ऋतुपर्ण दवे
क्या केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू को उनके बड़बोले पन के चलते हटाया गया? क्या किरण रिजिजू को रिटायर्ड जजों पर उस टिप्पणी के चलते हटाया गया जो एक निजी चैनल के कॉनक्लेव के दौरान कहे थे?क्या रिजिजू यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू को देश भर में लागू कराने में असफल रहे?क्या रिजिजू के बयानों से कार्यपालिका बनाम न्यायपालिका के बीच नई जंग तो नहीं शुरू होने लगी?ये वो सवाल हैं जो देश के कानून मंत्री रहते हुए किरण रिजिजू को घेरते जा रहे थे। इसकी शुरुआत उस बयान से हुई जो उन्होंने एक निजी चैनल के कॉनक्लेव में कुछ सेवानिवृत्त न्यायाधीश पर उठाते हुए कहा था कि रिटायर्ड जज और एक्टिविस्ट भारत विरोधी गिरोह का हिस्सा बनकरकोशिश कर रहे हैं कि भारतीय न्यायपालिका विपक्षकी भूमिका निभाए। इतना ही नहीं उन्होंने न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित कॉलेजियम प्रणाली की भी जमकर आलोचना की थी और कहा था कि यह कांग्रेस पार्टी के दुस्साहस का परिणाम है। जजों की नियुक्ति में इस प्रणाली को अपारदर्शी बताया तो कभी संविधान से अलग वो प्रणाली बताई जो दुनिया में अकेली है और जजों को अपने चहेतों को नियुक्त करने का मौका देती है।मामला उस समय और सुर्खियों में आ गया जब इसी कॉनक्लेव में भारत के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कॉलेजियम प्रणाली का न केवल बचाव किया बल्कि यहां तक कह दिया कि हर प्रणाली दोष से मुक्त नहीं है। लेकिन कॉलेजियम सबसे अच्छी प्रणाली है जिसे हमने ही विकसित किया है। जिसका उद्देश्य न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करना है जो एक बुनियादी मूल्य भी है।
उनके बयानों को लेकर देश में काफी हो हल्ला मचा था। समर्थन और विरोध में खेमेबाजी भी हुई। कई वकीलों और संगठनों ने कहा कि एक मंत्री का ऐसे बयान देना जो कानून मंत्री भी होशोभा नहीं देता। एक ओर रिजिजू अपने समर्थन में किए गए ट्वीट को रिट्वीट करते रहे जबकि देश के 90 पूर्व नौकरशाहों ने खुली चिट्ठी लिखकर यह तर्क दिया कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने खातिर कोई समझौता नहीं हो सकता।उनके बयानों कोसंवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन बताकर काफी बहस भी हुई। कहा गया कि सरकार की आलोचना न तो राष्ट्र के खिलाफ है और न ही कोई देशद्रोही गतिविधि है। नाराज वकीलों ने सार्वजनिक रूप से अपनी टिप्पणी वापस लेने और आगे ऐसी टिप्पणियों से बचने की सलाह भी दी। वहीं किरण रिजिजू ने यह भी कहा कि देश के बाहर और भीतर भारत विरोधी ताकतें एक ही भाषा का इस्तेमाल करती हैं कि लोकतंत्र खतरे में है। भारत में मानव अधिकारों का अस्तित्व नहीं है। भारत विरोधी समूह जो कहता है वैसी ही भाषा विपक्षी भी बोलते हैं। ये भारत की अच्छी छवि का विरोध है। इसके बाद उन्हें वकीलों ने याद दिलाया था कि प्रधानमंत्री मोदी ने खुद कहा है कि सरकार से कठिन सवाल पूछे जाने चाहिए और आलोचनाएं भी होनी चाहिए जिससे सरकार सतर्क और उत्तरदायी बनी रहे।
यकीनन कानून मंत्री कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच एक कड़ी होते हैं और उन्हें पद,प्रतिष्ठा का ध्यान रखऐसीकोई भी सार्वजनिक बात नहीं कहनी चाहिए जिससे लोकतंत्र और सरकार पर उंगली उठे। हालांकि उन्होंने माना कि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच कोई टकराव जैसी बात नहीं हैं। लेकिन वहीं न्यायाधीशों की न्यायिक आदेशों के जरिए नियुक्ति को भी गलत ठहराया। रिजिजू इस बात की वकालत करते रहे कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की जिम्मेदारी सरकार के पास होनी चाहिए। एक मौके पर यहां तक कह दिया था कि जब कोई जज बनता है तो उसे चुनाव का सामना नहीं करना पड़ता है। जजों की कोई सार्वजनिक जांच भी नहीं होती। न्यायपालिका में आरक्षण का मुद्दा भी उठाया और सभी जजों और उसमें भी खासकर कॉलेजियम के सदस्यों को याद दिलाया कि पिछड़े समुदायों,महिलाओं और दूसरी श्रेणियों के सदस्यों को प्रतिनिधित्व देने के लिए नामों की सिफारिश करते समय इन्हें भी ध्यान में रखें क्योंकि न्यायपालिका में ऐसे तबके का उचित प्रतिनिधित्व नहीं है।
