भारतीय हॉकी के 100 वर्ष: शीर्ष से क्यों फिसली भारतीय हाकी, राह आगे की?

100 Years of Indian Hockey: Why did Indian hockey slip from the top, the way forward?

सत्येन्द्र पाल सिंह

नई दिल्ली : सवाल यह है कि आजादी से पहले और आजादी के बाद करीब डेढ़ दशक बाद भी आठ बार के ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता भारत को ओलंपिक में 2020 में टोक्यो में कांसे के रूप में अपना पहला पदक जीतने में चार दशक क्यों लग गए ? भारतीय हॉकी अर्श से फर्श पर क्यों आ गई? इसका जवाब खोजने की जितनी कोशिश करेंगे उतने ही ज्यादा सवाल आपके सामने मुंह बाए खड़े हो जाएंगे। हॉकी में आजादी से पहले करीब डेढ़ दशक और आजादी के बाद 1980 के मास्को ओलंपिक में आठवीं और आखिरी बार स्वर्ण पदक जीतने को मानें तो भी भारत तीन दशक तक और छाया रहा। तो फिर शिखर से क्यों फिसली हॉकी? बेशक घास से यूरोपीय मुल्कों खासकर नीदरलैंड, जर्मनी और ब्रिटेन की घास पर भारत और विभाजन के बाद पाकिस्तान के रूप में बने नए मुल्क से पार न पाने की काट यूरोपीय मुल्कों ने एस्ट्रो टर्फ के रूप में खोजी और अपने लिए हॉकी का नया बाजार भी खोजा।

भारतीय हॉकी के अर्श से फर्श पर आने का यह एक कारण जरूर था लेकिन इकलौता कारण कतई नहीं था। सच तो यह है कि यूरोपीय देशों ने एक नियोजित साजिश की तहत ही एशियाई और कलात्मक हॉकी के वर्चस्व को खत्म करने के लिए एक तय मुहिम के तहत ही घास की बजाय एस्ट्रो टर्फ पर हॉकी कराने का कामयाब षडयंत्र पूरा किया। घास के मैदान पर गेंद को हॉकी के मैदान पर आगे ले जाने की जिस तकनीक की जरूरत होती थी वह मजबूत कद काठी और यूरोपीय खिलाड़ियों में नहीं थी। सच तो यह कलात्मक हॉकी के लिए कलाई में जिस लोच की जरूरत होती थी वह यूरोपीय खिलाड़ियों के पास कभी थी ही नहीं। ध्यानचंद, रूप सिंह, दादा किशन लाल, कुंवर दिग्विजय सिंह बाबू, बलबीर सिंह दोसांज (सी) , लेसली क्लाउडियस सरीखे हॉकी के बेहतरीन कलाकारों के रहते ही भारत ने ओलंपिक हॉकी में अपनी डंका बजाया। भारत की पुरुष हॉकी टीम दुनिया की इकलौती ऐसी टीम है जिस एक नहीं ओलंपिक हॉकी में आठ स्वर्ण पदक जीतने का गौरव हासिल है। भारत का यह शानदार स्वर्णिम इतिहास आज भी उसकी नई पीढ़ी के लिए हॉकी को वापस उसके सुनहरे दौर में ले जाने की प्रेरणा साबित हो सकता है। भारत की कलात्मक हॉकी से निबटने के लिए यूरोपीय देशों ने एस्ट्रो टर्फ को अपना कारगर हथियार बनाया। यूरोपीय देशों ने यह प्रचार किया कि एस्ट्रो टर्फ हॉकी हर मौसम में खेली जा सकती है। इन देशों का यह तर्क था कि यूरोप में जहां में छह माह ज्यादा मौसम नम रहता है और बारिश भी काफी होती है उसके लिए एस्ट्रो टर्फ ही सर्वश्रेष्ठ है।

