बेकाबू सरकारी बाबू

विनोद कुमार विक्की

पृथ्वी पर जब मेरा पदार्पण हुआ तो हमारे माता-पिता रिश्तेदारों ने हमें पालने से पहले मुगालता पाल लिया। मां को लगा मेरा बेटा डॉक्टर बनेगा, तो पूज्य पिताश्री मुझमें अभियंता का भविष्य तलाशने लगे। बड़ी बहन आईएएस का तो बुआ वर्दी धारी बनने तक की गैर-आधिकारिक घोषणा तक कर बैठी।सभी को हमारे गीले नैपकिन और कच्छा की बजाय सूखे कैरियर की चिंता ज्यादा थी।
नामकरण षष्ठी पूजा के दौरान पंडित जी को ना जाने प्रभु श्रीकृष्ण की तरह हमारे मुखमंडल में कौन सा ब्रह्माण्ड दिख गया कि उन्होंने तत्क्षण ही मुझे ‘भविष्य में बड़ा आदमी’ बनने की घोषणा कर डाली।

कितना बड़ा आदमी बनूंगा शायद इसका पैमाना ना तो पुरोहित जी के पास था और ना हमारे घर वाले इसका मूल्यांकन कर हमारी गरिमामयी कैरियर का सीमांकन करना चाह रहे थे।

बहरहाल उम्र बढ़ने के साथ-साथ मेरे मन मस्तिष्क में जीवन का लक्ष्य गिरगिट और दल-बदलू नेता की तरह समय और परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तन शील रहा। बाल्यावस्था में पिताजी की दुकान देख कर साहुकार बनने की, तो स्कूली जीवन के दौरान शिक्षकों का रुतबा देख शिक्षक बनने की, हिंदी फीचर फिल्म देखने के बाद कभी स्टाइलिश हीरो बनने आदि की इच्छाएं समय-समय पर बलवती हुई। किंतु अक्ल वाली दांत उत्पन्न होने के बाद वैज्ञानिक डॉक्टर, इंजीनियर,आइएएस,नेता अधिकारी और कर्मचारी आदि समस्त पदधारियों में मुझे सबसे ज्यादा किसी ने प्रभावित किया तो वो था सरकारी बाबू!फिर क्या किशोरावस्था में ही हमने सरकारी बाबू बनने की कसम खा ली।

सरकारी बाबू पद के प्रति मोह के संदर्भ में घटना कुछ इस तरह की है।हुआ यूं कि एक बार पिताजी के बाट-तराजू के लाईसेंस में आंशिक त्रुटि सुधार हेतु मुझे पिताजी के साथ सरकारी कार्यालय जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पहली बार मुझे साक्षात बड़े बाबू के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पान की गिलौरी या गुटखा से भरा हुआ ओजपूर्ण मुस्कुराता हुआ उनका चेहरा, गोलाकार आयतन में फैला हुआ उदर, वाणी की बजाय गर्दन अथवा सांकेतिक इशारों से समझा सकने में कुशल तथा अतिरिक्त आय में घोर आस्था रखने वाला अद्भुत सरकारी इंसान।चहूओर ‘बड़ा बाबू,बड़ा बाबू ‘ की त्राहिमाम मध्यम ध्वनि के साथ दर्जनों आगंतुकों की भीड़ के बीच लकड़ी की कुर्सी पर विराजमान सरकारी महामानव।वो बोलते कम और थूकते ज्यादा थे। उनके दाएं-बाएं अधीनस्थ कर्मचारी बड़े बाबू का यशोगान कर रहे थे “अरे बाबू ने कह दिया तो हंड्रेड वन परसेंट काम हो जाएगा…अफसर का क्या,उनको तो सिर्फ़ हस्ताक्षर करना होता है बाकी लिखा-पढ़ी तो बाबू ही करते हैं।बाबू ने जो फाईल पर लिख दिया आज तक कभी किसी अधिकारियों ने नहीं काटा है…बाबू ये है तो बाबू वो है…”

गुलाबी खिल्ली पान से फुले हुए मुखमंडल में अवस्थित एक जोड़ी आंखों को फैला चश्मा के नीचे से झांकते हुए पिताजी की ओर देखा। मामला को समझा तत्पश्चात उस सरकारी पुरुष ने इस सुधार कार्य को जटिल और असाध्य बताया। किंतु थोड़ी देर बाद पिताजी द्वारा चाय-पानी के विनम्र अनुरोध पर उस असाध्य कार्य को साधने के लिए तैयार हो गया। बाबू ने पिताजी की तरह कई अन्य समस्याग्रस्त लोगों की समस्या का समाधान चाय-पानी की क्षमता के अनुसार चुटकियों में कर डाला। बाबू कितनी महंगी चाय पीते है और कितना चाय पीते हैं यह उसी दिन पता चला ‌‌।

