पूर्वोत्तर जीत कर भाजपा ने नए वर्ष में शुरू कर दी विजय यात्रा

सुशील दीक्षित विचित्र

त्रिपुरा में भाजपा की वापसी , नागालैंड में भाजपा को प्रचंड बहुमत और मेघालय में पहले से थोड़ा बेहतर प्रदर्शन ने भाजपा के आत्मविश्वास को और बढ़ा दिया है जबकि कांग्रेस को तीनों राज्यों में भारी झटका लगा है । नागालैंड में तो वह हासिये से भी बाहर हो कर एक तरह से बजूद ही खो बैठी । पता नहीं कांग्रेस इस पर मंथन करेगी या नहीं लेकिन पूर्वोत्तर भारत से उसका बाहर होना चिंताजनक है । यह परिणाम 2024 के लोकसभा चुनाव का सेमी या क्वार्टर फाइनल हैं यह कहना अभी जल्दबाजी होगा लेकिन यह कहा जा सकता है कि तीन राज्यों में भाजपा गठबंधन की जीत यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि भाजपा का विजय रथ रोकने की विपक्षी कोशिशें फिर धराशायी हो गयीं ।

पहले उस मेघालय की बात करे जहाँ कि जनता ने किसी एक दल को बहुमत नहीं दिया । यहाँ 60 सीटें हैं लेकिन चुनाव 59 पर हुआ । कॉनराड कोंगकल संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी 59 में से 26 सीटें पा कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है । उसकी सत्ता में सहयोगी रही भाजपा फिर दो सीटों पर सिमट गयी । हालांकि 2018 में एनपीपी और भाजपा ने मिल कर सरकार बनायी थी लेकिन इस बार दोनों दलों ने अलग अलग चुनाव लड़ा । भाजपा ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे जिनमें से 57 हार गए । यह करारी हार हैं लेकिन इससे भाजपा की सेहत पर कोई फर्क इसलिए नहीं पड़ने वाला कि उसके विधायक यदि बढे भी नहीं तो घटे भी नहीं । एनपीपी को अलग चुनाव लड़ने से जरूर लाभ हुआ । वह पहले की अपेक्षा 6 सीटें अधिक जीत कर 26 पर पहुंच गयी । सबसे खराब हालत कांग्रेस के रहे । उसे सोलह सीटों का नुक्सान हुआ । पिछली बार 2018 में वह 21 सीटें ला कर पहले नंबर पर थी लेकिन इस बार पांच पर सिमट गयी । फायदा टीएमसी को हुआ जो जीरो से पांच पर पहुँच गयी । अन्य बीस सीटों पर काबिज हो गए ।

यद्यपि चुनाव परिणाम हंग असेंबली के हैं लेकिन एनपीपी भाजपा से समर्थन ले कर पिछली बार की तरह फिर सरकार बना रहे है । इसके लिए संगमा ने फिर भाजपा से सहयोग की कोशिश शुरू कर दी है । दोनों पुराने सहयोगी हैं इसलिए बड़ी समस्या तभी खड़ी हो सकती है जब कांग्रेस अपनी इस हार को जीत में बदलने के लिए अन्य दलों को मिला कर सरकार बनाने की कोशिश करे । वैसी कोशिश जैसी कर्नाटक और महाराष्ट्र में वह पहले ही कर चुकी है । हालांकि कांग्रेस इस स्थिति में है नहीं लेकिन राजनीति में कब कौन दल क्या अनहोनी कर बैठे यह महाराष्ट्र की घटना के बाद कहना आसान नहीं रह गया है । जहां कांग्रस और एनसीपी ने विपरीत विचारधारा वाली शिवसेना को समर्थन दे कर सरकार बना ली थी ।

नागालैंड में भाजपा ने नेशनल डेमोक्रेटिव पार्टी और भाजपा ने मिल कर चुनाव लड़ा था । एनडीपीएफ ने यहां 40 और भाजपा ने 20 सीटों पर भाग्य आजमाया था । गठबंधन को 37 सीटों पर जीत हासिल हुई । क्षेत्रीय दलों समेत अन्य ने बची 22 सीटों पर कब्जा जमा लिया । कांग्रेस ने 23 सीटों पर प्रत्याशी उतरे थे । ये सभी हार गए । कांग्रेस एक और राज्य की राजनीति से बाहर हो गयी । यहां रामदास अठावले की रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया ने बिना मांगे ही राजग गठबंधन को अपना समर्थन दे दिया है जिससे उनकी संख्या बढ़ आकर 39 हो गयी । 2018 के चुनाव में गठबंधन के विधायकों की संख्या 29 थी ।

