गांधी और सिंधिया परिवार कैसे बन गए एक दूसरे के सियासी दुश्मन

संदीप ठाकुर

देश की सियासत रिश्तों के बदलते रंगों की कथा कहानी से भरी पड़ी है। कभी
दोस्ती तो कभी दुश्मनी। दोस्ती दुश्मनी की फेहरिस्त में नेहरू गांधी और
सिंधिया परिवार का नाम सबसे ऊपर है। एक समय दाेनाें परिवार में घनिष्ठ
मित्रता थी। आज दाेनाें के बीच शत्रुता है। आखिर ऐसा क्या हुआ कि
पारिवारिक दोस्ती दुश्मनी में बदल गई। इन दोनों परिवारों ने रिश्तों के
हर रंग देखे हैं। एक बयान के बाद इन दिनों इनके रिश्ते फिर चर्चा में
हैं। अब ये एक-दूसरे को गद्दार तक कहने से गुरेज नहीं कर रहे। दरअसल
मानहानि के एक मामले में कोर्ट से सजा होने के बाद राहुल को सांसद पद से
हाथ धोना पड़ा। कांग्रेस पार्टी ने देशभर में इसके खिलाफ विरोध-प्रदर्शन
किए तब ज्योतिरादित्य ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर उन्हें स्वार्थी राजनीतिज्ञ
कहा। इतना ही नहीं, उन्होंने कांग्रेस को गद्दारों की पार्टी तक कह दिया।
आखिर ऐसा क्या हाे गया ?

राजनीतिक समीकरण समझने से पहले दाेनाें परिवारों के बीच के केमिस्ट्री
पर एक नजर डालते हैं।
1957 के आमसभा चुनाव से पहले इंदिरा गांधी के पिता और तत्कालीन
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में कांग्रेस को
मजबूत बनाने के लिए सिंधिया परिवार को राजनीति में एंट्री का ऑफर दिया।
मौजूदा केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के दादा और विजयाराजे
सिंधिया के पति की राजनीति में कोई रुचि नहीं थी। उन्होंने कांग्रेस के
टिकट पर चुनाव लड़ने से मना कर दिया तो नेहरू के बुलावे पर विजयाराजे
उनसे मिलने दिल्ली आईं। दिल्ली में उनकी मुलाकात इंदिरा गांधी से हुई।
बताया जाता है कि इंदिरा ने विजयाराजे को कांग्रेस के टिकट पर चुनाव
लड़ने को मजबूर कर दिया। 1957 में पहला चुनाव विजयाराजे ने कांग्रेस के
टिकट पर लड़ा और जीतीं भी। इंदिरा गांधी से अनबन के कारण वे ज्यादा दिन
पार्टी में रह नहीं पाईं। 1962 के लोकसभा चुनाव से पहले वह जनसंघ के साथ
जुड़ गईं। उन्होंने चंबल इलाके में जनसंघ को मजबूती देने में सबसे भूमिका
निभाई। इसके चलते इंदिरा के साथ उनके संबंधों में कटुता बढ़ गई। 1975 में
इंदिरा ने आपातकाल लागू किया तो विजयाराजे इसका विरोध करने वालों में
सबसे आगे थीं। इंदिरा ने भी अपनी ओर से बदला लेने में कोई कसर नहीं
छोड़ी। उन्होंने विजयाराजे को दिल्ली के तिहाड़ जेल में बंद करवा दिया ।
इस दौरान सिंधिया के महल ग्वालियर पैलेस में सरकारी एजेंसियों ने छापा भी
मारा और कई मुकदमे परिवार पर लाद दिए गए। काफी मशक्कत के बाद विजयाराजे
जेल से रिहा हुईं, लेकिन इस अघोषित शर्त के साथ कि वे राजनीति से दूर
रहेंगी। विजयाराजे इससे इतनी आहत हुईं कि वे 1980 में इंदिरा के खिलाफ ही
चुनावी मैदान में कूद पड़ी लेकिन बुरी तरह से हारीं ।

