क्या वापस गुजेंगे गगन में ‘ हिंदी चीनी भाई भाई ‘ के नारे?

Will the slogans of "Hindi-Chinese brothers" echo again in the sky?

अशोक भाटिया

क्या 1954 का वह नारा फिर बुलंद होगा? क्या हिंदी-चीनी वाकई भाई-भाई साबित होंगे? दरअसल जब यह नारा गूंजा था, तो चीन ने भारत की पीठ में छुरा भी घोंपा था। हमें 1962 का युद्ध झेलना पड़ा, पराजित हुए और हजारों वर्ग किलोमीटर भूमि पर चीन ने कब्जा भी कर लिया। वह कब्जा आज भी यथावत है। वह कालखंड बहुत पीछे गुजर चुका है। आज न तो 1962 वाला दरिद्र-सा भारत है और न ही भारत की तुलना में चीन इतना ताकतवर है कि जहां चाहे, कब्जा कर ले। पूर्वी लद्दाख का ताजा उदाहरण हमारे सामने है। करीब 4-5 साल के टकराव और तनाव के बाद, अंतत:, भारत और चीन में आपसी समझौता हुआ है। चीन आक्रांता था। हमें अपने देश की सीमाओं और जमीन की रक्षा करनी थी, लिहाजा चीन को झुकना पड़ा है और भारत के पक्ष को मानने को बाध्य होना पड़ा है। सेना और राजनयिक स्तर की 31 उच्च स्तरीय बैठकों के बाद यह सर्वसम्मति बनी है कि अप्रैल, 2020 की स्थितियों को बहाल करना होगा। दोनों सेनाएं उस बिंदु तक पीछे हटेंगी। अभी तक हालात ऐसे थे कि भारत-चीन के करीब 50,000 सैनिक (प्रति पक्ष) तैनात थे। वे हथियारबंद थे। तोपखाने के सामने तोपखाना तैनात था। टैंक के मुकाबले टैंक था। यह बराबर की तैनाती बेहद तनावपूर्ण थी। जून, 2020 में गलवान घाटी में चीन ने एकतरफा हमला किया, जिसमें भारत के 20 जांबाज सैनिक ‘शहीद’ हुए, लेकिन भारत ने जल्द ही पलटवार किया और चीन के 40-45 सैनिक ढेर कर दिए। अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों और सूचना-तंत्र ने इस पलटवार के खुलासे किए। रूस ने भी दुनिया के सामने स्पष्ट किया कि चीन के सैनिक मारे गए हैं। यह दीगर है कि चीन ने आज तक इसे स्वीकार नहीं किया। लद्दाख के टकराव और तनावग्रस्त माहौल में गलवान ही निर्णायक बिंदु साबित हुआ। अंतत: चीन ने महसूस किया कि वह इस बार के युद्ध में भारत से जीत नहीं सकेगा। भारत अब सैन्य स्तर पर ताकतवर देश बन चुका है। चीन के सैनिकों ने डोकलाम पठार के टकराव में भी भारत की ताकत का अनुभव कर लिया था।

