अंग्रेजों भारत छोड़ो की याद दिलाता अगस्त का ये दिन

अरुण कुमार डनायक

जब महात्मा गांधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो का आह्वान किया, तब भारत के राजनैतिक क्षितिज पर कैसा परिदृश्य था, इस पर विचार करना आवश्यक है। देश में हिन्दू मुस्लिम तनाव चरम पर था। मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान बनाने का ध्येय 1940 के अंत में घोषित कर दिया था। सावरकर के नेतृत्व में हिन्दू कट्टरपंथियों का एक धड़ा, जिसका प्रभाव बंगाल और सिंध में था,द्विराष्ट्र सिद्धांत से सहमत था और द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन का साथ देने सेना में भर्ती अभियान चला रहा था। हिंदुत्ववादी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सोच थी कि अंग्रेज तो स्वत: ही भारत छोड़ कर चले जाएंगे इसके लिए प्रयास क्यों करना। संघ का विश्वास गांधीजी के अहिंसक अस्त्रों सत्याग्रह, उपवास, रचनात्मक कार्यक्रम में नहीं था और हिंसा के समर्थक होने के बावजूद इस संगठन ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कभी कोई सशस्त्र विद्रोह नहीं किया था।

अप्रैल 1939 का महीना देश के राजनीतिक पटल पर एक नई उठा-पठक के साथ समाप्त हुआ। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के चार महीने बाद ही स्तीफा दे दिया और फारवर्ड ब्लाक के नाम से एक नई पार्टी बनाई। अंग्रेज हुकुमत ने उन्हे नज़रबंद कर लिया , सत्याग्रह में भागीदार बनने की उनकी इच्छा को गांधीजी द्वारा अस्वीकार कर दिया और फिर अचानक वे अंग्रेज सरकार की आंख में धूल झोंककर देश से बाहर चले गये।

दूसरी तरफ अंग्रेजी हुकूमत ने सितंबर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के बादलों के मंडराते ही भारतीय नेताओं से परामर्श किए बगैर ही देश को युद्ध में शामिल कर दिया। कांग्रेस इसके खिलाफ थी। वह चाहती थी कि अंग्रेजी हुकूमत युद्ध और शांति के अपने उद्देश्यों को, विशेष रूप से भारत के संदर्भ में स्पष्ट करे। वायसराय ने गोल मोल जवाब दिया वे ना तो युद्ध के लक्ष्य बताने सहमत हुए और ना भारत की स्वतंत्रता को लेकर कोई आश्वासन दे रहे थे। कांग्रेस कार्यसमिति इस जवाब से संतुष्ट नहीं थी। फिर भी उसने देश के नागरिकों से सविनय अवज्ञा भंग जैसे कदम जल्दबाजी में नहीं उठाने का आग्रह किया। युद्ध के समय कांग्रेस असमंजस में भी थी। उसकी सहानुभूति ब्रिटेन जैसे लोकतान्त्रिक देशों के साथ थी और वह युद्ध प्रयत्नों में बाधा नहीं डालना चाहती थी। दूसरी ओर गांधीजी युद्ध के ही खिलाफ थे। वे अहिंसा के अपने मूल सिद्धांत को त्यागने के लिए तैयार नहीं थे। गांधीजी ब्रिटिश हुकूमत को सशस्त्र और हिंसात्मक युद्ध में व्यवहारिक सहायता देने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन वे नैतिक समर्थन देने के पक्ष में थे। आम जनता में अंग्रेज हुकूमत के प्रति गुस्सा तो था पर वह सरकार के विरोध करने के मूड में भी नहीं थी। कांग्रेस और गांधीजी में असहयोग आंदोलन शुरू करने को लेकर भी तीव्र मतभेद थे। कांग्रेस ने गांधीजी की सलाह के विरुद्ध जाकर अंग्रेज हुकूमत से, युद्ध के बाद स्वतंत्रता दिए जाने के आश्वासन पर सशर्त सहयोग का प्रस्ताव रखा। लेकिन जब बात नहीं बनी तो वह पुन: गांधीजी की शरण में मार्गदर्शन के लिये आ गई। गांधीजी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किया और विनोबा भावे की गिरफ़्तारी प्रथम सत्याग्रही के रूप में 21 अक्टूबर 1940 को हुई। सभी सत्याग्रहियों को सरकार ने गिरफ्तार तो किया पर जैसे ही जापान ने लड़ाई में हिस्सा लिया और उसकी जीत का सिलसिला शुरू हुआ तो सत्याग्रही जेल से छोड़ दिए गए।

