शिशिर शुक्ला
शाम ढल आई थी। माथे पर चिंता की गहरी लकीरों के साथ चुन्नीलाल अपने आप में ही खोए हुए थे। एक ही बात थी जो चुन्नी को पिछले आठ वर्षों से खाए जा रही थी, और वह थी- बाप बनने की परम सुखदायक अनुभूति का न मिल पाना। ऐसा नहीं था कि चुन्नी नि:संतान थे, लेकिन अब क्या कहा जाए कि चुन्नी के घरपरिवार, समाज एवं खुद चुन्नी की खोपड़ी पर कुछ ऐसा भूत सवार था कि जब तक पुत्ररत्न प्राप्त न हो जाए तब तक पितृत्व साधना को भी पूर्णता को प्राप्त हुआ नहीं माना जाता था। बेचारे चुन्नी बड़े बुजुर्गों से न जाने कितनी बार “पुत्रवान भव” के आशीर्वाद से अभिसिंचित हो चुके थे। और तो और, बुजुर्गों का आशीर्वाद व्यर्थ न जाने पाए, इसलिए उसे सत्य के धरातल पर उतारने के लिए चुन्नी अथक परिश्रम में भी जुटे थे, लेकिन इनकी मेहनत का नतीजा यह था कि चुन्नीलाल पांच बेटियों के पिता बन चुके थे।
अब एक तरफ बेटियों की चिंता और दूसरी ओर “पुत्रवान भव” का दबाव… बेचारे चुन्नीलाल का जीना हराम किए जा रहा था। खैर, देरसवेर ऊपर वाले ने चुन्नी की दशा पर रहम खाया, और यूं कहें कि आखिरी अटेम्प्ट में चुन्नी को पुत्ररत्न के रूप में ‘जूनियर चुन्नी’ का प्रसाद प्रदान किया। चुन्नीलाल के लिए तो यह उपलब्धि मानो ऐसी थी जैसे की आखिरी प्रयास में उन्होंने सिविल सेवा परीक्षा में कलेक्टर का पद पा लिया हो। फिर क्या था, जहां पांच बेटियों के जन्म पर चुन्नी ने किसी को चाय तक नहीं पिलाई थी, आज ‘जूनियर चुन्नी’ के शुभागमन की खुशी में पूरे मोहल्ले में मिठाई बांटी जा रही थी और बेहतरीन दावत हो रही थी। जहां बेटियों के जरा सा रोने और चिल्लाने पर चुन्नीलाल का पारा हाई हो जाता था, वहीं जूनियर चुन्नी तो अगर ऊपर से टॉयलेट भी कर दें, तो भी चुन्नीलाल गर्व से फूले नहीं समाते थे। खैर जो कुछ भी था, चुन्नी को पूर्ण पितृत्व का अनुभव ‘जूनियर चुन्नी’ ने ही कराया था। वक्त बीतने लगा… बेटियों के साथ-साथ जूनियर चुन्नी भी उम्र के पड़ावों को धीरे-धीरे पार करने लगे। बेटियों को लेकर तो चुन्नीलाल का केवल एक ही लक्ष्य था- ग्रेजुएशन कराकर शादी कर देना। वहीं दूसरी तरफ, जूनियर चुन्नी को लेकर कभी डॉक्टर, कभी इंजीनियर, कभी कलेक्टर तो कभी नेता…. और न जाने कितने स्वर्णिम स्वप्न चुन्नीलाल देखते रहते थे। खैर चुन्नी ने जैसा सोचा, वैसा ही हुआ। बीए और एमए कराकर चुन्नी ने बेटियों का विवाह कर दिया और ऐसा महसूस किया, जैसे कि कोई बड़ा भार उन्होंने अपने सर से उतार दिया हो। रही बात जूनियर चुन्नी की तो वो इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके विदेश चले गए नौकरी करने।
चुन्नीलाल अपने सभी मिलने वालों को अपनी छाती क्षमता से ज्यादा चौड़ी करके बताते थे कि मेरा बेटा विदेश में इंजीनियर है। चुन्नीलाल की नजरों में “पुत्रवान भव” का सही मतलब अब जाकर सार्थक हो पाया था। वक्त के साथ-साथ धीरे-धीरे चुन्नी बूढ़े हो चले थे। शरीर में तरह तरह के रोग लगने लगे थे। लेकिन ज्यों ही उनके दिमाग में “पुत्रवान भव” का अनूठा स्वर गुंजायमान होता तो उन्हें बुढ़ापे में भी जवानी का एहसास होने लगता था। किंतु हर चीज की एक सीमा होती है। एक दिन अचानक से चुन्नी गंभीर रूप से बीमार हो गए। दवा दारू के बाद होश आने पर चुन्नी ने देखा कि उनकी पांचो बेटियां उनकी सेवा में लगी थीं। लेकिन चुन्नी ठहरे “पुत्रवान भव” के आदी, उनकी आंखें तो जूनियर चुन्नी को ही तलाश रहीं थीं। दिमाग पर ज्यादा जोर डालने से पहले ही उनकी बेटी ने बताया कि, “पापा भैया को छुट्टी नहीं मिल पाई..”। चुन्नी को यह सुनकर थोड़ी तसल्ली मिल गई और वो चुपचाप दवा खा कर सो गए। रात में न जाने कब नींद से उनकी आंख खुल गई और उनके कानों में कुछ कर्कश से स्वर प्रवेश करने लगे। …”मेरे पास इतना फालतू वक्त नहीं है कि मैं बुढ़ऊ की रोज-रोज की तबीयत और बीमारी के चक्कर में यहां से दौड़ा चला आऊं….सीधे-सीधे एक बार फाइनल हो जाने पर मुझे बता देना। बाकी तुम लोग हो उनका ख्याल रखने के लिए…मुझे बात बात पर फोन करके परेशान मत किया करो….”। जूनियर चुन्नी के ये शब्द सुनकर चुन्नीलाल का दिल मानो बैठ सा गया। आज “पुत्रवान भव” की फीलिंग का अद्भुत और अनोखा रूप चुन्नी को अंदर ही अंदर चुभ रहा था। प्यास के कारण चुन्नी “पानी पानी….” कराह रहे थे। आंखें खोलकर देखा तो उनकी बेटियां पानी लिए खड़ी थीं…. ।