ललित गर्ग
यह बड़ा सत्य है कि स्वार्थी एवं संकीर्ण समाज कभी सुखी नहीं बन सकता। इसलिए दूसरों का हित चिंतन करना भी आवश्यक होता है और उदार दृष्टिकोण भी जरूरी है। इसके लिए चेतना को बहुत उन्नत बनाना होता है। अपने हित के लिए तो चेतना स्वतः जागरूक बन जाती है, किन्तु दूसरों के हित चिंतन के लिए चेतना को उन्नत और प्रशस्त बनाना पड़ता है। लेकिन ऐसा नहीं होता। इसका कारण है मनुष्य की स्वार्थ चेतना। स्वार्थ की भावना बड़ी तीव्र गति से संक्रान्त होती है और जब संक्रान्त होती है तो समाज में भ्रष्टाचार, गैरजिम्मेदारी एवं लापरवाही बढ़ती है। हर व्यक्ति को आगे बढ़ने का अधिकार है। संसार में किसी के लिए भेदभाव नहीं है। जिस प्रगति में सहजता होती है, उसका परिणाम सुखद होता है। किसी को गिराकर या काटकर आगे बढ़ने का विचार कभी सुखद नहीं होता, काटने का प्रयास करने वाला स्वयं कट जाता है।
प्रगतिशील समाज के लिये प्रतिस्पर्धा अच्छी बात है, लेकिन जब प्रतिस्पर्धा के साथ ईर्ष्या जुड़ जाती है तो वह अनर्थ का कारण बन जाती है। संस्कृत कोश में भी ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा में थोड़ा भेद किया गया है, पर वर्तमान जीवन में प्रतिस्पर्धा ईर्ष्या का पर्यायवाची बन गई है। उसके पीछे विभिन्न भाषाओं में होने वाला गलाकाट विशेषण का प्रयोग इसी तथ्य की ओर संकेत करता है।
ईर्ष्यालु मनुष्य में सुख का भाव दुर्बल होता है। उसकी इस वृत्ति के कारण वह निरंतर मानसिक तनाव में जीता है। उसके संकीर्ण विचार और व्यवहार से पारिवारिक और सामाजिक जीवन में टकराव और बिखराव की समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। आचार्य श्री तुलसी ने ईर्ष्या को असाध्य मानसिक व्याधि के रूप में प्ररूपित किया है, जिसका किसी भी मंत्र-तंत्र, जड़ी-बूटी व औषधि से चिकित्सा संभव नहीं है। ईर्ष्यालु मनुष्य स्वयं तो जलता ही है, दूसरों को जलाने का प्रयास भी करता है।
स्वामी रामतीर्थ ने ब्लैकबोर्ड पर एक लकीर खींची तथा कक्षा में उपस्थित छात्रों से बिना स्पर्श किए उसे छोटी करने का निर्देश दिया अधिकतर विद्यार्थी उस निर्देश का मर्म नहीं समझ सके। एक विद्यार्थी की बुद्धि प्रखर थी। उसने तत्काल खड़े होकर उस लकीर के पास एक बड़ी लकीर खींच दी। स्वामी रामतीर्थ बहुत प्रसन्न हुए। उनके प्रश्न का सही समाधान हो गया। दूसरी लकीर अपने आप छोटी हो गई। उन्होंने उस विद्यार्थी की पीठ थपथपायी और उसे आशीर्वाद दिया। रहस्य समझाते हुए उन्होंने कहा-अपनी योग्यता और सकारात्मक सोच से विकास करते हुए बड़ा बनना चाहिए। किसी को काटकर आगे बढ़ने का विचार अनुचित और घातक है।कभी हम अवसरों का इंतजार कर रहे होते हैं तो कभी नतीजों का। ये इंतजार जितना लंबा होता है, बेचैनी उतनी बढ़ती जाती है। पर यहीं जरूरत होती है, चलते रहने की, काम करने की, और नया सीखने की। कवि युआन वूल्फंग वॉन गोइठा कहते हैं कि मायने इस बात के नहीं हैं कि लक्ष्य हासिल करके हमें क्या मिला? मायने इस बात के हैं कि हम उन्हें हासिल करने की प्रक्रिया में क्या बन गए हैं?
