योगी पर भारी पड़ सकती है संघ और संगठन से दूरी

Yogi's distance from the Sangh and the organization could prove costly

अजय कुमार

उत्तर प्रदेश की राजनीति में योगी आदित्यनाथ आज एक ऐसा नाम बन चुके हैं, जो अनुशासन, प्रशासनिक सख्ती और हिंदुत्व के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। 2017 में, जब उन्होंने राज्य की कमान संभाली थी, तब यह माना जा रहा था कि संघ और भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने एक युवा और दृढ़ नेतृत्व को आगे रखा है, जो कानून व्यवस्था को सुधार सके। लेकिन आज, अपने दूसरे कार्यकाल के तीन साल पूरे करने के बाद, योगी की राजनीतिक यात्रा कई नए संकेत दे रही है, जिसमें उनकी स्वतंत्र कार्यशैली, पार्टी के भीतर की खींचतान, और केंद्र से बढ़ती दूरी स्पष्ट झलकती है।

योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही प्रशासनिक स्तर पर कठोर निर्णयों के लिए ख्याति अर्जित की है। अपराध नियंत्रण, अवैध निर्माणों पर कार्रवाई, माफिया राज के खिलाफ जीरो टॉलरेंस नीति और हिंदू गौरव के मुद्दों पर उनकी आक्रामक छवि ने उन्हें जनता में लोकप्रिय बनाया। उन्होंने नौकरशाही को अपने नियंत्रण में रखा और निर्णय प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप को सीमित किया। यही कारण है कि जनता के बीच उनकी छवि “कड़े प्रशासक” और “निर्भीक नेता” की बन चुकी है। परंतु यह वही शैली है जिससे संगठन के भीतर असहजता भी महसूस की जा रही है। भाजपा के कई विधायक और संगठन के जिम्मेदार पदाधिकारी बार-बार यह शिकायत करते हैं कि योगी सरकार में उनकी सुनवाई नहीं होती। थानों से लेकर जिला स्तर के अफसरों तक, विधायकों को हस्तक्षेप का अधिकार लगभग समाप्त हो चुका है।

योगी सरकार में दो उपमुख्यमंत्री हैं, केशव प्रसाद मौर्य और बृजेश पाठक। दोनों ही प्रदेश राजनीति के अलग-अलग सामाजिक समीकरणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। केशव ओबीसी और बृजेश ब्राह्मण वर्ग से आते हैं। लेकिन पिछले कुछ समय से यह चर्चा आम है कि इन दोनों नेताओं और योगी के बीच संबंध सामान्य नहीं हैं। केशव प्रसाद मौर्य कई बार सोशल मीडिया पर ऐसे ट्वीट कर चुके हैं, जिन्हें राजनीतिक संकेत के रूप में देखा गया। वहीं बृजेश पाठक पिछले कुछ महीनों में अपने अलग कार्यक्रम और कार्यशैली के चलते सीमित राजनीतिक संपर्क बनाए हुए हैं। ये घटनाएँ इस धारणा को मजबूत करती हैं कि योगी ने सरकार को पूरी तरह अपने नियंत्रण में रखा है, जिससे सहयोगी मंत्री केवल औपचारिक भूमिका निभा रहे हैं।

पिछले कुछ महीनों में केंद्र और लखनऊ के बीच संवाद की कमी पर राजनीतिक हलकों में कई सवाल उठे हैं। केंद्रीय मंत्रियों का उत्तर प्रदेश के दौरों में कमी आना, योगी का राष्ट्रीय कार्यक्रमों से अक्सर अलग रहना और केंद्रीय नेतृत्व के बयानों में योगी का नाम कम आना, इन सब संकेतों ने यह अटकलें तेज की है कि दिल्ली योगी से बहुत प्रसन्न नहीं है। हालांकि भाजपा का आधिकारिक रुख हमेशा यह कहता रहा है कि केंद्र और राज्य में कोई मतभेद नहीं है, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि योगी का आत्मनिर्भर मॉडल, यानी बिना केंद्रीय दबाव के निर्णय लेना, पार्टी की पारंपरिक संरचना को चुनौती देता है। भाजपा का संगठनात्मक ढांचा सामूहिक निर्णय की संस्कृति पर चलता है, जबकि योगी का प्रशासन टॉप-डाउन मॉडल पर आधारित है।