ये ताे था विजयाराजे और इंदिरा के बीच के रिश्ते की कहानी। लेकिन इसके
ठीक उलट थे माधवराव सिंधिया और राजीव गांधी के रिश्ते। माधवराव ने 1971
में पहला चुनाव जनसंघ के टिकट पर लड़ा था, लेकिन ज्यादा दिन तक वे पार्टी
में रह नहीं पाए। अपनी मां के साथ भी उनके संबंध ठीक नहीं रहे और वे
जल्दी ही कांग्रेस में शामिल हो गए। आपातकाल के दौरान जब विजयाराजे
तिहाड़ में कैद थीं, माधवराव नेपाल में अपनी ससुराल में आराम से समय
गुजार रहे थे। 1984 में इंदिरा की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री
बने और माधवराव उनके सबसे विश्वस्त सलाहकारों में शामिल हो गए। राजीव और
माधवराव एक साथ दून स्कूल में पढ़े थे और दोनों को विमान उड़ाने का शौक
था। राजीव के कहने पर ही 1984 के चुनाव में माधवराव ग्वालियर से अटल
बिहारी वाजपेयी के खिलाफ लड़े और उन्हें हराया। यह दोस्ती ऐसी थी कि अपनी
मां इंदिरा गांधी के मना करने के बावजूद राजीव ने माधवराव को अपनी
कैबिनेट में मंत्री बनाया था। राजीव उन्हें मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री
भी बनाना चाहते थे, लेकिन यह संभव नहीं हो पाया। 1989 के लोकसभा चुनाव
में कांग्रेस की हार के बाद राजीव को प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा, लेकिन
माधवराव ने उनका साथ नहीं छोड़ा। इन दोनों की दोस्ती राजनीति से ज्यादा
पारिवारिक थी। इसका उदाहरण 1991 में राजीव गांधी की हत्या के ठीक बाद
देखने को मिला। गांधी परिवार पर आए इस संकट के दौर में माधवराव हर समय
सोनिया गांधी और उनके बच्चों के साथ खड़े नजर आए। इसके दस साल बाद
माधवराव सिंधिया भी एक विमान हादसे में भगवान काे प्यारे हाे गए।

माधवराव सिंधिया की मौत के बाद उनके बेटे ज्योतिरादित्य ने उनकी राजनीतिक
विरासत संभाली तो उन्होंने भी पिता की तरह कांग्रेस को चुना। सितंबर,
2001 में कांग्रेस की सदस्यता लेने के बाद उन्होंने अपने पिता की गुना
सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा और पहली बार सांसद बने। इसके तीन साल बाद राहुल
गांधी की राजनीति में एंट्री हुई, लेकिन ज्योतिरादित्य इससे पहले से ही
उनके दोस्त थे। दोनों दून स्कूल में एक साथ पढ़े थे। राहुल कांग्रेस के
अध्यक्ष बने तो ज्योतिरादित्य उनकी कोर टीम का हिस्सा बन गए। कांग्रेस
अध्यक्ष बनने के ठीक बाद राहुल ने पार्टी में नए चेहरों को आगे लाने का
खाका तैयार किया था। ज्योतिरादित्य उनकी इस यूथ ब्रिगेड का सबसे चमकदार
चेहरा थे। 2018 के विधानसभा चुनावों के बाद राहुल उन्हें मध्य प्रदेश का
मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन यह संभव नहीं हो पाया। इसके बाद भी
राहुल ने उन्हें पार्टी में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां देकर यह स्पष्ट कर
दिया कि ज्योतिरादित्य उनके विश्वासपात्रों में शामिल हैं। उनकी दोस्ती
ऐसी थी कि प्रियंका गांधी, राहुल की तरह ज्योतिरादित्य को भी अपने भाई
जैसा मानती थीं। कई बार जब ज्योतिरादित्य किसी मुद्दे पर राहुल से सहमत
नहीं होते तब प्रियंका बड़ी बहन की भूमिका में आ जाती और दोनों की सहमति
बनाने का रास्ता तैयार करती थीं। शायद यह इमोशनल बॉन्डिंग ही 2020 में
ज्योतिरादित्य के कांग्रेस छोड़ने का कारण भी बनी।

हालांकि, इसके बाद भी दोनों एक-दूसरे पर सीधा हमला करने से बचते रहे,
लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। मानहानि के एक मामले में कोर्ट से सजा होने
के बाद राहुल को सांसद पद से हाथ धोना पड़ा। कांग्रेस पार्टी ने देशभर
में इसके खिलाफ विरोध-प्रदर्शन किए तब ज्योतिरादित्य ने प्रेस कॉन्फ्रेंस
कर उन्हें स्वार्थी राजनीतिज्ञ कहा। इतना ही नहीं, उन्होंने कांग्रेस को
गद्दारों की पार्टी कह दिया। राहुल ने खुद तो कुछ नहीं कहा, लेकिन एक
ट्वीट में उन्होंने अडाणी के साथ ज्योतिरादित्य का नाम भी जोड़ दिया।इतना
तो स्पष्ट है कि ज्योतिरादित्य के सियासी रास्ते उनके पिता से अलग हो
चुके हैं। वे अब बीजेपी का हिस्सा हैं जिसका लक्ष्य कांग्रेस मुक्त भारत
है। इस रास्ते पर आगे बढ़ते हुए राहुल के साथ उनकी दोस्ती दोबारा होगी,
इसकी संभावना बेहद कम है।