इंडिया गठबंधन में सीटों के बंटबारे को लेकर तनातनी…..

गोविन्द ठाकुर

इंडिया गठबंधन के लिए सबसे बड़ी परेशानी टिकटों का बंटबारा ही है, कोई भी दल खुद को कम नहीं आंक रही है। जिस कारण इस मुददे पर बात आगे नहीं बढ पा रही है। पिछले कोऑडिनेशन कमिटी की बैठक में सभी बातों पर अमुमन चर्चा हुई मगर सीट शेयरिंग पर बात टल गई। सबसे अधिक परेशानी ममता बनर्जी, अरवींद केजरिवाल, लालू यादव और अखिलेश यादव की ओर से हो रही है। कांग्रेस भी संभावनायें को देखते हुए राज्यों के चुनाव के बाद इस मुददे पर बात करना चाहती है।

जिस बात की आशंका पहले से जताई जा रही थी वह अब सामने आने लगी है। विपक्षी पार्टियों के गठबंधन ‘इंडिया’ में सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस के नेता लगातार भाग ले रहे थे लेकिन पहले दिन से माना जा रहा था कि दोनों के बीच तालमेल की संभावना न्यूनतम है। इसका कारण सिर्फ यह नहीं कि दोनों पार्टियां एक दूसरे की धुर विरोधी हैं या ममता बनर्जी की पार्टी ने पश्चिम बंगाल में लेफ्ट मोर्चे का तीन दशक से ज्यादा पुराना शासन खत्म किया, बल्कि इसके रणनीतिक कारण हैं। इसी तरह पहले से यह आशंका जताई जा रही थी कि केरल में कांग्रेस और लेफ्ट का तालमेल नहीं हो सकता है। इसके भी कारण रणनीतिक ही हैं। अब सीपीएम ने इन दोनों राज्यों का सवाल उठा दिया है।

मुंबई में हुई ‘इंडिया’ की बैठक में 13 सदस्यों की समन्वय समिति बनी थी। इसकी घोषणा के बाद बताया गया कि इसमें 14 सदस्य होंगे। कहा गया कि 14वां सदस्य सीपीएम का होगा, जिसका नाम पार्टी की ओर से बाद में बताया जाएगा। लेकिन 13 सितंबर समन्वय समिति की पहली बैठक हुई तब तक सीपीएम ने नाम नहीं बताया। अब पार्टी ने कहा है कि वह समन्वय समिति का हिस्सा नहीं बनेगी। इसका सीधा कारण यह है कि जिन राज्यों में पार्टी का आधार है वहां उसे तालमेल नहीं करना है। जब उसको तालमेल नहीं करना है तो सीट बंटवारे की बैठक में उसके बैठने का भी कोई मतलब नहीं है।

ध्यान रहे केरल में सीपीएम के नेतृत्व वाला एलडीएफ लोकसभा की सिर्फ एक सीट जीत पाया है, बाकी 19 सीटें कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ के पास हैं। यह संभव नहीं है कि दोनों गठबंधन आधी आधी सीटें बांटें। अगर दोनों में गठबंधन होता है तो भाजपा के लिए पूरा मैदान खाली हो जाएगा और पिछले कई दशक से पैर जमाने के लिए संघर्ष कर रही भाजपा वहां स्थापित हो जाएगी। भले वह लोकसभा की एक भी सीट नहीं जीते लेकिन उसका वोट 10 से बढ़ कर दोगुना या उससे भी ज्यादा हो सकता है। तभी रणनीति के तहत लेफ्ट और कांग्रेस अलग अलग लड़ेंगे ताकि सभी 20 सीटों के साथ साथ वोट भी उन्हीं के पास रहे। दोनों को पता है कि 2026 में लोकसभा का चुनाव उनको एक दूसरे के खिलाफ ही लड़ना है।