प्रदेश के विधायकों में यह भावना बढ़ रही है कि अफसरशाही के ऊपर उनका नियंत्रण नाममात्र का रह गया है। विधायक अपने क्षेत्र में शिकायतें करते हैं कि थानेदार, एसडीएम या डीएम तक उनकी बात नहीं सुनते। मुख्यमंत्री कार्यालय ने शिकायत निवारण तंत्र तो सशक्त बनाया है, पर ज़मीनी स्तर पर राजनीतिक हस्तक्षेप की गुंजाइश समाप्त कर दी गई है। इससे विधायकों में हीनभावना के साथ नाराज़गी भी बढ़ी है। यही असंतोष तब और बढ़ जाता है, जब मुख्यमंत्री योगी किसी जनप्रतिनिधि की आलोचना पर सीधे कार्रवाई कर देते हैं या उसे सार्वजनिक रूप से नजरअंदाज करते हैं। भाजपा के मूल संगठनात्मक अनुशासन में यह अप्रत्याशित माना जाता है, लेकिन योगी के लिए यह साफ-सुथरा शासन बनाए रखने की नीति का हिस्सा है।

इन सभी घटनाक्रमों से यह स्पष्ट है कि योगी आदित्यनाथ ने खुद को मात्र एक मुख्यमंत्री के रूप में नहीं बल्कि एक राजनीतिक ब्रांड के रूप में स्थापित किया है। योगी मॉडल आज राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा समर्थकों के बीच चर्चा का विषय है। यूपी के कड़े प्रशासनिक मॉडल, हिंदुत्व की वैचारिक नींव और अपराध नियंत्रण में सफलता ने उन्हें जनता में स्वतंत्र पहचान दी है। केंद्र से दूरी या आंतरिक असहजता के बावजूद, योगी की लोकप्रियता में अभी कोई स्पष्ट गिरावट नहीं देखी जा रही है। लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि क्या यह स्वतंत्र छवि भविष्य में पार्टी संरचना के भीतर उन्हें और अलग-थलग कर सकती है? राजनीतिक विश्लेषकों की राय में, यदि योगी संघ और पार्टी दोनों के साथ सामंजस्य बनाए रखने में असफल होते हैं, तो उनकी राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका सीमित हो सकती है।

योगी का नेतृत्व एक स्पष्ट व्यक्तिगत ब्रांड की तरह उभर रहा है। उनके अनुयायी उन्हें हिंदू हृदय सम्राट की उपाधि से देखते हैं, जो भाजपा के पारंपरिक सामूहिक नेतृत्व से अलग दिशा की ओर संकेत करती है। वे कई मायनों में नरेंद्र मोदी के शुरुआती मुख्यमंत्री काल के समान दिखते हैं। मजबूत व्यक्ति छवि, प्रशासनिक नियंत्रण और कठोर निर्णय क्षमता के साथ। किन्तु पार्टी नेतृत्व यह नहीं चाहता कि कोई मुख्यमंत्री राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र के समानांतर छवि बनाए। यही कारण है कि केंद्र लगातार संतुलन बनाए रखने की कोशिश कर रहा है। संघ परिवार के कुछ वरिष्ठ कार्यकर्ता भी यह मानते हैं कि योगी को अपनी प्रशासनिक सख्ती के साथ संगठनात्मक समन्वय बढ़ाना चाहिए।

योगी आदित्यनाथ की राजनीति इस समय एक संक्रमण काल से गुजर रही है। वे जनता में लोकप्रिय हैं, लेकिन पार्टी संरचना में उनके बारे में मिश्रित भावनाएँ हैं। प्रदेश में उनके खिलाफ सीधी चुनौती नहीं दिखाई देती, परंतु यह आंतरिक दूरियाँ उनकी राजनीतिक रणनीति को प्रभावित कर सकती हैं। आने वाले दो वर्षों में यदि योगी संगठन, विधायकों और केंद्र के साथ तालमेल मजबूत नहीं कर पाते, तो यह उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं पर सीमाएँ लगा सकता है। वहीं यदि वे संवाद और समन्वय के नए रास्ते चुन लेते हैं, तो वे भाजपा के भीतर भविष्य के शीर्ष नेतृत्व में अपनी स्थिति और मजबूत कर सकते हैं।अभी के लिए यह कहना उचित होगा कि योगी आदित्यनाथ न केवल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, बल्कि एक उभरते राजनीतिक प्रतीक भी हैं, जिनकी अगली राजनीतिक मंज़िल इस बात पर निर्भर करेगी कि वे सख्त प्रशासक की अपनी पहचान को सर्वस्वीकार्य नेता के रूप में कैसे स्थापित कर पाते हैं।