लद्दाख क्षेत्र में कुछ और टकराव भी हुए, जिनमें हमारे सैनिकों ने चीनियों को जमकर पीटा और उसके कब्जाई मंसूबों को नाकाम कर दिया। कमाल की बात यह है कि एक ओर युद्ध-सी स्थितियां थीं, लेकिन दूसरी तरफ चीन भारत का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार बना रहा। हालांकि वह कारोबार निरंतर घाटे का रहा है। आयात-निर्यात में व्यापक असमानताएं हैं। बहरहाल तमिलनाडु के महाबलीपुरम में 2019 में प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच आखिरी द्विपक्षीय बातचीत हुई थी। चूंकि अब महत्वपूर्ण समझौता हुआ है और उसकी प्रक्रिया चरणबद्ध रूप से शुरू होगी, लिहाजा रूस में ‘ब्रिक्स शिखर सम्मेलन’ के दौरान भारत और चीन के शीर्ष नेताओं के दरमियान एक बार फिर द्विपक्षीय संवाद हुआ है, तो फिलहाल मानना चाहिए कि पांच साल तक जाम रही बर्फ अब पिघलने लगी है। यह वैश्विक स्तर पर युद्ध और घोर तनाव का दौर है। रूस, भारत, चीन तीनों देश ही ‘ब्रिक्स’ के संस्थापक हैं। यदि वे आपस में ही टकराव करते रहेंगे, तो पश्चिम का मुकाबला नहीं कर पाएंगे और ‘ब्रिक्स’ एक वैश्विक स्तर का मंच नहीं बन पाएगा। मौजूदा टकरावपूर्ण क्षेत्र में पेंगोंग लेक उत्तर और दक्षिण, गलवान, हॉट स्प्रिंग, गोगरा आदि से भारत-चीन की सेनाएं पहले ही हट चुकी हैं। डेपसांग और डेमचौक में अभी स्थिति यथावत है। सेनाएं किस बिंदु तक गश्त कर पाएंगी, यह अभी स्पष्ट होना है। अभी सर्दी का मौसम उस क्षेत्र में शुरू हो चुका है, लिहाजा सेनाओं की गश्त सीमित रह सकती है, लेकिन गर्मियों के दौरान स्पष्ट होगा कि समझौता जमीन पर कितना कारगर होता है? अभी हिंदी-चीनी, भाई-भाई के सपने नहीं पालने चाहिए। बेशक भरोसा करना चाहिए और विश्वास बहाली की सार्थक कोशिशें करनी चाहिए, लेकिन चीन की फितरत को दुनिया देख चुकी है, लिहाजा अभी से भरोसा करना गंभीर गलती होगी, यह देश के रक्षा विशेषज्ञों का मानना है। चीन के अंदरूनी हालात भी अच्छे नहीं हैं। उसकी अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है। बेरोजगारी के कारण असंतोष है। विकल्प के तौर पर भारत उभर रहा है और विश्व की बड़ी कंपनियां यहां अपने उत्पादन-केंद्र स्थापित कर रही हैं। चीन इस चुनौती को समझता है। बहरहाल समझौते का स्वागत है। देखते हैं कि चीन की फितरत में कोई बदलाव आया है अथवा नहीं।

दरअसल अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ नीति से उपजे हालात के बीच चीनी विदेशमंत्री वांग यी का भारत दौरा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा की चर्चा ने एक बार फिर दोनों देशों के रिश्तों को चर्चा में ला दिया है। ऐसा लगता है कि ट्रंप के दबाव का मुक़ाबला करने के लिए भारत का चीन के साथ संबंध सुधारने के अलावा कोई चारा नहीं है। मोदी सरकार की चीन नीति में साफ़-साफ़ यूटर्न नज़र आ रहा है। ऐसे में सवाल ये है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और भारतीय जनता पार्टी (BJP) के उस कथित राष्ट्रवादी प्रचार का क्या होगा जो चीन को दुश्मन बताते हुए दीवाली पर चीनी झालरों के बहिष्कार की वकालत करता है? सवाल यह भी है कि क्या भारत की विदेश नीति पेंडुलम बन गई है, जो कभी अमेरिका की ओर झुकती है, तो कभी चीन की ओर?

7 मई 2025 को पहलगाम में आतंकी हमले के बाद भारतीय सेना ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ शुरू किया, जो 10 मई तक चला। इस अभियान में भारत ने पाकिस्तान के कई आतंकी ठिकानों को नष्ट किया। लेकिन चर्चा है कि चीन की सैन्य तकनीकी मदद के कारण पाकिस्तान इस मुकाबले में टिका रहा। भारत के कुछ लड़ाकू विमान भी गिराए गए, जिसे सेना ने स्वीकार किया, हालांकि सटीक संख्या का खुलासा नहीं हुआ। इस दौरान न केवल पाकिस्तान, बल्कि चीन भी भारत के निशाने पर था।

