क्या अब पूरे देश में शुरू होगी चुनाव पूर्व ‘रेवड़ी वितरण’ नीति?

Will the pre-election 'rewadi distribution' policy now be implemented across the country?

निर्मल रानी

बिहार चुनाव परिणाम आ चुके हैं। परिणामों को लेकर तरह तरह से समीक्षाएँ की जा रही हैं। विपक्ष तो इस चुनाव को जनादेश के बजाये ‘ज्ञानादेश ‘ कहकर चुनाव आयोग की निष्पक्षता व विश्वसनीयता पर ही सीधा सवाल खड़ा कर रहा है। कुछ समीक्षकों की नज़रों में धर्म निरपेक्ष मतों के विभाजन के कारण ऐसे परिणाम आये तो कुछ का आंकलन है कि महिला मतों ने चुनाव में निर्णायक भूमिका अदा की। मगर सच तो यह है कि जिसतरह के चुनाव परिणाम आये हैं उसका अंदाज़ा स्वयं भारतीय जनता पार्टी को भी नहीं था क्योंकि गृह मंत्री अमितशाह ने भी ‘अब की बार 160’ की विजय सीमा निर्धारित की थी जबकि 202 सीटों पर ‘राजग’ ने फ़तेह हासिल की। महिलाओं द्वारा राजग के पक्ष में किये गए बंपर मतदान को लेकर यही कहा जा रहा है कि जिस समय चुनाव की घोषणा के दिन आचार संहिता का सरेआम उल्लंघन करते हुये बिहार में लगभग 1 करोड़ 51 लाख महिलाओं के खाते में 10000 रुपये डाले गए थे उसी समय से यह अंदाज़ा लगाया जाने लगा था कि चुनाव का रुख़ नितीश सरकार के पक्ष में जा सकता है। कहा यह भी जा रहा है कि विश्व बैंक से किसी अन्य परियोजना के लिए प्राप्त धनराशि को केंद्र सरकार ने बिहार विधानसभा चुनाव के लिए ‘डायवर्ट’ किया और उन्हीं पैसों को राज्य की महिला मतदाताओं में बांट दिया गया। यही पैसे लगभग डेढ़ करोड़ महिला मतदाताओं के खाते में 10,000 रुपये प्रति खाते की दर से हस्तानांतरित कर दिये गये। गोया लगभग 40 हज़ार करोड़ रुपयों की भारी अनुमानित रक़म रेवड़ियों की तरह बाँट दी गयी। चुनाव पूर्व ‘रेवड़ी आवंटन’ का यही फ़ार्मूला जिसे सीधे शब्दों में पैसे देकर वोट ख़रीदना भी कहा जा सकता है, पूर्व में मध्य प्रदेश,हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली में विभिन्न योजनाओं के नाम पर और अब बिहार में नक़द वितरण के रूप में सफलता पूर्वक आज़माया जा चुका है। चुनाव घोषित होने के बावजूद आचार संहिता का सरेआम उल्लंघन करते हुये सरकारी ख़ज़ाने से लोगों के खातों में बड़ी राशि डालने का सीधा अर्थ है वोट ख़रीदना। और चिंताजनक यह है कि यह अनैतिक व ग़ैर क़ानूनी काम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी,भाजपा व उनके सहयोगी दलों द्वारा खुले तौर पर किया गया।

सवाल यह है की पूर्व में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ‘रेवड़ी बांटने’ के इस चलन को लेकर दिये गये ‘प्रवचन ‘ क्या केवल विपक्ष के लिये ही थे स्वयं उनकी भाजपा या राजग दलों के लिये नहीं ? याद कीजिये जब जुलाई 2022 को लखनऊ में एक कार्यक्रम में मोदी जी फ़रमाते हैं कि “ये रेवड़ी बाँटने की संस्कृति देश के लिए बहुत ख़तरनाक है। जो रेवड़ी बाँट रहे हैं, वो आपके बच्चों का हक़ मार रहे हैं। यह रेवड़ी संस्कृति देश के विकास को खा जाएगी। फ़्री की रेवड़ी बांटकर वोट लेने की होड़ देश को दीवालिया बना देगी। यह आने वाली पीढ़ियों के साथ बहुत बड़ा अन्याय है।” प्रधानमंत्री तो मुफ़्त के रेवड़ी कल्चर से इतना आहत थे कि 15 अगस्त 2022 को लाल क़िले से अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में भी उन्हें इसका ज़िक्र करते हुये कहना पड़ा था कि हमें “रेवड़ी कल्चर से बचना होगा जो देश को तबाह कर देगा। उस समय उन्होंने राज्य सरकारों विशेषकर विपक्ष शासित राज्यों पर निशाना साधते हुए कहा था कि मुफ़्त बिजली, मुफ़्त पानी,मुफ़्त बस यात्रा आदि जैसी योजनाएँ चुनावी लाभ के लिए लाई जा रही हैं, जो राज्यों की आर्थिक स्थिति को कमज़ोर कर रही हैं।” उनकी यह टिप्पणी ख़ासतौर पर उस समय की दिल्ली, पंजाब, पश्चिम बंगाल आदि की ग़ैर बीजेपी सरकारों की मुफ़्त योजनाओं के संदर्भ में की गई थी।

