
अम्बिका कुशवाहा ‘अम्बी’
लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण आज भी हमारे देश में एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है। आधुनिक समय में भी समाज में महिलाओं को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। एक समय था जब महिलाएं सामाजिक और राजनीतिक दुनिया से लगभग अनजान थीं। उनके पास न तो आवश्यक संसाधन थे और न ही पर्याप्त अवसर, जिससे वे अपने सपनों को पूरा कर सकें और समाज के विकास में भागीदार बन सकें। चारदीवारी के अंदर कैद महिलाएं अपने ऊपर होने वाले अत्याचार और हिंसा को भी अपनी नियति मान लेती थीं। उस समय हर किसी के हाथ में मोबाइल या सोशल मीडिया नहीं था, लेकिन आज के दौर में महिलाओं को शिक्षा और आर्थिक उत्थान के प्रति जागरूक करने में सोशल मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। फिर भी, बदलाव की तस्वीर उतनी स्पष्ट नहीं है, जितनी होनी चाहिए थी।
आज भी महिलाओं को आगे बढ़ने और अपने सपने पूरे करने के लिए सहारे और अनुमति की जरूरत पड़ती है। वे पुरुषों की तरह स्वतंत्र रूप से सड़क पर इकट्ठा होकर बातचीत नहीं कर सकतीं, कहीं भी आ-जा नहीं सकतीं। ऐसा क्यों? किससे भय है? जब देश की आधी आबादी ट्रेन से लेकर एयरोप्लेन तक चला रही है, डॉक्टर से लेकर वैज्ञानिक बन रही है, तब भी महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध क्यों नहीं रुक रहे? यह एक गंभीर प्रश्न है कि महिलाओं को पर्याप्त स्वतंत्रता और अधिकार मिलने के बावजूद उनकी सुरक्षा सुनिश्चित क्यों नहीं की जा सकती? सख्त कानूनी धाराएं, फांसी और उम्रकैद जैसी कड़ी सजा होने के बावजूद अपराधी बेखौफ क्यों हैं? कई मामलों में तो राजनीतिक संरक्षण की बातें भी सामने आती हैं।
देश की व्यवस्था को बदलने और समुचित विकास में राजनीतिक पदों पर आसीन नेताओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ऐसे में सवाल उठता है कि देश की राजनीति में महिलाओं का कितना योगदान है? संसद में कितनी महिला नेत्रियां देश की महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तिकरण के लिए आवाज उठा रही हैं? क्या केवल योजनाएं लागू करने से महिलाओं का भला हो जाएगा? देश की आधी आबादी के उत्थान के लिए कितने प्रभावी कदम उठाए जा रहे हैं? सबसे पहले, संसद में महिलाओं की 50% भागीदारी सुनिश्चित करना आवश्यक है। वर्तमान में भारत महिला प्रतिनिधित्व के मामले में विश्व के 185 देशों में 143वें स्थान पर है। आखिर हमारी संसद में महिलाओं की भागीदारी इतनी कम क्यों है? अमेरिका, रूस और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों से तुलना छोड़ भी दें, तो भी महिला प्रतिनिधित्व के मामले में भारत अपने पड़ोसी देशों चीन और पाकिस्तान से पीछे है। इसका मुख्य कारण समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक अवधारणा है, जो राजनीति को महिलाओं के लिए असुरक्षित स्थान बताती है। दूसरा बड़ा कारण यह है कि महिलाओं के पास व्यक्तिगत संपत्ति और आर्थिक आत्मनिर्भरता की कमी है।
सिर्फ राजनीति ही नहीं, बल्कि सामाजिक क्षेत्र भी महिलाओं के लिए असुरक्षित बताया जाता है। लेकिन महिलाओं को असुरक्षा आखिर किससे है—अपने ही समाज से? पंचायत स्तर पर महिलाओं के लिए 50% सीटें आरक्षित हैं, लेकिन हकीकत यह है कि महिलाएं केवल चुनाव लड़ने और जीतने तक सीमित रहती हैं। जीत के बाद प्रशासन की बागडोर पुरुषों के हाथ में होती है, और महिलाएं फिर से चूल्हा-चौखट तक सिमट जाती हैं। यहां जरूरत है सही मार्गदर्शन और सहयोग की, ताकि वे समाज की स्थिति को समझ सकें, नेतृत्व कर सकें और बदलाव ला सकें। लेकिन स्थिति उलट दी जाती है, जिससे महिलाओं की भागीदारी केवल नाममात्र की रह जाती है।
महिलाएं समाज की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करती हैं। लेकिन जब तक वे आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से पुरुषों के समान स्वतंत्र और प्रभावशाली नहीं बन जातीं, तब तक महिला सशक्तिकरण की बातें अधूरी और खोखली ही लगती हैं।