27 मई को गांधीनगर में एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने बिना नाम लिए चीन पर तंज कसा था । उन्होंने कहा, “अब हम कोई विदेशी चीज का उपयोग नहीं करेंगे। हमें गांव-गांव व्यापारियों को शपथ दिलवानी होगी कि विदेशी सामानों से कितना भी मुनाफा क्यों न हो, कोई भी विदेशी चीज नहीं बेचेंगे। लेकिन दुर्भाग्य देखिए, गणेश जी भी विदेश से आ जाते हैं। गणेश जी की आंख भी नहीं खुल रही है।” यह ‘छोटी आंख’ वाला बयान, जिसे नस्लीय टिप्पणी के रूप में देखा गया, स्पष्ट रूप से चीन पर निशाना था। यह स्वदेशी अपील ‘मेक इन इंडिया’ को बढ़ावा देने के लिए थी जिसके लिए चीनी सामानों का बहिष्कार ज़रूरी बताया जा रहा था। लेकिन ढाई महीने बाद ही स्थिति बदलती दिख रही है।

मोदी ने X पर पोस्ट किया, था कि मैं तियानजिन में SCO शिखर सम्मेलन में हमारी अगली मुलाकात का इंतजार कर रहा हूं। भारत और चीन के बीच स्थिर, भरोसेमंद और रचनात्मक संबंध क्षेत्रीय ही नहीं, बल्कि वैश्विक शांति और समृद्धि में बड़ा योगदान देंगे।SCO की स्थापना 2001 में चीन, रूस, कजाकिस्तान, किर्गिजस्तान, उज्बेकिस्तान, और ताजिकिस्तान ने की थी। भारत और पाकिस्तान 2017 में इसमें शामिल हुए। अब ईरान भी इसका हिस्सा है। यह ब्रिक्स के बाद दूसरा बड़ा मंच है, जहां भारत, चीन, और रूस सहयोग करते हैं। रूस ने वांग यी के दौरे और भारत-चीन रिश्तों में सकारात्मक बदलाव का स्वागत किया है। रूसी राजनयिक रोमन बाबुश्किन ने कहा कि ब्रिक्स और SCO में मजबूत सहयोग वैश्विक चुनौतियों का जवाब दे सकता है।

मई 2025 में ऑपरेशन सिंदूर के दौरान चीन की पाकिस्तान को सैन्य मदद ने भारत को नाराज किया था। देश के आला सैन्य अफ़सरों ने खुलकर कहा था कि चीन ने पाकिस्तान की हर तरह से मदद की। पाकिस्तान को लेकर चीन के रुख़ में अभी भी कोई तब्दीली नहीं आयी है। वांग यी के दौरे के बीच चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने भारत और पाकिस्तान को “महत्वपूर्ण पड़ोसी” बताते हुए चीन-पाकिस्तान रिश्तों को “हर मौसम में खरा उतरने वाला” करार दिया है। यह बयान दर्शाता है कि चीन भारत के साथ रिश्ते सुधारते हुए भी पाकिस्तान के साथ अपनी रणनीतिक साझेदारी बनाए रखना चाहता है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC), जिसमें 60 अरब डॉलर से अधिक का निवेश है, भारत के लिए चिंता का विषय है।

मोदी का SCO सम्मेलन में शामिल होना और चीन के साथ कूटनीतिक जुड़ाव एक बड़ी मजबूरी की ओर इशारा कर रहा है। वैसे भारत ने हमेशा तनाव के बाद भी चीन के साथ बातचीत बनाए रखी, जैसे 2018 में वुहान और 2019 में महाबलीपुरम की अनौपचारिक मुलाकातें चीनी राष्ट्रपति के साथ प्रधानमंत्री मोदी की मुलाक़ातें। लेकिन यह सवाल तो है ही कि क्या विश्वास की कमी और पाकिस्तान के साथ चीन की गहरी दोस्ती के बावजूद रिश्तों में गर्मी लाना संभव है?

ट्रंप ने भारत पर 50% टैरिफ लगाया है जिसमें 25% दंडात्मक टैरिफ है, क्योंकि भारत रूस से तेल खरीद रहा है। ट्रंप का दावा है कि भारत रूसी तेल खरीदकर रूस की अर्थव्यवस्था को समर्थन देता है, जिससे यूक्रेन युद्ध लंबा खिंच रहा है। हालाँकि रूस से चीन भी तेल ख़रीद रहा है। लेकिन ट्रंप के आर्थिक सलाहकार पीटर नवारो ने इनेंशियल टाइम्स में लिखा कि चीन रूस से सस्ता तेल लेकर अपनी जनता को लाभ देता है, जबकि भारत के उद्योगपति इसे विदेशों में बेचकर मुनाफाखोरी करते हैं। भारत ने 2024 में रूसी तेल से 25 अरब डॉलर की बचत की, और 2022-24 में 132 अरब डॉलर का तेल आयात किया। लेकिन रिलायंस जैसी कंपनियों ने इसे विदेशी बाजारों में बेचा, और इंडियन ऑयल ने उपभोक्ताओं को कोई राहत नहीं दी।

ट्रंप लगातार जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं वह भारत के लिए अपमानजनक है। 1971 में बांग्लादेश युद्ध के दौरान राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने इंदिरा गांधी के साथ असम्मानजनक व्यवहार किया था, जिसके जवाब में इंदिरा गाँधी मीटिंग छोड़कर चली आयी थीं और अमेरिकी सातवें बेड़े की परवाह किए बिना उन्होंने सैन्य हस्तक्षेप किया जिससे बांग्लादेश का जन्म संभव हुआ। लेकिन ट्रंप को “माई फ्रेंड” कहने वाले मोदी उनका नाम तक लेने से बच रहे हैं। ऑपरेशन सिंदूर पर संसद में हुई बहस के दौरान नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी ने चुनौती दी थी कि पीएम मोदी ट्रंप के युद्ध रोकने के दावे को झुठलायें लेकिन मोदी ने चुप्पी साध ली। ट्रंप की उग्र भाषा और टैरिफ ने भारत को चीन और रूस के करीब धकेल दिया है।

आखिरकार वो घडी आ गई जिसका सबको बेसब्री से इंतजार था . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच रविवार को द्विपक्षीय बैठक हुई है। प्रधानमंत्री मोदी ने चीन यात्रा के निमंत्रण और द्विपक्षीय बैठक के लिए चीनी राष्ट्रपति का धन्यवाद किया। इस बीच, उन्होंने कहा कि हम आपसी विश्वास, सम्मान और संवेदनशीलता के आधार पर अपने संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ द्विपक्षीय बैठक के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘गर्मजोशी भरे स्वागत के लिए मैं आपका हृदय से आभार व्यक्त करता हूं। पिछले साल कजान में हमारी बहुत ही सार्थक चर्चा हुई। हमारे संबंधों को सकारात्मक दिशा मिली। सीमा पर सैनिकों की वापसी के बाद शांति और स्थिरता का माहौल बना हुआ है।’प्रधानमंत्री मोदी ने आगे कहा, ‘आपसी विश्वास, सम्मान और संवेदनशीलता के आधार पर हम अपने संबंधों को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।’ इस दौरान, प्रधानमंत्री मोदी ने एससीओ की सफल अध्यक्षता के लिए चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग को बधाई दी। उन्होंने अपने बयान के आखिरी में फिर से चीन यात्रा के निमंत्रण और बैठक के लिए धन्यवाद दिया।पीएम नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच द्विपक्षीय बैठक चीन के तियानजिन शहर में हुई, जहां रविवार से दो दिवसीय शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन शुरू होगा। शिखर सम्मेलन में पीएम मोदी और शी जिनपिंग के अलावा रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भी शामिल हो सकते हैं। अमेरिका की टैरिफ नीतियों के बीच तीन देशों के नेताओं की मुलाकात काफी अहम मानी जा रही है।