योगी के ब्राह्मण और ठाकुर विधायक अलग-अलग लामबंद

Yogi's Brahmin and Thakur MLAs mobilized separately

संजय सक्सेना

उत्तर प्रदेश की राजनीति में कई बार छोटी घटनाएं बड़े सियासी बदलावों का संकेत देती हैं। विधानसभा के शीतकालीन सत्र के दौरान लखनऊ में हुआ एक सहभोज भी कुछ ऐसा ही माना जा रहा है। कुशीनगर से भाजपा विधायक पंचानंद पाठक के सरकारी आवास पर 22 दिसंबर की शाम आयोजित इस कार्यक्रम को बाहर से निजी और पारिवारिक बताया गया, लेकिन इसमें शामिल चेहरों, समय और माहौल ने इसे राजनीतिक बहस के केंद्र में ला दिया। सत्र के बीच राजधानी में बड़ी संख्या में ब्राह्मण विधायकों और विधान परिषद सदस्यों का एक साथ जुटना सामान्य नहीं माना जा रहा। जानकारी के मुताबिक, इस सहभोज में करीब 35 से 40 विधायक और एमएलसी शामिल हुए। इनमें अधिकांश भारतीय जनता पार्टी से जुड़े थे, लेकिन कुछ अन्य दलों के ब्राह्मण जनप्रतिनिधियों की मौजूदगी भी सामने आई। मिर्जापुर से विधायक रत्नाकर मिश्र, देवरिया से डॉ. शलभ मणि त्रिपाठी, बांदा से प्रकाश द्विवेदी, तरबगंज से प्रेम नारायण पांडेय, बदलापुर से रमेश मिश्र, महनौन से विनय द्विवेदी और एमएलसी साकेत मिश्र जैसे नामों ने बैठक को राजनीतिक रूप से अहम बना दिया। भोजन में लिट्टी-चोखा और मंगलवार व्रत का फलाहार परोसा गया, जिसे आयोजकों ने सांस्कृतिक और सामाजिक परंपरा से जोड़ा।

यूपी विधानसभा में मौजूदा समय में ब्राह्मण विधायकों की संख्या 52 बताई जाती है, जिनमें से 46 भाजपा के हैं। यह आंकड़ा खुद में यह बताने के लिए काफी है कि सत्ता पक्ष में यह समाज कितना प्रभावशाली है। बावजूद इसके, हाल के महीनों में पार्टी के भीतर यह चर्चा जोर पकड़ती रही है कि संगठन और सरकार में संतुलन बदल रहा है। प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी कुर्मी समाज से आने वाले नेता को मिलने के बाद यह भावना और मजबूत हुई कि ब्राह्मण नेतृत्व को अपेक्षाकृत कम अहमियत मिल रही है।उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण समाज का इतिहास लंबा और प्रभावशाली रहा है। आजादी के बाद दशकों तक सत्ता की धुरी ब्राह्मण नेतृत्व के इर्द-गिर्द घूमती रही। 1990 के दशक में मंडल राजनीति के उभार के बाद समीकरण बदले, पिछड़ी और दलित जातियों का राजनीतिक प्रभाव बढ़ा, लेकिन ब्राह्मण समाज पूरी तरह हाशिये पर नहीं गया। उसने समय-समय पर नए राजनीतिक समीकरणों के साथ खुद को जोड़े रखा। यही कारण है कि आज भी यह समाज भले आबादी में 8 से 10 फीसदी माना जाता हो, लेकिन राजनीतिक असर इससे कहीं ज्यादा रखता है।