युद्ध भूमि में जापान ने मलाया और बर्मा पर कब्जा कर लिया, वहाँ से भारतीयों के दल शरणार्थी के रूप में भारत आ रहे थे। जापानी हवाई जहाज भारतीय सीमा के आसपास चेन्नई से बंगाल के तक मंडरा रहे थे। यह स्थिति सरकार और कांग्रेस के लिए चिंता का विषय थी। अन्तराष्ट्रीय जगत में खासकर अमेरिका के अखबारों में ब्रिटेन की भारत नीति की कटु आलोचना हो रही थी। तभी 1942 में ब्रिटिश सरकार ने सर क्रिप्स के नेतृत्व में वार्ताकारों का एक दल भारत में कांग्रेस व मुस्लिम लीग के नेताओं से बातचीत के लिए भेजा। कांग्रेस को क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव स्वीकार नहीं थे क्योंकि इसमे भारतीयों के हाथ में तत्काल उत्तरदायित्व सोपने को लेकर कोई विचार नहीं था। गांधी जी ने क्रिप्स मिशन को दिवालिया बैंक का पोस्ट डेटेड चेक कहा था।

जापान जब जापान तेजी से आगे बढ़ रहा था, अंग्रेज फौज देश की सीमाओं की सुरक्षा कर पाने में असमर्थ थी, सीमावर्ती इलाकों को जबरदस्ती खाली कराया जा रहा था तब गांधीजी ने यह महसूस किया कि यदि जापानी सेना भारत में घुस आती है तो अंग्रेजों से तृस्त जनता उन्हें अपना मुक्तिदाता मान बैठेगी और भारत अंग्रेजों की दासता से मुक्त होकर एक बार पुन: जापानियों का गुलाम बन जाएगा। गांधीजी के अनुसार अंग्रेजों के पास एक ही सम्मानजनक रास्ता बचा था-वे शांतिपूर्वक भारत को जनता के भरोसे छोड़कर चले जाएँ, जनता स्वयं जापानियों से मुकाबला करेगी। ऐसी परिस्थितियों के बीच एक बार फिर कांग्रेस कार्यसमिति सक्रिय हुई और उसकी बैठक 27 अप्रैल 1942 को इलाहाबाद में गांधीजी की अनुपस्थिति में हुई। मीरा बहन के मार्फत गांधीजी द्वारा भेजा गया प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया। कांग्रेस कार्यसमिति की 07 जुलाई 1942 को वर्धा में आयोजित बैठक में गांधीजी ने पुन: पूर्ण स्वतंत्रता की मांग को दोहराया और बहुत मुश्किल से कार्यसमिति के सदस्यों को वे ‘अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाएँ’ मांग मनवाने में सफल हुए। कांग्रेस के बड़े नेताओं का मानना था कि अव्वल तो अंग्रेज आसानी से भारत छोड़कर जाने वाले नहीं हैं और इस वक्त अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सत्याग्रह शुरू करने से भारत मित्र राष्ट्रों की सहानुभूति खो देगा। गांधीजी अपने अकाट्य तर्कों से नेहरूजी सहित सभी नेताओं को यह समझाने में सफल हुए कि उनके प्रस्ताव से ही साम्राज्यवादी सरकारी हठधर्मी का , जो भारत को कठिन परिस्थितियों में जापान के हवाले कर देना चाहती है, मुकाबला किया जा सकता है। अंतत: कार्यसमिति ने सर्वसम्मति से एक बार फिर अपने प्रिय नेता महात्मा गांधी का “अंग्रेजों भारत छोड़ो’ प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