त्रिपुरा में भाजपा ने सत्ता में वापसी की है । उसने 60 मे से 33 सीटें जीतीं । हालांकि यह 2018 की अपेक्षा ग्यारह कम हैं लेकिन बहुमत के आंकड़े के लिए पर्याप्त हैं । समझा जा रहा था कि प्रद्योत किशोर देब बर्मा की नवगठित टिकरा मोथा पार्टी भाजपा की राह मुश्किल कर सकती है । भाजपा को जो ग्यारह सीटों का घाटा हुआ वह भी टिकरा मोथा पार्टी के कारण हुआ । टीएमपी ने 13 सीटें हासिल की जिनमें से ग्यारह भाजपा और दो वाम- कांग्रेस गठबंधन की है । भाजपा तो खुद को किसी तरह बचा ले गयी लेकिन कांग्रेस वाम गठबंधन की हवा निकल गयी । ख़ास कर कांग्रेस को भारी घाटा हुआ । उसके कुल तीन विधायक ही चुनाव जीत पाए । गठबंधन को कुल चौदह सीटें मिलीं जो 2018 से दो कम हैं ।

पूर्वोत्तर के तीनों राज्यों के चुनाव परिणामों में कांग्रेस को भारी झटका लगा है । उसका इतना दयनीय प्रदर्शन रहा कि क्षेत्रीय दल भी उससे आगे निकल गए । राष्ट्रीय पार्टी होते हुए भी उसने कोई करिश्मा नहीं दिखा पाया । यदि पार्टी अध्यक्ष खड़गे की बात पर गौर किया जाए तो उनके खाते में चार चुनावी हार के बाद भी वे और उनकी पार्टी न कोई सबक ले रही है और न ही सबक लेने को तैयार है । खड़गे का तीनों राज्यों की हार पर दलील है कि यह छोटे राज्य हैं , इनमें जीत से कुछ नहीं होता है । यह दलील यह भी स्पष्ट करती है कि पूर्वोत्तर में धीरे धीरे कांग्रेस गायब होती जा रही है जो कि न पार्टी अध्यक्ष के लिए चिंता का विषय है और न पार्टी के हाई कमान के लिए । इसके विपरीत एक भी सीट हारने पर भाजपा नेतृत्व हार के कारणों की तलाश में जुट जाता है क्यूंकि वह हर चुनाव को गंभीरता से लेते हैं और हर चुनाव जीतने के लिए लड़ते हैं ।

जैसा पहले कहा है कि इन चुनाव परिणामों को 2024 के लोकसभा चुनावों का सेमी फाइनल बताना जल्दबाजी होगा । विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनावों के मुद्दों में फर्क होता है । लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं और विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय मुद्दे हावी रहते हैं । यह भी कहना ठीक नहीं होगा कि इससे जनता के मूड का पता चलता है । तीन राज्यों की जीत हार को पूरे देश की जनता के मूड से नहीं जोड़ा जा सकता । इन चुनावों को यदि कोई सेमीफाइनल बताता है तो अभी आगे इसी वर्ष छह राज्यों में जो चुनाव होने वाले हैं उनको क्या माना जाएगा ? यह सवाल इसलिए भी कि इन छह राज्यों में राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे राज्य शामिल हैं जो पूर्वोत्तर के उक्त तीनों राज्यों से बहुत बड़े हैं । इतने बड़े हैं कि इनमें वैसे एक ही चरण में चुनाव नहीं कराये जा सकते जैसे अभी पूर्वोत्तर राज्यों में हुए हैं ।

फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि वर्ष 2023 की पहली तिमाही में ही तीन जीत हासिल कर के भाजपा ने विजय यात्रा शुरू कर दी है । उसके नेताओं ने आगामी विधानसभा चुनावों की तैयारी भी शुरू करदी है । यह चुनाव राजस्थान , मध्यप्रदेश , तेलंगाना , तमिलनाडु , छत्तीस गढ़ और मिजोरम में होने हैं । दिसंबर के अंत तक चुनावी सिलसिला जारी रहेगा । इसके बाद भले ही कहा जा सकता है कि यह सेमीफाइनल हुए क्यूंकि अगले साल के पहले दो या तीन महीने में ही लोकसभा चुनाव होंगे। फिलहाल इन चुनावों में जिसका प्रबंधन अच्छा और नीतियां आकर्षक होगी वही दल जीत हासिल करेगा । भाजपा को प्रबंधन और अपनी बात को सम्प्रेषित करने में जहां महारत हासिल है वहीँ कांग्रेस इस मामले में भाजपा से कोसों दूर है । यह फर्क आगे भी कांग्रेस के अच्छे भविष्य की संभावनाओं पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है ।