चुनावी आंकड़े इस प्रभाव को साफ दिखाते हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण मतदाताओं का करीब 83 फीसदी समर्थन भाजपा को मिला था। 2022 में यह समर्थन बढ़कर लगभग 89 फीसदी तक पहुंच गया। यानी लगातार दो चुनावों में भाजपा को इस वर्ग से मजबूत समर्थन मिला। प्रदेश की 100 से ज्यादा विधानसभा सीटें ऐसी मानी जाती हैं, जहां ब्राह्मण मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं। बलरामपुर, बस्ती, संत कबीर नगर, महाराजगंज, गोरखपुर, देवरिया, जौनपुर, अमेठी, वाराणसी, चंदौली, कानपुर और प्रयागराज जैसे जिलों में ब्राह्मण आबादी 15 फीसदी से अधिक बताई जाती है। ऐसे में लखनऊ की इस बैठक को केवल सामाजिक सहभोज कहना कई लोगों को अधूरा सच लगता है। राजनीतिक हलकों में यह सवाल उठ रहा है कि क्या यह जुटान सिर्फ आपसी मेल-मिलाप थी या इसके पीछे भविष्य की रणनीति भी छिपी है। सूत्रों के मुताबिक, बैठक में खुलकर राजनीति पर तो चर्चा नहीं की गई, लेकिन ब्राह्मण समाज से जुड़े मुद्दों पर चिंता जरूर जताई गई। हाल के दिनों में प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में सामने आई घटनाओं का जिक्र हुआ, जहां ब्राह्मण समाज के साथ अन्याय या उपेक्षा की शिकायतें सामने आई थीं। ऐसे मामलों में संगठित होकर प्रतिक्रिया देने और पीड़ित परिवारों के साथ खड़े होने की बात कही गई।

बताया जा रहा है कि बैठक में समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की मदद के लिए एक व्यवस्थित ढांचा तैयार करने पर भी बातचीत हुई। इसमें वकील, डॉक्टर, रिटायर्ड अधिकारी और समाज के प्रभावशाली लोगों को जोड़ने की योजना पर विचार किया गया। मकसद यह बताया गया कि जरूरत पड़ने पर समाज अपने स्तर पर मदद कर सके और किसी पर निर्भर न रहे। इसके साथ ही राजनीतिक हिस्सेदारी के सवाल पर भी चर्चा हुई कि आबादी और योगदान के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।सरकार की ओर से इस पूरे घटनाक्रम को लेकर सतर्क बयान आए। उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने कहा कि विधानसभा सत्र के दौरान विधायकों का मिलना-जुलना स्वाभाविक है और इसे जातीय नजरिए से देखना गलत है। उनका कहना था कि विधायक आपस में मिलते हैं, चर्चा करते हैं और इसे किसी समुदाय विशेष की बैठक कहना सही नहीं है। सत्ता पक्ष के कई अन्य नेताओं ने भी इसी तरह की प्रतिक्रिया दी।

विपक्ष ने इस बैठक को भाजपा का आंतरिक मामला बताया, लेकिन साथ ही तंज कसने से भी नहीं चूका। समाजवादी पार्टी के नेताओं का कहना है कि अगर पार्टी के भीतर इस तरह की बैठकें हो रही हैं, तो इसका मतलब है कि असंतोष कहीं न कहीं मौजूद है। कुछ नेताओं ने इसे 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले की बेचैनी के तौर पर देखा राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यह बैठक अपने आप में कोई बड़ा आंदोलन नहीं है, लेकिन यह संकेत जरूर देती है कि जातीय संतुलन का सवाल फिर से केंद्र में आ रहा है। पिछले कुछ समय में ठाकुर समाज और फिर कुर्मी समाज से जुड़े कार्यक्रमों की चर्चा सामने आई थी। उसी क्रम में अब ब्राह्मण विधायकों की यह जुटान देखी जा रही है। यह दिखाता है कि सत्ता के भीतर अलग-अलग सामाजिक समूह अपनी भूमिका और हिस्सेदारी को लेकर सजग हो रहे हैं।

2027 का विधानसभा चुनाव अभी समय दूर लग सकता है, लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति में तैयारियां हमेशा पहले शुरू हो जाती हैं। लखनऊ का यह सहभोज उसी शुरुआती तैयारी का हिस्सा माना जा रहा है। भाजपा के लिए यह चुनौती है कि वह अपने सबसे मजबूत समर्थक वर्गों में संतुलन बनाए रखे, जबकि विपक्ष के लिए यह मौका है कि वह किसी भी असंतोष को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश करे। फिलहाल, लखनऊ की उस शाम का सहभोज खत्म हो चुका है, लेकिन उससे उठी राजनीतिक चर्चा अभी थमी नहीं है। आने वाले महीनों में अगर ऐसी बैठकों का सिलसिला बढ़ता है, तो साफ हो जाएगा कि यह केवल सामाजिक मेल-मिलाप नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में नई बिसात बिछाने की कोशिश है।