परन्तु उपरोक्त योजनाएं जिसे प्रधानमंत्री ‘रेवड़ी ‘ बता रहे थे इसमें बिजली पानी बस यात्रा जैसी सुविधाएँ तो थीं परन्तु बिहार की तरह 10 हज़ार रूपये बिना किसी योजना के बैंक खतों में डालना, जिसे सीधे तौर पर पैसे देकर वोट ख़रीदने के सिवा और क्या कहा जा सकता है ऐसी कोई योजना नहीं थी ? फिर मोदी जी का रेवड़ी संस्कृति को लेकर लाल क़िले तक से रुन्दन करना आख़िर बिहार में कहाँ चला गया ? क्या केवल विपक्षी दलों के लिये ही प्रधानमंत्री की ये नसीहत थी ? और इन सबसे बड़ा सवाल अब भविष्य के चुनावों के लिए खड़ा हो गया है कि क्या अब भविष्य के चुनाव का आधार भी चुनाव पूर्व नक़द वितरण ही हुआ करेगा ? क्या बिजली, सड़क, पानी, शिक्षा, स्वास्थ, क़ानून व्यवस्था व भ्रष्टाचार जैसे अनेक जनहितकारी मुद्दे अब चुनावी मुद्दे नहीं हुआ करेंगे ? नैतिक रूप से तो क़र्ज़ मुआफ़ी मुफ़्त बिजली, मुफ़्त पानी, मुफ़्त बस यात्रा जैसी सुविधाएँ देना भी मुनासिब नहीं परन्तु आश्चर्य तो यह है कि प्रधानमंत्री को इस तरह की योजनायें रेवड़ी नज़र आ रही थीं तो बिहार में चुनाव के दौरान ही बिना किसी योजना के नक़द पैसे बांटकर सीधे तौर पर वोट ख़रीदना कहाँ की नैतिकता है ? बिहार में सरकार तो ज़रूर बन गयी है परन्तु सरकार बनाने के लिये मुफ़्त बांटे गये लगभग 40 हज़ार करोड़ रुपयों के बाद राज्य की आर्थिक स्थिति पर क्या फ़र्क़ पड़ेगा, क्या रेवड़ी बांटने वालों द्वारा इसका भी आंकलन किया गया है ? और चुनाव आयोग द्वारा मूक दर्शक बनकर इस अनैतिक व ग़ैर क़ानूनी काम को देखते रहना क्या सीधे तौर पर यह सन्देश नहीं देता कि यह सारा खेल सत्ता व चुनाव आयोग की सामूहिक मर्ज़ी से रचा गया ?

बिहार के चुनावों में हुई इसतरह की मुफ़्त रेवड़ी बाँट ने भविष्य के चुनावों के लिये एक ऐसा ख़तरा पैदा कर दिया है जो न केवल देश की अर्थव्यवस्था को संकट में डाल सकता है बल्कि विश्व के उस सबसे बड़े लोकतंत्र के लिये भी ख़तरा व शर्मिन्दिगी का कारक है जिस पर प्रत्येक भारतवासी नाज़ करता है। यही भारतीय चुनाव हैं जिसकी व्यापक प्रक्रिया को देखने के लिये प्रायः दुनिया के नेता व अधिकारी आते रहते हैं। क्या अब हम दुनिया को यही बातयेंगे कि भारत में चुनाव नीतिगत आधार पर नहीं होते बल्कि यहाँ वोट ख़रीदे जाते हैं ? और क्या अब कुर्सी से चिपके रहने के सत्ता की चुनाव पूर्व ‘ नक़द रेवड़ी वितरण’ नीति बिहार की ही तरह पूरे देश में शुरू होगी?