अशोक मधुप
प्रधानमंत्री ने लाल किले से देश के शहीदों का स्मरण किया। उन्हें श्रद्धा सुमन भेंट किए।देश की भावी योजनांए बताईं किंतु उन क्रांतिकारियों के अवशेष भारत लाने की बात नही की जो देश से बहुत दूर शहीद हुए।देश में उनके स्मारक बनाने पर भी कोई बात नही हुई।
भारत के कई वीर और क्रांतिकारी देश के लिए लड़ते देश से दूर शहीद हुए । आजादी के 76 साल बीतने पर भी हम उनके अवशेष ,उनकी देह देश में लाकर सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार नही कर सके। उनकी समाधि भी नही बना सके। दिल्ली के अंतिम बाहशाह का यह शेर सभी पर उपयुक्त बैठता है − कितना है बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिए,दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।
पिछले दिनों 1857 क्रांति में शामिल रहे सैनिक अलम बेग की खोपड़ी ब्रिटेन से भारत आई है। अब उसकी जांच होगी और परिजनों का पता लगाकर अंतिम संस्कार के लिए उन्हें सौंपी जाएगी। अजनाला हत्याकांड से बचकर निकले अलम बेग की खोपड़ी लंदन के एक पब में रखी थी।कानपुर में उनकी हत्या करके अंग्रेज अधिकारी ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को वार ट्रॉफी के रूप में भेंट करने के लिए सिर ले गए थे। इसके बाद खोपड़ी को एक पब की शोभा बढ़ाने के लिए रखा गया।अलम बेग की खोपड़ी तो भारत आ गई किंतु अनेक वीर ऐसे हैं, जिनके अवशेष भारत आने का बर्षों इंतजार कर रहे हैं।
1857 के आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करने वाले दिल्ली के अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफर को अंग्रेज गिरफ्तार कर रंगून ले गई। । ऐसा कहा जाता है कि बहादुरशाह जफर मृत्यु के बाद दिल्ली के महरौली में कुतुबुद्दीन बख्तियार की दरगाह के पास दफन होना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए दो गज जगह की भी निशानदेही कर रखी थी।बर्मा में अंग्रेजों की कैद में ही सात नवंबर, 1862 को सुबह बहादुर शाह जफर की मौत हो गई। उन्हें उसी दिन जेल के पास ही श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफना दिया गया। इतना ही नहीं उनकी कब्र के चारों ओर बांस की बाड़ लगा दी गई और कब्र को पत्तों से ढंक दिया गया । सबसे पहले आजादी के पुरोधा सुभाष चंद्र बोस उनकी मजार पर गए।वहीं से देश के नाम संबोधन किया।पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनके दरगाह पर गए । उन्होंने अंतिम मुगल बादशाह को श्रद्धांजलि दी। । इनसे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी जब 2012 में इस साउथ-ईस्ट एशियाई देश का दौरा किया था, तो वह इस मजार पर गए थे।पूर्व राषट्रपति राम नाथ कोविन्द इस मजार पर गए । दो −दो प्रधानमंत्री और एक राष्ट्पति बहादुर शाह जफर के मजार पर गए पर किसी ने उनकी इच्छा दिल्ली के महरौली में कुतुबुद्दीन बख्तियार की दरगाह के पास दफन होने की पूरी करनी गंवारा नही की। जबकि बहादुर शाह जफर ने तो अपनी कब्र के के लिए दो गज जगह की भी निशानदेही कर रखी थी।
उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले का लाल जनरल बख्त खान किसी को याद नहीं।बख्त खान का जन्म बिजनौर जनपद के नजीबाबाद में हुआ था। बख्त खान रोहिल्ला पठान नजीबुदौला के भाई अब्दुल्ला खान के बेटे थे। 1817 के आसपास वे ईस्ट इंडिया कम्पनी में भर्ती हुए। पहले अफगान युद्ध में वे बहुत ही बहादुरी के साथ लड़े। उनकी बहादुरी देख उन्हें सूबेदार बना दिया गया। 40 वर्षों तक बंगाल में घुड़सवारी करके और पहले एंग्लो-अफगान युद्ध को देखकर जनरल बख्त खान ने काफी अनुभव लिया । मेरठ में सैनिक विद्रोह के समय वे बरेली में तैनात थे । अपने आध्यात्मिक गुरू सरफराज अली के कहने पर वह आजादी की लड़ाई में शामिल हुए। बरेली में विद्रोह करके एक जुलाई को बख्त खान अपनी फौज और चार हजार मुस्लिम लड़ाकों के साथ दिल्ली पंहुचे। इसी समय बहादुर शाह जफर को देश का सम्राट घोषित किया गया। बख्त खान को सम्राट शाह जफर ने उन्हें सेना के वास्तविक अधिकार और साहेब ए आलम बहादुर (लॉर्ड गवर्नर जनरल) का खिताब दिया।
