वन नेशन-वन इलेक्शन जैसा नाम वैसा ही होगा स्वरूप?

ऋतुपर्ण दवे

सच मेंभारत वन नेशन-वन इलेक्शन मोड में चला गया है।पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में कमेटीगठितहो गई है।इसी महीने 18 सितंबर से संसद का विशेष सत्र की चौंकाने वाली चर्चाएँ थमीं नहीं थी कि 24 घण्टे नहीं बीते कि सरकार ने अपनी नई मंशा साफ कर दी। हालांकि पहले हीदेश में मध्यावधि चुनाव की चर्चाएं तेज हो गईं थी। घरेलू रसोई गैस के दाम 200 रुपए घटानाइत्तिफाक नहीं हो सकता। भाजपा को लगता है कि उसके पासप्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का सबसे लोकप्रिय चेहरा है जिस पर देश को भरोसा है। इसी के चलते यह बड़ा फैसला लिया गया होगा?हर वक्त चुनावी मोड मे रहने वाली भाजपा,संगठन को लेकर जितनागंभीरहै उतनाकोई दूसरा दल नहीं।हो सकता है विपक्ष जब एकजुटता के लिए तीसरी बैठक कर रहा थातभी इन घोषणाओं से एकता के महायज्ञ में भाजपा ने बड़े विघ्न की आहुति दे दी हो?

मोदी शुरू से ही वन नेशन-वन इलेक्शन के पक्षधर रहे। राज्यसभा में भी पहले ही कह चुके हैं कि देश में एक बार चुनाव हो जाए तो सभी 5 सालों के लिए अपने-अपने कामों में जुट जाएं। सिंगल वोटर लिस्ट की भी वकालत कर चुके हैं। एक साथ चुनाव कराना लोकतंत्र और संविधान के मूल ढ़ांचे या देश के संघीय ढ़ांचे के साथ मजाक तो नहीं होगा? कहीं विधानसभा या लोकसभा चुनावों के परिणाम साफ नहीं आए और त्रिशंकु जैसी स्थिति बनी तब प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की नियुक्ति कैसे होगी? क्या इसमें बड़े-बड़े पेंच हैं।

समझ में आ गया कि संसद के विशेष सत्र का एजेण्डा क्या है।देश पहले भी 1952, 1957, 1962 और 1967 में एक साथ इलेक्शन हुए हैं। ये बात जरूर है तब यह शब्द आया था। 1968,1969 में बदलते राजनीतिक समीकरणोंसे कई विधानसभाएं और 1970 में लोकसभा भी भंग हुई। इसके बाद सेयह परिपाटी टूट गई।अब नरेन्द्र मोदी इसे बहाल करना चाहते हों?जिसे अब वन नेशन-वन इलेक्शन का नाम दिया जा रहा है। इसमें तमाम संवैधानिक पेंच होंगे, संशोधनों की जरूरत होगी। लोकसभा और विधानसभाओं के कार्यकाल को एक साथ करना होगा। सरकारी मशीनरी चुनावों में बार-बार नहीं उलझेगी। नई योजनाओं और जनकल्याण के काम में बार-बार लगती आदर्श आचार संहिता रोड़ा नहीं होगी औरतमाम चुनावी खर्चों में कटौती तो होगी ही।

राजनीतिक नजरिए से देखें तो कई राज्यों को लेकर भाजपा चिंतित है।उधर केन्द्र और राज्य का मसला अलग-अलग होता है।
• अभी देश में 2 केंद्र शासित प्रदेश, दिल्ली और पुडुचेरी सहित कुल 30 विधानसभाएं हैं।
• कर्नाटक छिन जाने के बादभाजपा केवल 15 प्रदेशों में ही काबिज है।
• 9 राज्यऐसे हैं जहां अपने दम पर है। बांकी 6 में सहयोगियों के साथ।
• दक्षिण भारत का एक भी राज्य नहीं होना भाजपा की चिंता का विषय है।
• 2018 में देश की 71 प्रतिशत आबादी पर भाजपा का शासन था।
• अब केवल 45 प्रतिशत पर सिमटी है।
• 160 सीटों की भाजपा पहचान कर चुकी है जिनमें ज्यादातर पर 2019 में हार हुई।

कुछ सर्वे भाजपा की चिन्ता भी बढ़ा रहे होंगे। 2024 में दोबारा सरकार बनने रोड़ा तो नहीं लेकिनलोकसभा सीटों का घटना बताना बुरा संकेत जरूर है। मंहगाई, बेरोजगारी रुक नहीं रही।मौसम का बुराहाल और लाभकारी योजनाओं के नाम पर प्रदेश सरकारों का लुटता खजाना अलग कहानी हैं। 2024 आमचुनावों से पहले के सभी विधानसभा चुनावों को लेकर भाजपा मेंअनिश्चितता है। कहीं संगठन में बगावत तो कहीं जनता का बिगड़ा मिजाज अलग परेशानी का सबब होगा?हिन्दी भाषी तीन बड़े राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ को लेकर भी चिंताएं बेजा नहीं है। ऐसे में गैस के दाम में कमीं जैसा अकेला लोक लुभावन पांसा कहीं पे निगाहें और कहीं पे निशाना ही है। लेकिन मोदी की अंतर्राष्ट्रीय छवि, जी-20 की सफलता, जबरदस्त वाकपटुता, जन-संवाद जैसे मुद्दे भाजपा पूरे देश में भुनाना चाहेगी।

एक सच्चाई ये भी कि कई विधानसभाओं के कार्यकाल अलग-अलग हैं।कुछ केगठित हुएचंदमहीनेबीते हैं।यकीनन सवाल बेहद पेचीदा है। लेकिन सच्चाई भी है कि राज्य और केन्द्र के लिए मतदाताओं की मानसिकता अलग-अलग होती है। 2019 में यह साफ दिखा।ऐसे में एक साथ चुनावोंसेक्षेत्रीय दलों की परिस्थियां और मानसिकता बिगड़ेगी।

जैसा की नाम है क्या वन नेशन-वन इलेक्शन में मतदाता केन्द्र, राज्य और स्थानीय निकाय में अलग-अलग मत देंगे?मतदान करते वक्त मामला भावनाओं से भी जुड़ेगा। 21 वीं सदी में 18 सितंबर से शुरू होने वाला संसद का विशेष सत्र भारत के लिए यकीनन ऐतिहासिक होगा। क्या सभी राज्यों की रायशुमारी और सहमति ली जाएगी? फिलाहाल वन नेशन-वन इलेक्शन की सच्चाई अभी नरेन्द्र मोदी के पिटारे में है जिसे बाहर आने के लिए कुछ इंतजार तो करना ही होगा।