भारत को आजाद हुए अब 77 बरस हो गए हैं ओर यह एक सुखद संयोग है कि भारतीय हॉकी आज से ठीक एक हफ्ते बाद यानी 7 नवंबर को अपने सौ बरस पूरे कर रही है। तत्कालीन भारतीय हॉकी संघ (आईएचएफ) का गठन 7 नवंबर, 1925 को ग्वालियर में हुआ था। अब दिलीप तिर्की हॉकी इंडिया के अध्यक्ष हैं। एक दिलचस्प बात यह है कि 1936 में अपनी कप्तानी में बर्लिन ओलंपिक में भारत को अपनी कप्तानी में स्वर्ण पदक जिताने वाले ध्यान चंद की तरह अगले लगातार तीन ओलंपिक में भारत को स्वर्ण पदक जिताने वाले दादा किशन लाल, केडी सिंह बाबू और बलबीर सिंह दोसांज , लियो पिंटो , बालकिशन सिह, झमन लाल शर्मा, , वासुदेवन भास्करन, हरमीक सिंह, अजित पाल सिह, अशोक दीवान, महाराज कृष्ण कौशिक, जफर इकबाल, परगट सिह , जगबीर सिह, राजिंदर सिंह सीनियर जैसे हॉकी ओलंपियनो के साथ देश के लिए अंतर्राष्ट्रीय हॉकी खेलने वाले सेड्रिक डिसूजा और हरेन्द्र सिंह ने ही भारत के हॉकी कोच की जिम्मेदारी संभाली।

भारत में हॉकी को दोनों पूर्व दिवंगत पुलिस आईजी अश्विनी कुमार और केपीएल गिल ने अपने पुलिस के दबंग अंदाज मे चलाया। ऐसे मे अपने मनचाहे पूर्व ओलंपियनों और पूर्व भारतीय हॉकी खिलाड़ियों को भारतीय हॉकी टीम का कोच बनाया। भारतीय हॉकी टीम के कोच नियुक्त करने में इसके अध्यक्ष रहे एमएएम रामस्वामी का अंदाज भी दबंग रहा। भारतीय हॉकी को आगे ले जाने के लिए जिस दूरदर्शिता और भारतीय हॉकी को नए जमाने के साथ कदम ताल करने के लिए इसमें स्पोटर्स साइंस यानी खेल विज्ञान की अहमियत की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। अश्विनी कुमार जी के आईएचएफ का अध्यक्ष रहते उनके चहेते पूर्व हॉकी ओलंपियन भारत के कोच बने। सभी पूर्व ओलंपियन भले ही अपने समय के दिग्गज खिलाड़ी रहे लेकिन इनमें से ज्यादातर के बतौर कोच खासतौर पर एस्ट्रो टर्फ पर हॉकी खेलने के लिए नए जमाने की हॉकी के लिए कदमताल करने के लिए जिस तरह की सपोटर्स साइंस से उन्हें वाकिफ रहना इससे उनका दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं रहा।

मुल्क के आजाद होने के बाद करिश्माई स्ट्राइकर रहे दादा किशन लाल की कप्तानी में लंदन में 1948, कुंअर दिग्विजय ( केडी सिंह) बाबू की कप्तानी में 1952 में हेलसिंकी और 1952 में बलबीर सिंह (सी) दोसांज की कप्तानी में मेलबर्न लगातार तीन बार ओलंपिक में भारत ने स्वर्ण जीत कुल लगातार छह बार ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने का ऐसा रिकॉर्ड बनाया जिस पर आज भी हर भारतीय आज भी गर्व महसूस करता है। भारत 1964 ओलंपिक में लेसली क्लाडियस की कप्तानी मे रोम में पाकिस्तान से फाइनल में पहली बार 0-1 से हारा और उसे रजत पदक पर संतोष करना पड़ा।