बख्त खान ने बहादुर शाह जफर को सुरक्षा प्रदान की। दिल्ली को अच्छा प्रशासन देने की कोशिश की। लेकिन दूसरे स्थान से आए सैनिक और राजपरिवार तथा दरबार के कुछ व्यक्तियों के षडयंत्र के उनका आगे कोई बस न चला।अंग्रेजों की षडयंत्र के तहत 20 सितंबर 1857 को अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर को गिरफ्तार कर रंगून जेल भेज दिया।
बहादुर शाह जफर को गिरफ्तार के बाद बख्त खान ने दिल्ली छोड़ दी । वह लखनऊ और शाहजहांपुर में विद्रोही बलों में शामिल हो अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ते रहे। अंतिम दिनों में बख्त खान स्वात घाटी में बस गए । 13 मई 1859 को गंभीर रूप से घायल हो गए। बख्त खान को वर्तमान पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में दफनाया गया।
किसी देशवासी ने नही सोचा कि उनके शव को भारत वापस लाया जाए। उनको सम्मान के साथ दफनाकर भव्य स्मारक बनाया जाए। पाकिस्तान में बख्त खान के नाम पर फिल्में बनी किंतु भारत में उनके नाम पर कुछ नही हुआ।
क्रांतिकारी शहीद उधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को पंजाब प्रांत के संगरूर जिले के सुनाम गाँव में एक सिख परिवार में हुआ था। सन 1901 में उधमसिंह की माता और 1907 में उनके पिता का निधन हो गया। इस घटना के चलते उन्हें अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। उधमसिंह १३ अप्रैल १९१९ को घटित जालियाँवाला बाग नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शी थे। इस घटना से वीर उधमसिंह तिलमिला गए और उन्होंने जलियाँवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर माइकल ओ’डायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ले ली। अपने इस ध्येय को अंजाम देने के लिए उधम सिंह ने विभिन्न नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्रा की। सन् 1934 में उधम सिंह लंदन पहुँचे और वहां 9, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे। वहां उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार खरीदी और साथ में अपना ध्येय को पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक पिस्तौल भी खरीद ली। भारत के यह वीर क्रांतिकारी, माइकल ओ’डायर को ठिकाने लगाने के लिए उचित वक्त का इंतजार करने लगे।
जलियांवाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हाल में बैठक थी. यहां माइकल ओ’डायर भी वक्ताओं में से एक था. उधम सिंह उस दिन समय से ही बैठक स्थल पर पहुँच गए. अपनी रिवॉल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा ली.बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए उधम सिंह ने माइकल ओ’डायर पर गोलियां दाग दीं. दो गोलियां माइकल ओ’डायर को लगीं ,इससे उसकी तत्काल मौत हो गई. उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और अपनी गिरफ्तारी दे दी. उन पर मुकदमा चला। चार जून 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई।