ये सही है कि भारत में जब भी सरकार और सुप्रीम कोर्ट की बातें होती है तो यह भरोसा रहता है कि अदालत जो कहतीहै सरकारसुनती ही है। लेकिन जब अदालतों पर ही पलटवार जैसी स्थिति बनेतो हैरानी होती है। रिजिजू की मुखरतासे तय माना जा रहा था कि सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी हो रहीं हैं। स्थिति उस समय थोड़ी और चर्चित तथा परेशानी वाली हो गई जब सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर कॉलेजियम प्रणाली के खिलाफ की गई टिप्पणी पर कार्रवाई की मांग की गई जिसमेंउपराष्ट्रपति धनखड़ भी चर्चाओं मेंआए।
बीतेसोमवार को ही सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में दायर एक याचिका यह कहते हुए खारिज कीकि उसके पास इससे निपटने के लिए व्यापक दृष्टिकोण है। किरण रिजिजू न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली को अस्पष्ट और पारदर्शी बताते रहेजबकि उपराष्ट्रपति धनखड़ ने 1973 के केशवानंद भारती के ऐतिहासिक फैसले पर सवाल उठाए थे जिसने बुनियादी ढांचे का सिद्धांत दिया था। वह बुरी मिसाल कायम की जिससे यह कहना मुश्किल होगा कि हम एक लोकतांत्रिक देश हैं। उनका इशारा किसी प्राधिकरण द्वारा संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति पर सवाल उठाने को लेकर भी था। इसी पर सुप्रीम अदालत ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए न्यायपालिका और कॉलेजियम प्रणाली पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रीजीजू की टिप्पणी पर राहत देते हुए दोनों के खिलाफ दाखिल जनहित याचिका खारिज करने के बॉम्बे हाई कोर्ट के निर्णय को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया। बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन ने उच्च तम न्याकयालय में बॉम्बे हाई कोर्ट के 9 फरवरी के उस आदेश को चुनौती खातिर एक याचिका दायर की थी जिसमें याचिका को इसलिए खारिज कर दिया गया था कि यह रिट लागू करने के लिए उपयुक्त मामला नहीं है।
माना जा रहा है किकई कारणों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किरण रिजिजू से नाराज थे। खासकर पूरे देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू कराने पर प्रधानमंत्री की गंभीरता से वे बेफिक्र थेजबकिभाजपा शासित राज्यों में लागू हो रहा था। वहीं एक बड़ा कारण न्यायपालिका और कानून मंत्री के बीच का वो चर्चित सार्वजनिक टकराव भी रहा जिससेउनके न्यायपालिका पर दिए बयानों से सरकार नाराज थी। ऐसा लगता है कि किरण रिजिजू अपनी ही राजनीति का शिकार हो गए।
भला भारत जैसे देश में कोई सरकार क्यों चाहेगी कि वो बेवजह निशाना बने। सरकार नहीं चाहती थी कि न्यायपालिका के साथ टकराव सार्वजनिक रूप से दिखे। कर्नाटक चुनाव के चलते रिजिजू कोथोड़ा जीवन दान जरूर मिला था जो कि चुनाव निपटते असर कर गया। अब उन्हें भू-विज्ञान मंत्रालय मिला है।जबकि कानून मंत्रालय की जिम्मेदारी स्वतंत्र प्रभार के रूप में अर्जुन राम मेघवाल को सौंपी गई है। यह राजस्थान विधानसभा चुनाव के चलते भी अहम है। शायद इसे ही कहते हैं एक तीर से दो निशाने!
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।)