
आलोक भदौरिया
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के फैसलों से पूरी दुनिया में हड़कंप मचा हुआ है। दो अप्रैल का दिन लोग कभी भुला नहीं पाएंगे। अमेरिका को फिर से अगुआ (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) बनाने के फेर में ट्रंप ने दुनिया में टैरिफ वॉर शुरू कर दी। लेकिन, चंद दिनों बाद ही इसपर नब्बे दिनों के लिए रोक लगा दी। सवाल उठता है कि क्या अमेरिकी राष्ट्रपति को सद्बुद्धि आ गई ? क्या अब दुनिया में पैदा हो रहे आर्थिक युद्ध के हालात बदल जाएंगे?
पहली दफा है कि डोनाल्ड ट्रंप दुविधा में रहने वाले सात राज्यों से भी भरपूर वोट लेकर जीते। विस्कोंसिन, नॉर्थ कैरोलिना, मिसीगन, एरिजोना, नेवाडा और पेनिसिलवेनिया और जॉर्जिया में रिपब्लिकन उम्मीदवार इतने भारी समर्थन से पहले कभी नहीं जीते। इन सातों को सि्वंग स्टेट कहा जाता है। माना जाता है कि किसी उम्मीदवार को राषट्रपति की कुर्सी तक पहुंचाने में इनका खासा योगदान होता है। डेमोक्रेट उम्मीदवार का लड़ना और चयन में भी अत्यधिक देरी हुई। पहले तत्कालीन राषट्रपति जो बाईडेन और फिर उम्मीदवारी वापस लेना डेमोक्रेट को भारी पड़ गया। यही वजह है कि कमला हैरिस को अपना प्रचार शुरू करने में देरी का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा था।
तो क्या इस घटनाक्रम के चलते ही ट्रंप के हौसले बढ़े? फिर सि्वंग स्टेट में बाजी पलटने के कारण ही उनका हौसला इतना बढ़ा कि वह दुनिया में अमेरिका को अव्वल फिर से बनाने निकल पड़े? इस निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले हमें उनका पहला कार्यकाल करीब से देखना होगा। अमेरिका को हो रहे व्यापार घाटे को लेकर वह पहले भी मुखर रहे हैं। उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में चीन को विकासशील देश का तमगा बरकरार रखने पर आपति्त जताई थी। उनका कहना था कि चीन अब विकासशील नहीं रह गया है। उसे किसी भी तरह के प्रोत्साहन की जरूरत नहीं है। व्यापार घाटे का मुद्दा पहले भी उठाते आए हैं। याद करें कि भारत को उन्होंने पहले ही जनरल सिस्टम ऑफ प्रीफरेंस (जीएसपी) से बाहर कर दिया था। जीएसपी के तहत भारत को कारोबार में तरजीह दी जाती थी। भारत द्वारा बहुत ज्यादा कस्टम ड्यूटी लगाने का मुद्दा वह हॉर्ले डेविडसन के हवाले से कई बार उठा चुके थे।
ऐसे हालात में अपने दूसरे कार्यकाल में ट्रंप को ‘अमेरिका को प्रथम’ रखने के अभियान को तेज करना ही था। वह किया भी। इस बार नाम ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ रखा गया। चंद दिनों में द्सरे देशों के साथ व्यापार घाटे के मद्देनजर उन्होंने जवाबी टैरिफ ठोक दिया। उनके बयानों के तेवर से ऐसा लगता था कि ट्रंप का मकसद अमेरिका के लिए बेहतर ‘डील’ हासिल करना रहा होगा। इसकी वजह अमेरिका को हो रहे व्यापार घाटे के आंकड़े में छिपी है। अमेरिका को 2024 में कुल 1.2 ट्रिलियन डॉलर का व्यापार घाटा हुआ ।
मेकि्सको, कनाडा और ब्राजील के नेतृत्व ने जिस अंदाज में जोरदार ढंग से उनकी घोषणाओं का जवाब दिया। वह अमेरिका के लिए हैरतभरा था। चीन ने तो साफ कह दिया कि यदि अमेरिका चाहे तो वह हर किस्म की ‘लड़ाई’ के लिए तैयार है। उसने ऐसा किया भी। अमेरिका द्वारा लगाए गए हर टैरिफ के बदले उसने भी जवाबी टैरिफ की घोषणाएं कर दीं। अमेरिका द्वारा दोबारा टैरिफ बढ़ाने का भी चीन ने उतनी ही शिद्दत से जवाब दिया। तकरीबन हर देश ने कमोबेश ऐसे ही कदम उठाए। इस मामले में सिर्फ भारत ही अपवाद रहा। भारत ने किसी भी जवाबी टैरिफ की बात नहीं की। इसके विपरीत अमेरिका से व्यापार समझौते को जल्द करने की कोशिश कर रहा है। हालांकि जीएसपी दर्जा सालों तक बहाल न करवा पाना उसके ट्रैक रिकॉर्ड की पोल खोलता है।
