स्त्रियाँ जो द्रौपदी नहीं बनना चाहतीं

Women who do not want to become Draupadi

वे स्त्रियाँ
अब चीरहरण नहीं चाहतीं,
ना सभा की नपुंसक दृष्टि,
ना कृष्ण का चमत्कारी वस्त्र-प्रदर्शन।
वे अब प्रश्न नहीं करतीं —
“सभागृह में धर्म कहाँ है?”
वे खुद ही धर्म बन चुकी हैं।
वे स्त्रियाँ
न तो द्रौपदी हैं,
ना सीता,
ना कुंती,
वे अपना नाम खुद रखती हैं —
कभी विद्रोह,
कभी प्रेम,
कभी ‘ना’।
वे अब अग्निपरीक्षा नहीं देतीं,
क्योंकि वे जान चुकी हैं —
आग से नहीं,
सवालों से जलाया जाता है।
वे अब चौखट पर दीपक नहीं जलातीं
बल्कि आंधियों से पूछती हैं —
“तुम्हारा साहस कितना है, मुझे बुझाने का?”
वे स्त्रियाँ
अपने भीतर
एक कोमल क्रांति पालती हैं —
जो फूलों से नहीं,
संवेदना की चुप्पियों से खिलती है।
वे अब खुद को
‘स्त्री’ कहने से पहले
‘मनुष्य’ कहती हैं —
क्योंकि उन्हें अब
देह से पहले

चेतना चाहिए।

प्रियंका सौरभ