कराहती कुदरत के चिंताजनक संदेश

Worrisome messages from the groaning nature

विजय गर्ग

कई बाढ़, बारिश, तपिश, सूखा, कहने को कुदरती घटनाएं, लेकिन जिस तरह अब इनका रौद्ररूप मौसम- बेमौसम दिखने लगा है, वह चिंताजनक है। बीते साल बाढ़, वनों की आग की बेतहाशा घटनाओं ने देशों को झकझोर दिया। बाढ़ से भारत से लेकर केन्या तक आम जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ। मैक्सिको से लेकर पाकिस्तान और दूसरे कई देश उच्च तापमान से हलकान रहे। सऊदी अरब में हज के दौरान असहनीय गर्मी से 1300 से अधिक लोगों की जान चली गईं। बढ़ते तापमान से जंगलों में बार-बार आग लगने की भयावह स्थितियां बनीं। अमेरिका के कैलिफोर्निया का झुलसना सबने देखा। दस लाख एकड़ से ज्यादा जमीन खाक हो गई। तूफान से कई देशों में तबाही के मंजर दिखे। ये घटनाएं न तो साधारण हैं और न सिर्फ प्राकृतिक । । पहले भी मौसम का प्रकोप दिखता था, लेकिन भयावहता का ऐसा मंजर यदा- कदा ही दिखा। इसके कारणों को जानते-समझते हुए भी हमारे अनजान बने रहने से प्राकृतिक आपदाएं दिनोंदिन और भयावह होती जा रही हैं। एक शोध ने वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों और प्रकृति को लेकर चिंतित संगठनों की नींद उड़ा है। कोरियाई भू-भौतिकी विशेषज्ञ वियन से ओ र उनके सहयोगियों का ‘जियोफिजिकल रिसर्च रेसचं लेटर्स’ में प्रकाशित शोध बेहद परेशान करने वाला है। । भूजल दोहन के अनुपात वापस धरती में नहीं पहुंच रहा है। इससे पृथ्वी के नाजुक संतुलन पर हैरान कर देने ने वाले प्रभाव दिखे। पृथ्वी लगभग 80 सेंटीमीटर यानी 31.5 इंच तक झुक गई है। पानी के धरती से निकाले जाने के चलते, बड़े जल द्रव्यमान के विस्थापन पृथ्वी के घूर्णन अक्ष को लगभग 80 सेंटीमीटर पूर्व की ओर खिसक गया। शोधपत्र यह भी बताता है कि पानी 1993 से 2010 के बीच, पृथ्वी के घूर्णन अक्ष यह विचलन यानी झुकाव प्रति वर्ष 4.36 सेंटीमीटर की दर से बढ़ा। इस दौरान पृथ्वी से करीब 2,150 गीगाटन भूजल निकाला गया। यही पृथ्वी के और झुकने का कारण है। निश्चित रूप से यह अब भी निरंतर बढ़ रहा होगा।

भूजल पृथ्वी की सतह के नीचे मिट्टी के छिद्रों और चट्टानों की दरारों में जमा पानी है, जो ‘हाइड्रोलाजिकल साइकिल’ हिस्सा बनता है। पानी, बारिश से जमीन में रिसकर भूमिगत जलभृतों यानी पानी से भरी हुई चट्टानों या असंगठित तलछट, जिससे कुओं और झरनों तक आसानी से पहुंचता है। इस तरह अच्छी गुणवत्ता वाला पानी फिर भरता है। यही जलभृत महत्त्वपूर्ण मीठे जल भंडार होते हैं ये पीने, सिंचाई और औद्योगिक जरूरतों को पूरा करते हैं। धरती की धुरी का बदलना भले मामूली लगे, लेकिन भूगर्भीय हलचल के तौर पर ऐसे मामूली बदलाव बड़े घातक पर्यावरणीय परिणामों के जनक बन सकते हैं। पानी का पुनर्वितरण विभिन्न क्षेत्रों, यहां तक कि समुद्र के स्तर तक में परिवर्तन को अलग-अलग तरीकों से प्रभावित कर सकता है। अभी इससे ग्रह के झुकाव में बड़ा बदलाव आया और पानी का ज्यादातर हिस्सा वापस महासागरों में चला गया। नतीजतन, समुद्र का स्तर बढ़ गया। पृथ्वी के घूर्णन ध्रुव में होने वाले परिवर्तनों के अध्ययन से बड़े पैमाने पर जल भंडारण में होने वाले परिवर्तनों की जानकारी मिलती है। नासा के अनुसार, पृथ्वी का मूल झुकाव ही अलग-अलग मौसमों का जनक है, जो मंगल ग्रह के आकार की वस्तु, थिया के टकराने निर्मित हुआ था। इस ब्रह्मांडीय टकराव ने पृथ्वी को अपनी धुरी पर स्थायी रूप से झुका दिया, जिससे वसंत, ग्रीष्म, शरद और शीत ऋतुओं का चक्र बना। नवीन शोध के अनुसार, ताजा झुकाव मौसमों को तो नहीं बदलेगा, लेकिन यह वैश्विक जलवायु ‘पैटर्न’ को प्रभावित जरूर करेगा । यही बदलता जलवायु ‘पैटर्न’ प्राकृतिक आपदाओं को न्योता है। इससे ग्रह की आंतरिक प्रणालियां, यहां तक कि चुंबकीय क्षेत्र भी प्रभावित होंगे, जो हमें हानिकारक सौर विकिरण से बचाते हैं। ऐसी घटनाओं की अप्रत्याशित वृद्धि कभी भी बड़ी त्रासदी बन सकती है।