पश्चिम बंगाल में लेफ्ट पार्टियों का कोई आधार नहीं बचा है। लेकिन उसको चिंता है कि अगर वह ममता बनर्जी के साथ गई तो छह-सात फीसदी का जो वोट उसके पास है वह भी खत्म हो जाएगा। वह वोट ममता और भाजपा में बंट जाएगा और लेफ्ट की वापसी का रास्ता हमेशा के लिए बंद हो जाएगा। दूसरा कारण यह है कि अगर आमने-सामने की लड़ाई होती है यानी लड़ाई त्रिकोणात्मक नहीं होती है तो हिंदू वोटों का ज्यादा ध्रुवीकरण होगा, जिसका फायदा भाजपा को हो सकता है। त्रिपुरा में भी सीपीएम के नेता किसी स्थिति में ममता बनर्जी की पार्टी को साथ रखने के लिए राजी नहीं होंगे। हालांकि वहां कांग्रेस के साथ तालमेल हो सकता है। सो, बंगाल और त्रिपुरा में लेफ्ट और कांग्रेस मिल कर लड़ सकते हैं और केरल में दोनों के बीच आमने सामने की घमासान लड़ाई होगी।
कांग्रेस कार्य समिति की हैदराबाद में हुई बैठक से एक बार फिर यह जाहिर हुआ है कि विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के अंदर सीट बंटवारा सबसे बड़ी समस्या है। दो दिन की कार्य समिति में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने इस पर विचार किया। हर राज्य की प्रदेश ईकाई के नेताओं की अपनी अपनी समस्या थी। एक बड़ी पार्टी के रूप में कांग्रेस सिद्धांत रूप से तालमेल करके लड़ने को राजी है। लेकिन तालमेल तो राज्यों के स्तर पर ही होगा और उसके लिए प्रदेश नेताओं की राय जरूरी है। प्रदेश के नेताओं ने कार्य समिति में खुल कर अपनी राय रखी और कहा कि भाजपा को हराने की जरूरत के नाम पर प्रादेशिक पार्टियां कांग्रेस को ब्लैकमेल कर सकती हैं और राज्यों में उसका हिस्सा घटा सकती हैं।

बताया जा रहा है कि कांग्रेस के नेता जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला की ओर से दिए गए सीट बंटवारे के फॉर्मूले से भी सहमत नहीं हैं। उमर ने 13 सितंबर को नई दिल्ली में शरद पवार के घर पर हुई ‘इंडिया’ की समन्वय समिति की पहली बैठक में एक फॉर्मूला पेश किया था। उन्होंने कहा था कि पिछले चुनाव में जो पार्टी जिन सीटों पर जीती है उस पर विचार करने की जरुरत नहीं है। जो पार्टी जिस सीट से जीती है वह वहां लड़े और बाकी सीटों के बंटवारे पर विचार हो। यह आइडिया कई पार्टियों को पसंद नहीं आया लेकिन सबसे ज्यादा परेशान कांग्रेस है।

असल में कांग्रेस पिछली बार सिर्फ 52 सीटों पर जीती है। उससे पहले यानी 2014 में वह सिर्फ 44 सीटों पर जीती थी। अगर उमर अब्दुल्ला का फॉर्मूला लागू हुआ तो कांग्रेस की सिर्फ 52 सीटें अपने आप उसके खाते में आएंगी और बाकी सीटों के लिए उसे सहयोगी पार्टियों के साथ हिसाब किताब बैठाना होगा। कांग्रेस कई राज्यों में एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हुई है। उन राज्यों में सभी सीटें विचार के दायरे में आएंगी और उन पर दूसरी पार्टियां भी दावा कर सकती हैं। इस फॉर्मूले के मुताबिक महाराष्ट्र में शिव सेना के उद्धव ठाकरे गुट का दावा अपने आप 18 सीटों पर हो जाएगा, जबकि कांग्रेस का दावा सिर्फ एक सीट पर होगा। सो, कांग्रेस ने इस फॉर्मूले को खारिज कर दिया है।

कांग्रेस के अलावा समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस आदि को भी इस पर आपत्ति है। ममता बनर्जी पिछली बार पश्चिम बंगाल की 42 में से सिर्फ 18 सीट पर जीती थीं लेकिन वे 24 सीटें तीन पार्टियों के बीच बंटवारे के लिए नहीं छोड़ सकती हैं। बहुत दबाव हुआ तो वे दो-चार सीट छोड़ेंगी। इसी तरह समाजवादी पार्टी ने सिर्फ पांच सीट जीती थी, जिसमें से दो सीट वह उपचुनाव में गंवा चुकी है। सो, इस समय उसके पास सिर्फ तीन सीट है लेकिन वह राज्य की 70 सीटों पर लड़ना चाहती है। बिहार में राजद के पास एक भी सीट नहीं है लेकिन वहां सभी सीटों पर डिस्कशन नहीं हो सकता है। इसलिए माना जा रहा है कि विपक्षी गठबंधन के नेताओं को नया फॉर्मूला बनाना होगा।