भारतीय हॉकी को स्पोटर्स साइंस यानी खेल विज्ञान की अहमियत और जरूरत 1976 के मांट्रियल ओलंपिक से इसे एस्ट्रो टर्फ पर खिलाए जाने पर शिद्दत से महसूस जरूर हुई। ब्रिगेडियर (डॉ.) बिभु कल्याण नायक नेशनल सेंटर फॉर स्पोटर्स साइंस एंड रिसर्च (एनसीएसएसआर) के निदेशक के रूप मे मार्च, 2023 में संभालने और इससे पहले सफदरजंग अस्पताल में स्पोटर्स इंजुरी सेंटर में स्पोटर्स और इससे जुड़ी प्रतिनियुक्ति पर रहे। डॉ नायक 2012 में लंदन ओलंपिक से भारतीय हॉकी टीम के साथ बराबर जुड़े रहे। बीते करीब एक दशक से ज्यादा में डॉ नायक ने भारतीय हॉकी टीम के कोच के साथ खिलाड़ियों की चोटों उन्हें उससे उबरने में अहम भूमिका निभाई। आज खासतौर पर एस्ट्रो टर्फ पर भारतीय हॉकी कोचों को डॉ नायक जैसे खेल से जुड़ी चोटों से उबरने में निपटने के लिए तालमेल बनाने की जरूरत है। एस्ट्रो टर्फ के आने के बाद इस पर खिलाड़ियों की फिटनेस, रिकवरी, पेशेवर व वैज्ञानिक सोच के लिए स्पोटर्स साइंस की भूमिका मॉडर्न हॉकी में बेहद अहम हो गई है। इसके लिए डॉ. नायक जैसे स्पोटर्स साइंस के माहिरों के साथ हॉकी कोचों का तालमेल जरूरी हो गया है। बेशक मोबाइल नए जमाने में संवाद के साथ खिलाड़ियों को एक दूसरे और परिवार से जोड़ने में बेहद जरूरी है। बदकिस्मती से मोबाइल के उपयोग की जगह दुरुपयोग ज्यादा हो रहा है। हॉकी में रोलिंग सब्सिटयूट का नियम भी खासतौर पर भारत जैसे गर्म देश मे एस्ट्रो टर्फ पर खेलने के लिए अपनी ताकत बचाए रखने के लिए बना है। दरअसल भारतीय हॉकी टीम के हॉकी उस्तादों को अपनी टीमों के खिलाड़ियों को फिट ही नहीं मैच फिट रखने के लिए डा नायक जैसे स्पोटर्स साइंस के माहिरों के साथ बैठ कर पूरा चार्ट बनाना चाहिए। जरूरत भारतीय हॉकी कोचों को खिलाड़ियों के साथ बैठ कर बेहतर संवाद की है। दरअसल खिलाड़ियों को मैदान पर उतर शिद्दत से ट्रेनिंग के साथ पर्याप्त आराम भी जरूरी है। अफसोस आज के हमारे पुरुष खिलाड़ी या महिला खिलाड़ी मोबाइल में इतने व्यस्त रहते हैं कि सुबह भागते दौड़ते कई बार मैदान पर पहुंचते और इसीलिए उन्हें मैदान पर अक्सर मांसपेशी में खिंचाव से जूझना पड़ जाता है।

भारतीय महिला हॉकी टीम की यात्रा खासी संघर्षपूर्ण रही। भारतीय महिला हॉकी टीम अपने वजूद के लिए बराबर जूझती ही रही। भारतीय महिला हॉकी ने 1982 में नई दिल्ली में हुए एशियाई खेलों में पहली बार स्वर्ण पदक जीता। भारतीय महिला हॉकी टीम 1980 पहली मास्को ओलंपिक में शिरकत कर चौथा स्थान पाया और इसके 36 बरस बाद में 36 बरस बाद2016 में रिया ओलंपिक के लिए क्वॉलिफाई किया और चार बाद 2020 में टोक्यो ओलंपिक में स्ट्राइकर वंदना कटारिया के शानदार खेल सेरानी रामपाल की कप्तानी में ब्रिटेन से फाइनल में हार कर कांसा जीतने से चूक गई।