प्रदीप शर्मा
इस बार कर्नाटक चुनाव की सबसे बड़ी बात यह रही कि वर्षों से धर्म पर टिके चुनाव, कर्नाटक से ही सही, मूल मुद्दों पर लौट आए हैं जैसे रोज़ी रोटी, पानी, महंगाई, बेरोज़गारी।
भारतीय राजनीति के लिए ये अच्छा संकेत है। भाजपा की इस प्रचंड हार और कांग्रेस की जीत के और भी कई कारण हैं। पहला कारण कांग्रेस ने बजरंग दल को बैन करने का वादा किया था। भाजपा ने उसे बजरंग बली बना दिया। सोचा सत्ता की संजीवनी बजरंग बली ही लाएँगे। वे लाए भी। लेकिन उन्होंने संजीवनी तो कांग्रेस को दे दी।
दरअसल, भाजपा के मुद्दे दिल्ली से तय होते हैं। उनमें उत्तर – मध्य भारत का इनपुट ज़्यादा होता है। बजरंग दल को शेष भारत भले ही कुछ भी माने, लेकिन दक्षिण वाले उसे केवल एक संगठन मानते हैं और वही उन्होंने माना भी।
दूसरा कारण जैसा कि पिछले चुनाव में हुआ था, भाजपा ने लिंगायत समुदाय को अपना सबसे बड़ा मोहरा समझा। यही वजह थी कि बुजुर्ग येदियुरप्पा को उन्होंने आगे किया। भाजपा से लगातार कांग्रेस में जाते गए नेताओं और इन नतीजों, दोनों ने तय कर दिया कि येदियुरप्पा अब उम्र से ही नहीं, बल्कि राजनीतिक रूप से भी बुढ़ा गए हैं। भाजपा ने सोचा था येदि लिंगायत वोटों को चुंबक की तरह खींचेंगे, लेकिन लोगों ने इसे भ्रष्टाचार के विरुद्ध वोट के रूप में उलट दिया।
क्योंकि नतीजे बताते हैं कि बीस प्रतिशत से ज़्यादा लिंगायत वोटरों वाली सीटों में कांग्रेस की जीत का हिस्सा भी भाजपा से कम नहीं है।और जो भाजपा के मुख्यमंत्री रहे हैं वसवराज बोम्मई, उनके खीसे में भी महान एसआर बोम्मई का बेटा होने के सिवाय कोई जादू रह नहीं गया था।
तीसरा कारण- इस बार राहुल गांधी और प्रियंका, दोनों ने मोदी स्टाइल में सभाएं कीं। वर्षों बाद ऐसा हुआ कि राहुल की सभाएं जहां- जहां हुई उन क्षेत्रों में जीत का स्ट्राइक रेट मोदी से ज़्यादा है। प्रियंका के सभास्थलों वाले क्षेत्रों में भी कम से कम तीस प्रतिशत सीटों पर कांग्रेस जीती है। इसके अलावा एंटी इंकम्बेन्सी ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह सरकार के विरुद्ध तो थी ही। मौजूदा विधायकों के विरुद्ध भी थी।
यही वजह है कि भाजपा का गढ़ माने जाने वाले तटीय क्षेत्र में भी उसे नुक़सान हुआ है। जेडीएस के गढ़ पुराने मैसूर में उसकी भी एकतरफ़ा जीत नहीं हुई। इसी तरह कांग्रेस का गढ़ रहे हैदराबाद- कर्नाटक क्षेत्र ने उसे गच्चा दे दिया। लगता यह भी है कि कर्नाटक का मतदाता जोड़तोड़ की सरकार से तंग आ चुका था, इसलिए उसने इस बार ग़ुस्से में वोट दिया। देवगौडा के जेडीएस जैसे क्षेत्रीय दलों के किंगमेकर बनने या बने रहने की परंपरा पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दी गई।
रोचक आँकड़ा यह भी है कि यहाँ कांग्रेस के सिवाय किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। 1989 में कांग्रेस प्रचंड बहुमत से 178 सीटों पर जीती। फिर 1994 में उसे 136 और 1999 में 132 सीटें मिलीं। 2013 में भी कांग्रेस ही 122 सीटों के साथ स्पष्ट बहुमत हासिल कर सकी थी।
कर्नाटक जीत के मायनों पर अगर जाते हैं तो इनसे मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों में कांग्रेस का अपरहैंड रहेगा। अपरहैंड से मतलब यह है कि यहाँ का कांग्रेस कार्यकर्ता कम से कम निराशा के क्षीरसागर में तो नहीं ही रहेगा। हालांकि लोकसभा और विधानसभा चुनावों की तासीर भिन्न होती है फिर भी लगता है कर्नाटक के ये नतीजे 2024 के आम चुनावों में भाजपा के लिए चुनौती ज़रूर खड़ी करेंगे।
मुख्यमंत्री कौन बनेगा, इस प्रश्न के जवाब के लिए आज या कल तक इंतज़ार करना पढ सकता है । हालाँकि कांग्रेस विधायक दल की मीटिंग रविवार को ही हो चुकी, लेकिन जैसा की कांग्रेस में होता आया है, विधायक दल की हर मीटिंग में फ़ैसला हाईकमान पर छोड़ दिया जाता है, वही रविवार को भी हुआ। सवाल वर्षों से अपनी जगह क़ायम है कि जब फ़ैसला हर बार हाईकमान को ही करना होता है तो फिर विधायक दल की बैठक का दिखावा क्यों? वैसे भाजपा भी इस मामले में कांग्रेस से अलग नहीं है। वहाँ भी नेता पद के सारे फ़ैसले दिल्ली से ही आते रहे हैं।