नवीन गौतम
चुनावी पिच पर मुद्दे नहीं भावनाओं का खेल चल रहा है। पिछले कुछ समय से लगातार ही चल रहा है। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह कि इस खेल में वह मीडिया भी शामिल हो गया है जिसे लोकतंत्र बचाने और असल मुद्दे सामने लाने के लिए ही लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। मगर अब मुद्दों पर चर्चा नहीं होती भावनाओं पर चर्चा होती है।
मौजूदा परिपेक्ष्य में हम कर्नाटक चुनाव को ही उदाहरण के तौर पर लें तो यहां भावनाओं का खेल खेला जा रहा है। भावनाओं के सहारे समुदायों को सादने की कोशिश हो रही है।
कांग्रेस द्वारा बजरंग दल और पीएफआई पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा भी चुनाव में लोगों की भावनाओं को भुनाने की कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं मानी जा सकती मगर भाजपा यहां कांग्रेस से भी दो हाथ आगे बढ़ गई।
यह भावनाओं का ही तो खेल है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक लोगों की भावनाओं को समझते हुए बजरंग दल को बजरंगबली हनुमान से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, वह अच्छी तरह से समझ रहे हैं हिंदुस्तान की जनता एक बार मुद्दों को भूल सकती है लेकिन भावनाओं के खेल में आसानी से बह जाती है। यह हकीकत है कि बजरंग दल संगठन का गठन भी लोगों की भावनाओं के आधार पर कुछ वर्ष पहले हुआ ही हुआ था लेकिन उससे जुड़े दस्तावेजों में यह कहीं दर्ज नहीं है यह हनुमान का संगठन है, जग जाहिर है कि अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इसे भाजपा के तत्कालीन नेता विनय कटियार ने बनाया था। कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस ने इस पर प्रतिबंध लगाने की बात कही तो भाजपा ने इस संगठन को बजरंगबली से जोड़ दिया। निश्चित तौर पर बजरंगबली के नाम को भुनाने की हर संभव कोशिश भाजपा द्वारा कर्नाटक के चुनाव में होने लगी है । भाजपा के तमाम स्थानीय नेताओं से लेकर प्रधानमंत्री तक बजरंगबली के सहारे कर्नाटक में चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश कर रहे हैं । तमाम नेता जानते हैं कि धर्म के आधार पर वोट मांगना किसी भी तरह से न्याय संगत नहीं है और यह गैरकानूनी है लेकिन भावनाओं का खेल है, नेता को भी साफ लगता है कि चुनावी पिच पर मुद्दे कम भावनाओं के सहारे चुनावी मैच जीता जा सकता है और पिछले कुछ सालों से यह सिलसिला लगातार चल रहा है। मुद्दे निश्चित तौर पर अहम साइड लाइन हो गए हैं। आज लगातार बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी जैसे जनता के मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं होती जबकि हकीकत यही है कि इन्हीं मुद्दों पर सवार हो भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र में सत्ता हासिल की और कई राज्यों में अपना विस्तार किया। भाजपा के सत्ता हासिल करने के बाद महंगाई , बेरोजगारी जैसे जनहित से जुड़े मुद्दों को ध्यान से देखें तो इनका ग्राफ लगातार बढ़ा है। लेकिन अब इन पर चर्चा नहीं होती। भावनाओं के रथ पर सवार हो भाजपा अपने चुनावी रथ को आगे बढ़ा रही है। इसमें भाजपा का भी कसूर नहीं वह राजनीतिक दल है और राजनीतिक दल अपने हिसाब से चलता है , राजनीति करना उनका काम है। मगर भावनाओं को काबू कर मुद्दों को तवज्जो देना है या फिर भावना में बहकर ही अपने मताधिकार का इस्तेमाल करना है इसका निर्णय खुद मतदाताओं को करना होगा। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि मीडिया भी अब भावनाओं के इस खेल में बह चला है इसलिए जनता की नजर में मीडिया का एक बहुत बड़ा वर्ग गोदी मीडिया के नाम से जाने जाने लगा है। मीडिया में अब चर्चा महंगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर नहीं होती। एक वक्त था जब प्याज, टमाटर, दाल, रसोई गैस डीजल, पेट्रोल, दूध के दामों में एक रुपए की भी बढ़ोतरी हो जाया करती थी या कंपनियों में छटनी का दौर चलता था तो यही भाजपा जो विपक्ष में होते थी तो भारत बंद का आह्वान आए दिन क्या करते थे, रेल रोकी जाती थी। प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक पर यही मुद्दे छाए रहते थे लेकिन आज भावनाओं के खेल में यह मुद्दे पीछे छूट गए हैं। महंगाई का ग्राफ चाहे कितना भी बढ़े, बेरोजगारी आसमान छू ले, शायद अब जनता पर भी इन बातों का कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अब वह भी भावनाओं के खेल में शामिल हो गई है।
मौजूदा हालात को देखकर यही लग रहा है कि तरह से कर्नाटक में चुनाव हो रहे हैं उसी तरह की रणनीति इस वर्ष के अंत में होने वाले मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ राजस्थान आदि राज्यों के चुनावों में राजनीतिक दलों द्वारा अपनाई जाएगी और निश्चित तौर पर इसी पिच का इस्तेमाल वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए होगा जिसके लिए धर्म आधारित भावनाएं सत्ताधारी राजनीतिक दल के एजेंडे में टॉप पर होंगी और विपक्ष भी मुख्य मुद्दों से भटक इसी पिच पर खेलने को विवश होगा क्योंकि आज वहां एकता से ज्यादा अहंकार का सवाल है । यही वजह भी है कि भावनाओं के इस खेल में वही राजनीतिक दल सत्ता पर काबिज होगा जो ज्यादा से ज्यादा भावनाओं का खेल खेलने में सफल हो पाएगा, भले ही उसे 37 से 40 परसेंटेज वोट मिले और 60 परसेंट उसके खिलाफ जाएं लेकिन उसके खिलाफ गई 60 परसेंट वोट बिखराव वाली स्थिति में होंगे।
यह भावनाओं को आज ही तो खेल है कि केरल पर बनी फिल्म पर आज कर्नाटक चुनाव चर्चा हो रही है। फिल्म में पहले भी अनेक गंभीर मुद्दों पर बनती आई हैं लेकिन अब चुनाव में फिल्मी चर्चा होने लगी। कश्मीर फाइल्स पर भी चर्चा हुई राजनीतिक दलों ने अपने अपने हिसाब से इसका लाभ लिया, लोगों की भावनाओं से खूब खेला गया। फिल्म बनाने वालों ने भी कमाई की, फिर फिल्म ठंडे बस्ते में चली गई लेकिन जिनके ऊपर फिल्म बनी उन्हीं कश्मीरी पंडितों की हालत आज भी वैसी है। ठीक वैसे ही चर्चा केरल पर बनी फिल्म पर हो रही है लेकिन यह भी उसी तरह से ठंडे बस्ते में जाएगी जैसे कश्मीर फाइल्स गई यानी मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं, उनका कोई समाधान नहीं। मतदान के बाद फिर पर्दा गिर जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)