खाने-पीने की क्षमता देख मैं इतना समझ गया कि बाबू का उदर, लंबोदर से भी ज्यादा बड़ा और गहरा होता है। बाबू ने चाय पानी की सेवा ना दे सकने वाले असमर्थ पीड़ितों के लिए दूसरे सप्ताह या अगले माह दर्शन देने का प्रावधान तय कर रखा था।
बड़े बाबू का रूतबा और जलवा देख मैंने यूपीएससी, बैंकिंग, रेलवे की बजाय राज्य कर्मचारी चयन आयोग के एलडीसी/यूडीसी पद की वैकेंसी पर बगुला की तरह निगाहें टिका दी।

बड़े बाबू का काम निष्पादित करने की जो गति होती है मैंने प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी भी उसी रफ़्तार से जारी रखा। किंतु हमारी किस्मत भी विजय माल्या की तरह धोखेबाज निकली।पेपर अच्छा नहीं जा सकने के कारण दर्जनों बार पीटी तक पास नहीं कर पाया।और जब कभी पेपर अच्छा जाता तो पता चलता कि परीक्षा पूर्व ही प्रश्न पत्र व्हाट्स के माध्यम मार्केट में उपलब्ध हो जाया करती थी ।
किंतु मैंने ना तो हिम्मत हारी और ना ही दूसरी परीक्षा का फार्म भरा।आखिरकार उम्र के अंतिम पड़ाव और लास्ट चांस में स्टेट यूडीसी प्रारंभिक परीक्षा पास कर ली। पीटी पास होने पर ऐसा लग रहा था कि मैं हाफ बाबू बन चुका हूं। मित्र और साथी बड़ा बाबू के रूप में संबोधित भी करने लगे थे।

मुख्य परीक्षा भी उम्मीद से ज्यादा अच्छी गई। परीक्षा देने के बाद मैंने परीक्षा कक्ष से ही ईश्वर,अल्लाह, गॉड,वाहेगुरु आदि को संयुक्त रूप से धन्यवाद ज्ञापित किया।बस इधर रिजल्ट निकलता और उधर मैं बाबू बनता!

परीक्षोपरांत अति उत्साह में दिवाली और होली एक साथ सेलिब्रेट करते हुए पटाखे फोड़े और मोहल्ले में मिठाईयां तक बंटवा डाली । सभी जान गए कि मोहल्ले में एक सरकारी बाबू का उत्पादन होने वाला है!

दो महीने बाद एक दिन पिताजी हाथों में अखबार लेकर हड़बड़ाते हुए मेरे पास पहुंचे। उनके हाथों में अखबार देख मैं समझ गया कि रिजल्ट घोषित हो गई है। मैंने झट से पिताजी का चरण स्पर्श कर आशिर्वाद लेना चाहा।

अरे पहले यह खबर तो पढ़ो… पिताजी ने आशीर्वाद की बजाए ज्ञान दिया।

मैंने मुस्कुराते हुए पेपर हाथ में लिया। जैसे ही मैंने खबर पढ़ी, पैरों तले जमीन खिसक गई। राज्य सरकार ने वित्तीय संसाधन की अनुपलब्धता के कारण उच्च वर्गीय लिपिक पद को विलोपित करते हुए पुरानी वैकेंसी और ली गई परीक्षा को रद्द कर दिया था।
खबर पढ़ते ही बाबू बनने का अरमान नीरव मोदी की तरह फुर्र हो चुका था।ओम शांति ओम के शाहरुख खान की तरह मुझे यह जग सूना-सूना लगने लगा।

अंततः सरकारी कार्यालय चलाने की तमन्ना रखने वाले को खानदानी परचून की दुकान चलानी पड़ी। किंतु असफलता के दशकों बाद भी हताश और निराश होने की बजाय मैं खुशहाल जीवन जी रहा हूं, क्योंकि दुकानदार होने के बावजूद इस चराचर में दो शख्स ऐसे हैं जो आज भी मुझे बाबू पुकारते हैं।उन दोनों द्वारा उच्चारित बाबू शब्द के कर्णप्रिय श्रवण से मेरी अंतरात्मा तृप्त हो जाती है और मुझे परम आनंद की प्राप्ति होती है। मैं खुश और आश्वस्त हूं कि “बाबू कुछ पैसा दे दो …” का उद्घोष करने वाले भिखारी और ‘ शोना-बाबू ‘ का संबोधन करने वाली इकलौती बीवी के लिए कल भी मैं बाबू था, आज भी बाबू हूं और मरते दम तक बाबू ही रहूंगा।