वोट बैंक की राजनीति में पिसता मुस्लिम मतदाता

सुरेन्द्र चतुर्वेदी

भारत की राजनीति में मुस्लिम मतदाता एक ऐसा लडडू है, जिसको पाने के लिए सारे राजनीतिक दल लालायित रहते हैं। सत्ताधारी दल तो हमेशा से ही मनोवैज्ञानिक दबाव में रहते हैं कि भले ही बहुसंख्यक समाज की नाराजगी झेलनी पड़ जाए लेकिन मुस्लिम मतदाताओंकी भृकुटी टेड़ी नहीं होनी चाहिए। राजनीतिक दलों के इसी रवैये ने मौलानाओं, उलेमाओं और मौलवियों के हौंसलों को इतना बढ़ाया है कि उन्होंने मुस्लिमों को एक सभ्य समाज की बजाय आक्रामक भीड़ के रूप में स्थापित कर दिया है।

2023 को हम आजादी के 75वें वर्ष के रूप में मना रहे हैं, भारत सरकार ने इस वर्ष को आजादी का अमृत महोत्सव के रूप में अंगीकार किया है, लेकिन आजादी के इस अवसर पर भी मुस्लिम समाज का बहुत बड़ा वर्ग भारत के साथ एकाकार होता नहीं दिखता, बल्कि मुस्लिम बच्चों और नवयुवकों द्वारा संगठित रूप से हमले, निर्दोष लोगों के साथ मरने की हद तक मारपीट और सार्वजनिक एवं सरकारी संपत्तियों के नुकसान की घटनाओं में तेजी आती दिखाई दे रही है। क्या राजनीतिक दल मुस्लिम मतदाताओं का वोट हासिल करने के लिए मुस्लिम समाज में तेजी से आ रहे इस बदलाव को अनदेखा करते ही रहेंगें ? और करते ही रहेंगे तो आखिर कब तक ?

भारत के विभाजन के समय महात्मा गांधी और प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का यह मानना था कि आने वाले समय में पीढ़ीगत बदलाव के साथ मुस्लिम समाज शेष भारत के साथ समरस हो जाएगा। भारत में रहने वाले सभी लोग भारतवासी होंगें और समाज के सभी वर्ग एक साथ मिलकर-चलकर देश को विकास के मार्ग पर आगे ले जाऐंगें। हालांकि तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और कानून मंत्री बाबा साहेब भीमराव अंम्बेडकर नेहरू और गांधी के इस विचार से सहमत नहीं थे। वे आबादी के संपूर्ण अदल बदल के पक्ष में थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आज आजादी के लगभग 75 साल बाद भी मुस्लिम समाज शेष भारत के साथ कदम से कदम मिलाकर चलता महसूस नहीं होता।

क्या यह बात विचारणीय नहीं है कि 1951 में हुई जनगणना में 9.49 प्रतिशत मुस्लिम थे। यह वे लोग थे जिन्होंने पाकिस्तान जाना स्वीकार नहीं किया। हालांकि इनमें से कईयों ने पाकिस्तान के निर्माण के लिए जनमत सर्वेक्षण में पाकिस्तान बनाए जाने का समर्थन किया लेकिन वो यहीं रह गए, क्योंकि उनको भरोसा था कि पाकिस्तान की बजाय भारत में वे ज्यादा सुरक्षित हैं। तब जब मुस्लिम आबादी दस प्रतिशत से भी कम थी तो उनको भारत, पाकिस्तान से ज्यादा सुरक्षित लग रहा था, लेकिन अब जब भारत में मुस्लिम आबादी 14.2 प्रतिशत हो रही है, तो उन्हें असुरक्षा महसूस हो रही है और अलगाव की भावना बलवती हो रही है। तब के दीन हीन समाज की स्थिति यह है कि वो अपने दम पर पूरे देश में कहीं भी कानून व्यवस्था के लिए चुनौती पैदा कर सकने में सक्षम हैं।

तो क्या यह प्रश्न नहीं पूछा जाना चाहिए कि राजनीतिक दल आखिर कब तक मुस्लिम वर्ग को सत्ता प्राप्ति के लिए इस्तेमाल करते रहेंगे और मौलाना, उलेमा और मौलवियों को इस बात के लिए प्रेरित करते रहेंगें कि वे पहचान और इस्लाम के खतरे को दिखा कर मुस्लिमों का भावनात्मक शोषण करते रहें। दरअसल, यह विचार हिन्दुओं की बजाय मुस्लिम बुद्धिजीवियों को करना चाहिए कि मुस्लिम समाज का युवक आज भटका क्यों है? क्यों सरकार और राजनीतिक दलों से हर प्रकार की सुविधा और सुरक्षा मिलने के बाद भी वो भारत के साथ अपनापन नहीं जोड़ पा रहा है? मुस्लिम समाज में गरीबी और पिछड़ेपन के लिए कौनसी तालीम जिम्मेदार है ? कौन है जो उन्हें बरगलाकर उनके जीवन की खुशहाली को छीन लेना चाहता है? कौन सी वो ताकत है, जो उनका उपयोग अपनी राजनीतिक ताकत को बढ़ाने के लिए करती है और मौका मिलते ही मुस्लिम समाज को बदहाल छोड़कर आगे बढ़ जाती है?

प्रश्न यह भी है कि कब तक मुस्लिम समाज एक वोट बैंक के रूप में हांका जाता रहेगा ? क्या मुस्लिम समाज यह हिम्मत दिखा पाएगा कि वो फतवों से बाहर आकर अपने विवेक से गुण दोष के आधार पर निर्णय ले सके ? यह जिम्मेदारी भी मुस्लिम समाज पर ही है कि वो भारत विभाजन के अपराधियों से अपने आप को अलग साबित करें। वो पूरी ताकत से राजनेताओं, मौलानाओं, मौलवियों और उलेमाओं के सामने खडे़ हो जाएं और उन्हें कहें कि हमें मुसलमान होने के अधिकार की बजाय भारतीय होने का विशेषाधिकार चाहिए, पूछना चाहिए कि क्या ये लोग मुस्लिमों को यह दिला सकते हैं ?

सुरेन्द्र चतुर्वेदी, जयपुर
सेंटर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट