ओम प्रकाश उनियाल
महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा और राज्यसभा में सर्वसम्मति से पारित हो चुका है। सत्ता पक्ष फूले नहीं समा रहा है। विपक्षियों ने मजबूरन विधेयक का समर्थन दोनों सदनों में कर तो दिया। लेकिन, ओबीसी के मुद्दे को लेकर उनकी बैचेनी झलक रही है। विपक्षी इसे आगामी लोकसभा चुनावों का झुनझुना थमाया जाना बता रहे हैं। वास्तव में एक तरफ तो हम महिलाओं को पुरुषों की बराबरी का दर्जा देने की बात करते हैं। दूसरी तरफ उनके साथ भेदभाव का खेला खेलते हैं। महिलाएं बेशक समाज में आगे भी बढ़ रही हैं। केन्द्र व राज्य सरकारें उनके विकास एवं उत्थान के लिए समय-समय पर विभिन्न योजनाएं चलाती रहती हैं। उनकी सुरक्षा के दावे करती हैं। फिर क्या कारण है कि अनुकूल परिणाम नहीं मिलता। कितने प्रतिशत महिलाएं पुरुषों की बराबरी कर रही हैं, कितनी सरकारी योजनाओं से वास्तविक रूप से लाभान्वित हो रही हैं, कितने प्रतिशत सुरक्षा के दावे वास्तविक हैं, यदि सर्वेक्षण किया जाए तो सरकारों का सच सामने आ जाएगा? कागजी आंकड़ों की सच्चाई सब जानते ही हैं। सच पूछिए तो महिलाओं के जो अधिकार हैं या उनके लिए जो नियम-कानून बने हैं उन पर पुरुष समाज हावी रहता है। यदि महिलाओं को सचमुच पुरुष की बराबरी का दर्जा मिला होता तो क्या महिलाओं के भीतर असुरक्षा की भावना कभी पैदा होती ? क्या उनके अधिकारों का हनन होता? देश की राजनीति में केवल तैतीस प्रतिशत आरक्षण देकर ताल ठोकी जाती? काश! देश की संसद में पच्चास प्रतिशत महिलाओं का आरक्षण होना चाहिए था। ताकि, अपने अधिकारों को लेकर उनकी आवाज सशक्त बनकर सदन में गूंजती।