
संजय सक्सेना
बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा पांच अक्टूबर के बाद किसी भी समय संभव है। वर्तमान में पूरे राज्य में चुनावी सरगर्मियां तेज हो चुकी हैं। राजनीतिक दलों के बीच बैठकों, रैलियों और रणनीति को लेकर हलचल जमी हुई है। गांव-शहर से लेकर चौपाल, बाजार और चौक-चौराहे तक सिर्फ चुनाव चर्चा का विषय बना हुआ है। पिछले कुछ वर्षों में बिहार की राजनीतिक परिस्थितियां कई बड़े बदलावों से गुजरी हैं, जिससे इस बार का चुनाव और भी दिलचस्प हो गया है। खासतौर पर सामाजिक समीकरण, गठबंधन की राजनीति, नेतृत्व का चेहरा और राज्य की मूलभूत समस्याओं के आधार पर माहौल काफी संवेदनशील और गतिशील है।
इस बार चुनाव में जनता के रुझान में स्पष्ट रूप से विभाजन दिख रहा है। एक तरफ जहां सत्ता पक्ष चुनाव को विकास, बिरादरी संतुलन और सामाजिक न्याय के नाम पर दांव पर लगा रहा है, वहीं विपक्ष महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, किसान और शिक्षा व्यवस्था को चुनावी मुद्दा बना रहा है। राज्य के युवा वर्ग में रोजगार के सीमित अवसरों को लेकर व्यापक असंतोष है। सरकारी भर्तियों में देरी, संविदा व अस्थायी नियुक्तियों और प्रवासी मज़दूरों की समस्याएं चुनाव का स्वरूप बड़ी हद तक तय करेंगी। राजनीतिक दलों की अगर बात करें, तो वर्तमान सरकार गठबंधन के नेतृत्व में है, जिसमें कुछ पुराने और कुछ नए साथी एक साथ आए हैं। विपक्ष में भी महागठबंधन की स्थिति अपेक्षाकृत मजबूत लग रही है, जिसमें जातीय समीकरण और नेतृत्व क्षमता दोनों को संतुलित रखने का प्रयास किया जा रहा है। सत्ता समर्थक अपने शासनकाल की उपलब्धियां, सड़क-बिजली-पानी के सुधार और कानून-व्यवस्था के मामलों को प्रमुखता से जनता के सामने गिनवा रहे हैं। वहीं विपक्ष राज्य में बढ़ती महंगाई, किसान ऋण और सरकारी नौकरियों की कमी को अपना अभियान बना रहा है।
इस बार चुनाव की सबसे बड़ी चुनौती युवाओं की भूमिका को लेकर है। बड़ी संख्या में नौजवान वोटर राज्य की सामाजिक-आर्थिक सच्चाइयों को लेकर जागरूक हैं। शिक्षा, रोजगार, पलायन, तकनीकी विकास और सरकारी सेवाओं में पारदर्शिता के मुद्दे उनके एजेंडे में सबसे ऊपर हैं। शहरी व ग्रामीण इलाकों में आर्थिक असमानता और महिलाओं की सुरक्षा के प्रश्न फिर से चर्चा में लौट आए हैं। किसान भी चुनावी समीकरण के महत्वपूर्ण घटक होंगे। वर्षा और बाढ़, फसल बीमा, समर्थन मूल्य और कृषि विपणन की स्वायत्तता जैसे मुद्दे राज्य के गांवों तक गूंजते हुए नजर आ रहे हैं। महिला मतदाता इस बार भी अपने बजाय अधिक मुखर और जागरूक बनी हुई हैं। केंद्र और राज्य सरकार की ओर से महिला सशक्तिकरण, आरक्षण और कल्याण योजनाओं का कितना असर पड़ेगा, यह मतदान की दिशा तय करने में अहम होगा।
राज्य के कुछ इलाकों में जातीय तनाव या सामाजिक असंतोष भी देखने को मिला है, जिसको लेकर कई दल क्षेत्रीय और जातीय संगठनों से गठजोड़ कर रहे हैं। अपराध दर, न्यायिक प्रक्रिया में देरी और जनता के बीच शासन-प्रशासन के चेहरे को लेकर भी संशय बना हुआ है। बिहार के गांवों में आज भी साख नेता की ही निर्णायक हो जाती है। मज़दूर हो, किसान हो, या छोटे व्यापारी, उनका समर्थन जीतना हर दल के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इस बीच नए युवा चेहरे, सिनेमा, सोशल मीडिया और जमीनी रिपोर्टिंग ने भी मतदाता के सोच को प्रभावित किया है। जनता का मिजाज देखें तो इस बार वह किसी भी तरह के बहकावे या भावनात्मक शिगूफे से दूर, ठोस सवालों के जवाब तलाश रही है। राजनीतिक वादों की विश्वसनीयता, परिवारवाद, भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता बदलाव चाहती है या चल रहे योजनाओं को ही आगे बढ़ाना चाहती है, इसका जवाब परिणाम में ही दिखेगा। अब रही बात निर्वाचन आयोग द्वारा जम्मू-कश्मीर, पंजाब, झारखंड सहित सात राज्यों की खाली आठ विधानसभा सीटों पर उपचुनाव की, तो आयोग के पास संवैधानिक अधिकार है कि वह लंबित या रिक्त सीटों के लिए उपचुनाव की घोषणा कर सकता है। हालांकि इसका निर्णय अक्सर राज्यों की स्थिति, राजनीतिक परिस्थिति, सुरक्षा हालात और न्यायिक प्रक्रियाओं के हिसाब से लिया जाता है। सूत्रों के अनुसार, आयोग लगातार इन राज्यों से रिपोर्ट ले रहा है और जल्द ही उपचुनाव की तिथि तय कर सकता है। चुनाव आयोग के उच्च सूत्रों का कहना है कि बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद ही इन उपचुनावों की घोषणा भी संभव है, ताकि सभी राज्यों में चुनावी व्यवस्था सुचारू रूप से हो सके।
कुल मिलाकर बिहार का चुनावी माहौल बढ़ते राजनीतिक तनाव, सामाजिक बदलाव, और आर्थिक चुनौतियों से घिरा है। मतदाता इस बार कई स्तरों पर सोच-समझकर मतदान करेंगे, जिनमें आर्थिक विकास, रोजगार, महिला सशक्तिकरण, जातीय समीकरण, शिक्षा, और सुरक्षा मुख्य स्वरूप में निर्णायक बन सकते हैं। चुनाव आयोग की घोषणा और सभी दलों की अंतिम रणनीति चुनावी तस्वीर को पूरी तरह से साफ करेगी।