्ता पाने को छटपटा रही है, ऐसे में अब कांग्रेस उन्हें बड़ी भूमिका में अपने साथ जोडऩा चाहती है, लेकिन सवाल यही है कि क्या वो कांग्रेस को सत्ता में ला पाएंगे? क्योंकि साल 2017 में उन्होंने उप्र में कांग्रेस का पूरा काम संभाला था। अखिलेश यादव के साथ मिलकर कांग्रेस को चुनाव लड़वाया था, लेकिन नतीजे आए तो दोनों ही पार्टियां चारों खाने चित हो चुकी थीं। ऐसे में पीके की एंट्री से कांग्रेस का भविष्य कितना सुधर पाएगा, ये देखने वाली बात होगी।