हम अपने मन की कम जीते हैं, दूसरों की परवाह ज्यादा करते हैं। यही वजह है कि हम अकसर नाखुश दिखते हैं। तो क्या करें? कहा जाता है कि हमेशा अच्छे मकसद के लिए काम करें, तारीफ पाने के लिए नहीं। खुद को जाहिर करने के लिए जिएं, दूसरों को खुश करने के लिए नहीं। ये कोशिश ना करें कि लोग आपके होने को महसूस करें। काम यूं करें कि लोग तब याद करें, जब आप उनके बीच में ना हों।
जब जिंदगी सही चल रही होती है तो हर चीज आसान लगती है। वहीं थोड़ी सी गड़बड़ होने पर हर चीज कठिन। या तो सब सही या सब गलत। संतुलन बनाना हमारे लिए मुश्किल होता है। लेखक जेम्स बराज कहते हैं, ‘आज में जिएं। याद रखें कि वक्त कैसा भी हो, बीत जाता है। अपनी खुशी और गम दोनों में खुद पर काबू रखें।’
तरक्की की यात्रा अकेले नहीं हो सकती। जरूरी है कि आप अपने साथ दूसरों को भी आगे ले जाएं। उनके जीवन पर अच्छा असर डालें। इसके लिए बहुत कुछ करने की जरूरत नहीं होती। कितनी ही बार आपकी एक हंसी, एक हामी, छोटी सी मदद दूसरे का दिन अच्छा बना देती है। अमेरिकी लेखिका माया एंजेलो कहती हैं,‘जब हम खुशी से देते हैं और प्रसाद की तरह लेते हैं तो सब कुछ वरदान ही है ।’ सामुदायिक चेतना और सकारात्मकता का विकास हो, सबका प्रशस्त चिंतन हो, स्वयं और समाज के संदर्भ में तब कहीं जाकर समाज का वास्तविक विकास होता है। आज राष्ट्र का और पूरे विश्व का निरीक्षण करें, स्थिति पर दृष्टिपात करें तो साफ पता चल जाएगा कि लोगों में स्वार्थ की भावना बलवती हो रही है। लेकिन मनुष्य की मनोवृत्ति है कि वह ईष्यालु होता है।
आपके अपने जब आपसे ज्यादा तरक्की करने लगते हैं, जिंदगी में आगे बढा़ रहे होते हैं तो आप अच्छा महसूस नहीं करते हैं और ये कसक होती है कि ऐसा हमारे साथ क्यों नहीं हुआ? कैसे इस ईर्ष्या को कम करें, थ्री इडियट फिल्म का एक लोकप्रिय संवाद था, अगर आपका दोस्त फेल होता है तो आपको बुरा लगता है, पर वही दोस्त अगर फर्स्ट आता है तो और भी बुरा लगता है।
मानव व्यवहार के इस आयाम पर मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. दीपाली एस कहती हैं, ‘जो आपके बहुत निकट होते हैं, उनका दुख चोट पहुंचाता है। अगर परिवार का कोई सदस्य या दोस्त मुसीबत में हो तो आप तुरंत उसकी मदद को पहुंच जाते हैं। पर जब वह तरक्की करता है, आपसे ज्यादा कमाने लगता है तो अधिकांश लोगों की सोच बदलने लगती है। यह एक मानवीय गुण है कि हम हमेशा अपने आपको दूसरों से आगे देखना चाहते हैं। चाहते हैं कि आसपास सबसे अधिक इज्जत हमारी हो। हमारे दिमाग में यह बात घर कर गई है कि जो ज्यादा कमाता है, अच्छी जीवनशैली जीता है, परीक्षा में अव्वल आता है, वो सफल है। जबकि हमें जिंदगी की सफलता दूसरी बातों में ढूंढ़नी चाहिए।’
जिंदगी के इस फलसफे के बारे में प्रसिद्ध चिंतक एलेक्स टर्नबुली कुछ इस तरह से कहते हैं, ‘मैं कुछ सालों पहले तक हर उस व्यक्ति को अपना दुश्मन मानता था, जो मुझसे अधिक सफल था। मैंने इस चिंता में बहुत कुछ गंवा डाला। हर वक्त दिमाग में यही झंझावात चलता कि किस तरह मैं दूसरों से आगे निकल सकूं। इस दौड़ ने मुझे कहीं का नहीं रखा। मेरे साथ ना दोस्त रहे ना परिवार वाले। फिर एक दिन यह समझ में आया कि अपना सबसे बड़ा दुश्मन तो मैं खुद हूं। उस दिन से पाया कि मेरे रिश्ते दूसरों से सुधरने लगे हैं। मैंने अपनी चिंता करनी छोड़ दी। इससे मेरा ध्यान दूसरे क्या करते हैं, इससे भी हट गया।’
ईर्ष्या एक बहुत मानवगत भाव है। अमेरिकी मोटिवेशनल स्पीकर डॉ. अल्बा रूपर्ड कहते हैं, ‘अगर आप किसी से या किसी बात पर ईर्ष्या करते हैं तो यह कतई नहीं है कि आप खलनायक हो जाते हैं। पर यह समझना जरूरी है कि इस भाव को दूर कैसे रखा जाए।’