सेवाग्राम वर्धा में पारित प्रस्ताव के अनुरूप सात व आठ अगस्त को मुंबई में कांग्रेस महासमिति की बैठक हुई। महा समिति ने भारत की स्वतंत्रता को फौरन स्वीकार करने , एशिया तथा अफ्रीका की जनता को साम्राज्यवादी दासता से मुक्त करने , विभिन्न दलों के सहयोग से अस्थायी सरकार की स्थापना आदि प्रस्तावों को मंजूरी दी । कांग्रेस महासमिति की बैठक सार्वजनिक रूप से हुई और यह प्रस्ताव आठ अगस्त को देर रात में जाकर पारित हुआ। गांधीजी ने स्वप्रेरित लंबा भाषण दिया ,जिसकी कोई तैयारी उन्होंने पहले से नहीं की थी। गांधीजी ने जनता से करेंगे या मरेंगे का आह्वान किया , आंदोलन शुरू करने से पहले एक बार पुन वाइसराय से मुलाकात कर पूर्ण स्वतंत्रता की मांग दोहराने का अपना निर्णय सुनाया और तब तक आम जनता से उनके रचनात्मक कार्यक्रम को जारी रखने का सुझाव दिया। दूसरे दिन पौ फटते तक गांधीजी सहित कांग्रेस के सभी प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिए गए। गांधीजी और उनके सचिव महादेव भाई देसाई, कस्तूरबा गांधी , सुशीला नैयर, सरोजिनी नायडू को पूना के आगा खान पेलेस में नजरबंद कर दिया गया। नेहरू , मौलाना आजाद, सरदार पटेल, कृपलानी आदि नेताओं को अहमदनगर के किले में बंद कर दिया गया।

भारत छोड़ो आन्दोलन को कुचल देने में सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। सत्याग्रहियों को जेलों में बंद कर दिया गया। उन्हें समाचार पत्र जैसी मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित कर दिया गया। नेताओं की गिरफ़्तारी से जनता में विद्रोह की भावना भड़क उठी , देश भर में लगभग एक सप्ताह तक आम हड़ताल कर सारा कारोबार ठप्प कर दिया गया। सुचेता कृपलानी, सादिक अली, म्रुदुला साराभाई सहित बहुत से नेता भूमिगत हो गए और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के कार्यालय का संचालन गुप्त तरीके से करने लगे। इन नेताओं ने मुंबई से देश भर में धन, आदेश व समाचार भिजवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अरुणा आसफ अली , अच्युत पटवर्धन, जय प्रकाश नारायण आदि समाजवादियों ने भूमिगत रहते हुए गुप्त रेडियो स्थापित किया। जनता भी नेतृत्व विहीन होने के बावजूद आंदोलन को सक्रियता से चला रही थी। युवक –युवतियों ने , जिनकी कोई खास राजनैतिक पृष्ठभूमि नहीं थी, विलासिता पूर्ण जीवन छोड़कर सत्याग्रह में भाग लिया और गिरफ्तार होने पर असीम यातनाएं सही। बलिया, मेदिनीपुर, चौबीस परगना आदि स्थानों पर अंग्रेजों का शासन बिल्कुल समाप्त कर दिया गया।

अहिंसक सत्याग्रहियों पर पुलिस ने बहुत जुल्म ढाए, जेल में बंदकर उन्हें यातनाएं दी गई, स्त्रियों के साथ बलात्कार किए गए। महादेव देसाई और कस्तूरबा गांधी की जेल में मृत्यु हो गई। भारत मंत्री ने स्वीकार किया कि चार माह के अंदर ही हजार से ऊपर व्यक्ति पुलिस की गोली का शिकार हुए,लगभग चार हजार लोग पुलिस की मार से गंभीर रूप से घायल हुए। पुलिस के आतंक ने प्रतिहिंसा को जन्म दिया। बहुत से स्थानों पर जनता ने पुलों व सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया, रेल पटरियाँ उखाड़ दी गई, पुलिस स्टेशनों को आग के हवाले कर दिया गया , कुछ स्थानों पर तो अफसरों को जान से हाथ भी धोना पड़ा। बड़े कांग्रेसी नेताओं के गिरफ्तार हो जाने और पुलिसिया आतंक के बावजूद यह आंदोलन डेढ़ वर्ष तक चलता रहा। यह तो नहीं कहा जा सकता कि यह आंदोलन अपने तात्कालिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल हुआ। सरकार ने अत्याधिक बाल प्रयोग कर आंदोलन को तो दबा दिया पर वह जन भावनाओं को दबाने में सफल नहीं हो पाई। अंग्रेजी हुकुमत के अधिकारियों और ब्रिटिश सरकार के मन में भी यह विचार पनपने लगा था कि भारवासियों की स्वतंत्र होने की इच्छा को अब और अधिक दबाया नहीं जा सकता है।