शिशिर शुक्ला
पूरे साल के तीन सौ पैंसठ दिनों में, फरवरी के आठ दिनों की रौनक जरा हटकर ही होती है। लेकिन इस रौनक को केवल और केवल किशोरावस्था एवं यौवन की दहलीज पर खड़ी भीड़ ही महसूस कर सकती है, शेष किसी के भीतर इस अद्भुत मस्ती से सराबोर माहौल के प्रति उतनी संवेदना नहीं होती। आठ दिनों के इस महापर्व, जिसकी नींव रखने का महान कार्य रोम के संत वैलेंटाइन ने किया था, की सुगंध तो फरवरी शुरू होते ही वातावरण में बिखरने लगती है। लेकिन महोत्सव के श्रीगणेश अर्थात प्रथम दिन के साथ प्रेमी एवं प्रेमिकाओं के द्वारा स्वयं को “मिस्टर हैंडसम” एवं “ब्यूटी क्वीन” के रूप में बदलने की कोशिशें खुद-ब-खुद इस पर्व की महत्ता को बयां कर देती हैं। एक लंबे समय और प्रतीक्षा रूपी तपस्या के उपरांत प्रेम साधना के तपस्वियों के हृदय में दबी अनमोल भावनाएं और “विल यू बी माय वैलेंटाइन” एवं इसी भाव को प्रकट करने वाले अनेक प्रश्न मानो इस अवसर पर बाहर निकलने को तड़पते हैं।
बहरहाल इस अष्टदिवसीय महापर्व का शुभंकर गुलाब है। पर्व का प्रथम दिन अर्थात रोज डे प्रेमियों के द्वारा अपनी अपनी गुलाबो के करकमलों में गुलाब का सुंदर पुष्प समर्पित करके होता है। गुलाबो का नतीजा जो भी हो, किंतु इस बहाने न जाने कितने ही गुलाब “यूज एंड थ्रो” का शिकार हो जाते हैं। लाख शुक्र है मोबाइल फोन के कैमरे का, जोकि गुलाब के पुष्पों को यूज होते वक्त स्मृति पटल पर अंकित कर लेता है। दूसरा दिन है- प्रस्ताव दिवस अर्थात प्रपोज डे। सही मायने में यह दिन ‘आर या पार’ का दिन होता है क्योंकि इस दिन यह तय होता है कि आने वाले समय में प्रेम तपस्वियों के दिल के तार बजेंगे अथवा बेवफाई के गीत। सच कहा जाए तो जीत या हार अथवा प्रेमियों के हृदय के स्वास्थ्य का फैसला भी यहीं पर हो जाता है। अब हृदय गार्डन गार्डन होगा अथवा टूटकर चकनाचूर होगा, यह तो अपनी-अपनी किस्मत। खैर, जो भी दूसरे पड़ाव को पार कर जाता है, वह अगले तीन पड़ावों अर्थात चॉकलेट डे, टेडी डे और प्रॉमिस डे को भी बड़ी कुशलता से पार कर जाता है क्योंकि ये सभी पड़ाव एक बचकाने खेल जैसे होते हैं। प्रॉमिस डे तो वस्तुतः एक शपथ ग्रहण सेरेमनी होती है जिसमें सात जन्मों तक साथ जीने मरने की शपथ ग्रहण की जाती है।
छठा पड़ाव पुनः एक बहुत महत्वपूर्ण पड़ाव है, जिसे गले लगना अथवा आधुनिक भाषा में ‘हग करना’ कहा जाता है। यद्यपि पांच स्तरों के बाद इस पड़ाव को पार करना कोई बहुत मुश्किल बात नहीं है, किंतु फिर भी जब तक गंगा नहा न ली जाए तब तक चैन नहीं पड़ता। सबसे दुष्कर किंतु सर्वाधिक प्रतीक्षित पड़ाव तो सातवां पड़ाव है, जिसे ‘किस डे’ अथवा चुंबन दिवस कहा जाता है। अगर ईमानदारी से कहा जाए तो, यह जो छः दिन का सारा तामझाम होता है, वह वस्तुतः ‘किस डे’ को पूर्ण आनंद एवं उल्लासपूर्वक मनाने के लिए ही आयोजित किया जाता है। “किस डे” कहने को तो केवल ‘किस डे’ होता है, लेकिन प्रेम तपस्या के योगियों के द्वारा उंगली पकड़कर पहुंचा पकड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। यहां जो सफल हो गया, वह अंतिम पड़ाव अथवा पूर्णाहुति तक पहुंचता है। मजे की बात तो यह है कि अंतिम पड़ाव पर भी बहुत सारे प्रेम संबंध औंधे मुंह गिर जाते हैं। अब इस पड़ाव पर आकर चित हो जाने का अर्थ क्या निकाला जाए, शायद यही कि उनका मकसद केवल “चुम्बन दिवस” तक की यात्रा का आनंद लेना था। खैर जो भी हो, पूर्णरूपेण सफल होने वाले प्रेम-तपस्वी अपना प्रेम संबंध जीवन की धारा में धीरे-धीरे आगे बढ़ाते रहते हैं और अंततः दांपत्य सूत्र में स्वयं को बांध लेते हैं। इस अष्ट दिवसीय परीक्षा अथवा महापर्व में सफल होना अथवा असफल होना भाग्य के अधीन है अथवा स्वयं के अधीन, यह कहना जरा मुश्किल होगा। किंतु इतना ही कहा जा सकता है कि सफल युवाओं को संत वैलेंटाइन की पूजा करके आजीवन उनका आभारी रहना चाहिए। रही बात असफल अथवा तथाकथित दिलजलों की, तो उन्हें नए सिरे से अपनी प्रेम-तपस्या शुरू करनी चाहिए या फिर जानू, बेबी, शोना, डार्लिंग, गुलाबो, लव और वैलेंटाइन जैसे जंजालों से खुद को बाहर निकालकर “सिविल सर्विस” की तैयारी अथवा “अरेंज मैरिज” जैसे मरहम अपने घावों पर लगाने चाहिए।