पूर्व मुख्य मंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सुनाम में शहीद की याद में बने म्यूजियम और पार्क का उद्घाटन किया। यहां ऊधम सिंह से जुड़ी यादों को संजोकर रखा गया है।म्यूजियम में शहीद ऊधम सिंह का अस्थि कलश भी रखा गया है। ऊधम सिंह को लंदन में फांसी दिए जाने के बाद यह अस्थि कलश 31 साल तक वहीं पड़ा था और बाद में इसे पंजाब लाया गया।उधम सिंह की डायरी और पिस्तौल हम आज तक लंदन से नही मंगा सके । न ही कोई प्रयास हुआ।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साल पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर उनके नाम के द्वीप पर (On Netaji Subhash Chandra Bose Island) बनने वाले नेताजी को समर्पित राष्ट्रीय स्मारक के मॉडल का अनावरण किया । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पराक्रम दिवस के अवसर पर देश के महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस को श्रद्धांजलि देते हुए भारत के इतिहास में उनके अद्वितीय योगदान को याद किया।
इसके बावजूद किसी को जापान से उनकी अस्थि लाने की याद नही आई। 1960 के उस प्रस्ताव की किसी को याद नहीं। दूसरी लोकसभा का शीतकालीन सत्र चल रहा था। दो दिसंबर 1960 को निचले सदन में एक प्रस्ताव रखा गया कि जापान के रेंकोजी मंदिर से नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की अस्थियों को भारत लाया जाए। नेताजी की अस्थियों के लिए दिल्ली के लालकिले का सामने एक भव्य स्मारक बनाने की भी बात उसमें थी। संसद के इस प्रस्ताव के संबंध में उसी दिन दो दिसंबर 1960 को नेहरूजी ने डॉ. बिधान चन्द्र रॉय को एक पत्र लिखा। विधान चन्द्र रॉय तब पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे। नेहरूजी का वह पत्र गोपनीय था। उसमें नेहरूजी ने लिखा कि नेताजी की अस्थियों को भारत लाने की कोशिश भारत सरकार तभी करेगी, जब नेताजी का परिवार उसके लिए पहल करे। यह बात तो समझ में आती है। लेकिन, इसी पत्र में वह नेताजी के लिए लालकिले के सामने स्मारक का प्रस्ताव ठुकरा देते हैं। नेहरू जी नही चाहते थे, स्मारक नही बना,सुभाष च्रद बोस के नाम पर दीप का नाम रखकर समर्पित राष्ट्रीय स्मारक बन गया किंतु जापान के मंदिर में रखी सुभाष चंद बोस की अस्थियां आज भी इस इंतजार में हैं कि उनका देश उन्हें वापस लेकर आए।
प्रसिद्ध चौहान राजा पृथ्वीराज चौहान भारत के सम्मान रहे हैं। राजा पृथ्वीराज चौहान और मुहम्मद गौरी के बीच तराइन की दूसरी लड़ाई 1192 में हुई। तराइन के पहले युद्ध में परास्त होने वाले एवं बिना दंड छोड़ दिए गए मुहम्मद गौरी की विजय हुई।जनश्रुति के अनुसार मुहम्मद गौरी पृथ्वीराज चौहान को गिरफतार कर गजनी ले गया। पृथ्वीराज रासो का दावा है कि पृथ्वीराज को एक कैदी के रूप में ग़ज़नी ले जाया गया और अंधा कर दिया गया। यह सुनकर उनके मित्र कवि चंद बरदाई ने गज़नी की यात्रा की और मोहम्मद ग़ौरी को चकमा दिया। इसमें पृथ्वीराज ने मोहम्मद की आवाज़ की दिशा में तीर चलाया और उसे मार डाला। कुछ ही समय बाद, पृथ्वीराज और चंद बरदाई ने एक दूसरे को मार डाला।
इतिहासकार राजा पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बारे में अलग− अलग बाते कहते हैं। उनकी मौत की सच्चाई आज तक पता नही चली।उनका अंतिम संस्कार कहां हुआ यह भी पता नहीं।
दस्यू फूलन देवी के हत्यारे शेर सिंह राणा एक वीडियो क्लिप जारी करके अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की समाधि ढूँढकर उनकी अस्थियाँ भारत लेकर आने की कोशिश का दावा किया। शेर सिंह राणा के दावे और उसके द्वारा लाई गई अस्थियों की किसी ने जांच कराना गवांरा नही की। आज तक किसी ने यह पता लगाना गवांरा नही किया कि गजनी में पृथ्वीराज चौहान की कब्र है , या नहीं। किसी ने पृथ्वीराज चौहान की अस्थियां भारत लाकर उनकी समाधि बनाने की कभी बात नही की।