दुनिया में ऐसे आर्थिक हालात हो गए कि कारोबार करना किसी भी देश के लिए आसान नहीं रह जाता। बात केवल टैरिफ की ही नहीं थी। अमेरिकी सहायता (यूएस एड) कार्यक्रमों को भी बंद किए जाने का चौतरफा विरोध होने लगा। वहां कई स्थानों पर लोग सड़कों पर उतरने लगे।
टैरिफ वॉर से सबसे बड़ा खतरा ग्लोबल सप्लाई चेन टूटने की आशंका थी। उत्पाद तो महंगे होने तय थे। उनकी उपलब्धता पर भी बड़ा खतरा मंडराने लगा था। जाहिर है यह सि्थति महंगाई को और बढ़ा देती। खुद अमेरिका ने महंगाई पर बमुशि्कल काबू पाया था। टैरिफ वॉर से इसका बढ़ना तय था। ऐसी परिसि्थतियों के मद्देनजर रोजगार की समस्या बढ़ने से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। सवाल उठता है कि क्या अमेरिका फिर से इस ‘युद्ध’ के लिए तैयार है? क्या इन कदमों के चलते अमेरिका में फिर से मैन्युफैक्चरिंग का बोलबाला हो जाएगा? क्या अमेरिकी कम श्रम कीमत पर काम करने के लिए तैयार हो जाएंगे?
काबिलेगौर है कि अमेरिकी कारोबारियों ने सस्ते श्रम के कारण ही अपने कारोबार को दूसरे देशों में फैलाया। चीन, विएतनाम, इंडोनेशिया और बांग्ला देश इसके उदाहरण हैं। सबसे बड़े मोबाइल निर्मात एप्पल का ही उदाहरण लें। सबसे पहले चीन में ही इसका उत्पादन बडे पैमाने पर प्रारंभ हुआ। लेवाईस जींस आदि कई उदाहरण मिल जाएंगे। सवाल वही है कि क्या राष्ट्पति ट्रंप की घोषणा के बाद क्या अमेरिकी कम श्रम मूल्य पर काम करने के लिए तैयार हो जाएंगे? क्या वे भावनाओं के ज्वार के कारण ज्यादा महंगाई झेलने के लिए तैयार हो जाएंगे?
यदि ऐसा होता तो ट्रंप मोबाइल, कंप्यूटर, चिप जैसे उत्पादों को ज्याद टैरिफ के दायरे से बाहर निकालने को मजबूर नहीं होते। पहले राउंड के 20 फीसद मिलाने पर इस समय कोई 145 फीसद टैरिफ चीन से आयातित सामानों पर लगा दिया गया है। आखिर छूट देने की वजह क्या है ? तो क्या ट्रंप का दांव उलटा पड़ गया ? अमेरिका के लिए ज्यादा लाभदायक सौदे तलाशने के फेर में उन्होंने कहीं अपने पैरों पर तो कुल्हाड़ी नहीं मार ली? क्या उनके इरादे कमजोर नींव पर थे? ऐसा लगता है। दुनिया को कितना नुकसान हो जाएगा इसका अंदाजा उनकी टीम ठीक से नहीं लगा सकी। इस टैरिफ वॉर के चलते समूची दुनिया को कोई तीन फीसद कारोबार का नुकसान हो जाता। यह आकलन पॉमेला कोक-हैमिल्टन ने लगाया है। वे इंटरनेशनल ट्रेड सेंटर की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं। उनका कहना है कि यही नहीं बल्कि कारोबार के तौर तरीकों में भी बदलाव तय है। अमेरिका और चीन से बाकी देशों के कारोबारी रिश्ते भी बदलने हैंl
बहरहाल, यूरोप समेत कई देशों के तीखे रुख के चलते ही अमेरिका को इस टैरिफ वॉर को नब्बे दिनों के लिए रोकना पड़ा है? अलबत्ता चीन के साथ तो ‘व्यापार युद्ध’ के हालात में ज्यादा रद्दोबदल होने के आसार नहीं हैं। एक सवाल फिर भी भविष्य के गर्भ में है कि क्या अमेरिकी राष्ट्रपति को सद्बुदि्ध आ जाएगी? क्या दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं की बेहतरी के लिए वह काम करेंगे?
2024 मे अमेरिका को 1.2 ट्रिलियन डॉलर का व्यापार घाटा
देश निर्यात आयात व्यापार घाटा कुल प्रतिशत
चीन 440 144 296 24
यूरोपीय यूनियन 609 372 237 20
मेकि्सको 516 334 182 15
विएतनाम 136 13 123 10
भारत 119 73 46 0.3
-आंकड़े अरब डॉलर में