दुनिया के पर्यावरण संतुलन में हिमालय का बड़ा योगदान है। इसकी पर्वत श्रृंखला दुनिया में सबसे ऊंची हैं और ग्लेशियरों से निकलने वाली सदाबहार नदियां भारत, चीन, नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, •अफगानिस्तान की ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था की जीवनदायिनी बनकर वहां की सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत की वाहक भी हैं। मगर दुखद है कि जलवायु परिवर्तन से हिमालयी क्षेत्रों में बारिश और बर्फबारी अनियमित हो गई है। ऐसे बदलावों के कारण तापमान बढ़ने लगा, जिससे ग्लेशियर पिघलने की गति भी बढ़ी। इससे कई नदियों के अस्तित्व पर संकट आ खड़ा हुआ। अठारहवीं सदी में विकसित प्रकृति-विरोधी मानवीय गतिविधियों के चलते समूचे विश्व में अंधाधुंध कोयला, जीवाश्म ईंधन, पेट्रोल-डीजल की खपत होने लगी। इससे ग्रीन हाउस गैसों में खासी वृद्धि हुई और ग्लेशियर पिघलने की प्रक्रिया तेजी से बढ़ी। दो सौ साल पहले तक सिर्फ प्राकृतिक कारणों से ग्लेशियर प्रभावित होते थे। प्राकृतिक तरीके से स हुए बदलाव मानव और दूसरे दूसरे जीव-जंतुओं को वातावरण के अनुसार ढलने का समय मिल जाता है, लेकिन जब प्रकृति-विरोधी मानवीय गतिविधियों से ऐसा होता है, तो घातक नतीजे सामने आते हैं। बीते वर्ष जून-जुलाई में गर्मी के पिछले सभी रेकार्ड ध्वस्त हो गए, नवंबर बेहद गर्म महीना बना चिंताजनक यह भी है कि दो दशक में ही धरती के 270 अरब टन ग्लेशियर पिघल गए। तापमान ऐसे ही बढ़ता रहा, तो साल 2100 तक 80 फीसद ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे।

‘नासा’ का 2018 का एक और खुलासा चिंताजनक है। मध्य चीन में यांनी नदी के मार्ग पर ‘श्री गार्जेस’ बांध बनने के बाद पृथ्वी के घूमने की गति घटी है। यह बांध सबसे बड़ी मानवीय संरचनाओं में एक है, जो यांग्त्जी नदी से 185 मीटर ऊंचा और दो किलोमीटर से ज्यादा लंबा है। इसकी क्षमता 40 अरब घन मीटर जल संग्रहण की है। यानी मानवीय विद्रूपण के पर्यावरण पर प्रभाव के चलते धरती के घूमने 1 रफ्तार में 0.06 माइक्रोसेकंड की कमी आई इससे समझ आता है मनुष्य बनाई चीजें पृथ्वी की दिनचर्या या प्राकृतिक प्रक्रियाओं को कैसे प्रभावित कर रही हैं। वैज्ञानिक और पर्यावरणविद इस विशाल जलाशय की आलोचना करते रहे हैं। अतार्किक भूजल दोहन से धरती का अप्राकृतिक झुकाव चिंताजनक है। हाल की प्राकृतिक आपदाओं ने न केवल जन-जीवन, बल्कि आजीविका को भी प्रभावित किया है। तुरंत, भूजल दोहन के अनुपात में पानी न मिलने से धरती के झुकाव पर अध्ययन और शोधकर्ताओं गंभीर लेने होंगे। अभी ज्यादा कुछ नहीं बिगड़ा है। समूचे विश्व को एकजुट होना होगा। ये घटनाएं भले बहुत छोटी हों, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी आपदा या महामारी की शुरुआत छोटे रूप में ही होती है, जो तत्काल नियंत्रित न कर पाने के चलते भयावह हो जाती है। हो सकता है कि पृथ्वी का और झुकना, भूजल में जबरदस्त गिरावट, बाढ़ बारिश, सूखा- तूफान, झुलसाती गर्मी और गलाती ठंड प्रकृति के इशारे हों। समझकर भी नासमझ बनना, अपने विनाश की गाथा स्वयं लिखने जैसा है।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब