प्रो. नीलम महाजन सिंह
केरल सरकार व राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच चल रही रस्साकशी का मामला भारत के सर्वोच्च न्यायालय में ज़ोरों-शोरें से बहस का मुद्दा बन गया है। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला व न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा, की तीन-न्यायाधीशों की पीठ, के समक्ष केरल सरकार की याचिका की सुनवाई हो रही है। एक ओर विशेषाधिकार हैं तो दूसरी और राज्यपालों के संविधानिक अधिकार भी हैं। केरल राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान, ने कहा है कि, “केरल सरकार अपनी जूयूरिसडिकशन, कार्यक्षेत्र से बाहर कार्य करे रही है तो फिर उसका क्या उपाय है”? सुप्रीम कोर्ट ने केरल राज्य की इस दलील में दम पाया कि राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने एक बिल- अधिनियम को मंज़ूरी देने व सात को राष्ट्रपति के पास भेजने से पहले; आठ प्रमुख विधेयकों को दो साल तक लंबित रखकर एक “प्रतिद्वंद्वी” की तरह व्यवहार किया। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि राज्यपाल द्वारा विधेयकों को इतनी “असाधारण, लंबी अवधी तक लंबित रखने का न तो कोई कारण बताया गया और न ही कोई औचित्य। यह भी न्यायालय के ध्यान से नहीं बचा कि राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने केरल द्वारा दायर याचिका पर 20 नवंबर को राजभवन को नोटिस जारी करने के बाद ही विधेयकों पर कार्रवाई की है। केरल राज्यपाल द्वारा जो तर्क दिया जा रहा है उसमें कुछ खास दम नहीं है”। राज्यपाल इन विधेयकों पर दो साल तक क्या कर रहे थे? “राज्यपाल की शक्ति का इस्तेमाल विधायिका द्वारा लोकतांत्रिक कानून बनाने की सामान्य प्रक्रिया को विफल करने के लिए नहीं किया जा सकता है,” मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा। केरल राज्यपाल, आरिफ मोहम्मद खान ने कहा, “जो विधेयक राजनीत से प्रेरित हैं, उन्हें जनहित के साथ नहीं जोड़ना चाहिए”! स्वास्थ्य विधेयक पर हस्ताक्षर कर पारित कर दिया गया है।
अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने कहा कि जो कुछ हुआ उसके “राजनीतिक व गैर-राजनीतिक दोनों पहलू हैं, जिसमें मैं नहीं पड़ना चाहता”। वरिष्ठ वकील के.के. वेणुगोपाल, केरल गवर्नर का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। वेणुगोपाल ने कहा कि कोई भी संवैधानिक प्राधिकार मनमाने ढंग से सत्ता का प्रयोग नहीं कर सकता। “कृप्या दृढ़ता से कदम उठाएं अन्यथा लोगों को नुकसान होगा।
राज्यपालों को ‘कार्टेे-ए-ब्लांश’ नहीं दिया जा सकता। अनुच्छेद 168 के तहत, राज्यपाल; राज्य विधानमंडल का एक हिस्सा है,” मुख्य न्यायाधीश ने कहा। वेंकटरमणी ने एक बिंदु पर कहा, “प्रत्येक विधेयक को लोगों के अनुकूल-विधेयक के रूप में प्रस्तुत करना आसान था”। लेकिन वेणुगोपाल इस बात पर अड़े रहे कि राज्यपाल को सात विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने के लिए सदन को कारण बताना चाहिए था। राज्यपाल को यह बताना चाहिए कि क्या विधेयकों ने अनुच्छेद 254 (केंद्रीय व राज्य कानूनों के बीच असंगतता) का उल्लंघन किया है या क्या विधेयकों को संघ सूची में शामिल किया गया है। वैसे क्या राज्यपाल आंख मूंदकर विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं? इसके अलावा, एक धन विधेयक है, जो दो महीने पहले पारित किया गया था और उनकी सहमति के लिए उनके पास ही लंबित है। सर्वोच्च अदालत इस बारे में दिशानिर्देश तय करने के लिए तत्पर है कि राज्यपाल कब विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं; कब तक उन्हें मंज़ूरी देने से इनकार कर कर सकते हैं व उन्हें अनुच्छेद 200 के तहत किस अवधि तक सहमति देनी चाहिए। यह आवश्यक भी है। सर्वोच्च न्यायालय ने केरल को दिशानिर्देश तैयार करने के बिंदुओं को शामिल करने के लिए वर्तमान याचिका में संशोधन करने के लिए एक आवेदन दायर करने की अनुमति दी थी। इसमें कहा गया है कि जैसे ही राज्यपाल ने 2021 से लंबित आठ विधेयकों पर विचार किया, याचिका अपने वर्तमान स्वरूप में ही काम करने लगी। वेणुगोपाल ने कहा कि सात विधेयकों में से तीन – विश्वविद्यालय कानून संशोधन विधेयक (पहला संशोधन) 2021 विधेयक संख्या 50, विश्वविद्यालय कानून संशोधन विधेयक (पहला संशोधन) 2021 विधेयक संख्या 54 और विश्वविद्यालय कानून संशोधन विधेयक 2022 – राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को भेजे गए हैं। राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान द्वारा स्वयं प्रख्यापित अध्यादेश थे। केरल राज्यपाल ने स्वयं इन अध्यादेशों को मंज़ूरी दी थी, जो विधेयक बन गए। संविधान के अनुच्छेद 213(1) में कहा गया है कि राज्यपाल, राष्ट्रपति के निर्देश के बिना कोई अध्यादेश जारी नहीं करेंगें। इसलिए, उस समय राज्यपाल को इन कानूनों को बनाने के लिए राज्य विधायिका की क्षमता में कुछ भी असंवैधानिक नहीं मिला। वेणुगोपाल ने मुद्दों को सुलझाने के लिए राज्यपाल व केरल के मुख्यमंत्री को “एक साथ बैठने” की अटॉर्नी जनरल की पेशकश को “चेहरा बचाने का इशारा” (face saver) बताया। मुख्य न्यायाधीश ने पूछा कि क्या राज्य ‘राजनीतिक हिसाब-किताब’ निपटाने के लिए अदालत में है या मुद्दे को हल करने के लिए कोई तटस्थ आधार ढूंढ रहा है।
“आइए हम आशा करें कि राज्य में कुछ राजनीतिक दूरदर्शिता होगी। यदि ऐसा होता है, तो दिशानिर्देश बनाने की आवश्यकता नहीं होगी। हम कोई रास्ता निकालने का फैसला राज्यपाल व मुख्यमंत्री दोनों की बुद्धिमत्ता पर छोड़ते हैं। अन्यथा, हम यहां दिशानिर्देश तय करने के लिए हैं,” मुख्य न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने कहा। परोक्ष रूप से केरल राज्य; देश की अग्रिम श्रेणी में है व वहां अनेेक जनहित कार्य हो रहे हैैं।वेणुगोपाल ने अटॉर्नी जनरल की टिप्पणी पर प्रश्नचिन्ह लगाया। “राज्य खूबसूरती से काम कर रहा है। यह कृषि, सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल में नंबर एक राज्य है, तो वे क्या संकेत दे रहे हैं? यह अनुचित है,”। केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने तिरुवनंतपुरम में; सुप्रीम कोर्ट में केरल सरकार की याचिका पर मीडिया से बातचीत की। के.के. वेणुगोपाल ने कहा कि कोई भी संवैधानिक प्राधिकार मनमाने ढंग से सत्ता का प्रयोग नहीं कर सकता। “कृपया दृढ़ता से कदम उठाएं अन्यथा लोगों को नुकसान होगा। राज्यपालों को कार्टे ब्लांश नहीं दिया जा सकता। अनुच्छेद 168 के तहत, एक राज्यपाल राज्य विधानमंडल का एक हिस्सा है, ”उन्होंने जोर दिया। श्री वेंकटरमणि ने एक बिंदु पर कहा, “प्रत्येक विधेयक को लोगों के अनुकूल विधेयक के रूप में प्रस्तुत करना आसान था”। ‘संसदीय संप्रुभता’ पर नए सिरे से बहस छिड़ गई है। राज्यसभा में बतौर सभापति अपने पहले ही संबोधन में, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को उसे जनादेश का असम्मान बताया, जिसकी संरक्षक लोकसभा व राज्यसभा है। हालांकि अधिकारों को लेकर यह टकराहट कोई नहीं है। 1964 में विशेषाधिकार हनन को लेकर यूपी विधानसभा ने तो हाईकोर्ट के दो जजों को गिरफ्तार कर सदन में पेश करने का वॉरंट जारी कर दिया था। यह केस विधानसभा के तीसरे कार्यकाल की है। सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता; केशव सिंह ने गोरखपुर से लेकर विधानभवन के गलियारों तक एक पोस्टर चिपकाया, जिसमें कांग्रेस के विधायक नरसिंह नारायण पांडेय पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए थे। विधायक ने इसे विशेषाधिकार हनन मानते हुए विधानसभा स्पीकर, मदन मोहन वर्मा के सामने गुहार लगाई व मामला विशेषाधिकार समिति को भेज दिया गया। समिति ने केशव सिंह सहित चार लोगों को विशेषाधिकार हनन का दोषी माना और सदन के सामने पेश होने को कहा। बाकी लोग तो सदन के सामने आए, लेकिन केशव सिंह ने यह कहकर मना कर दिया कि उनके पास गोरखपुर से आने के लिए पैसे नहीं हैं। इस बीच उन्होंने स्पीकर को चिट्ठी भेज कर कहा कि सदन में तलब कर उन्हें चेतावनी दिए जाने का फैसला ‘नादिरशाही’ है। इससे विधानसभा आग-बबूला हो गई। मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी ने सदन में प्रस्ताव रखा कि केशव सिंह को गिरफ्तार कर सात दिन के लिए जेल भेजा जाए, जो पारित भी हो गया। केशव सिंह को गोरखपुर से गिरफ्तार करके लाया गया व उन्हें जेल भेज दिया गया। इसी बीच एक वकील बी. सोलेमन ने 19 मार्च 1964 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के सामने गिरफ्तारी को गलत बताते हुए याचिका दायर कर दी। केशव जेल के छह दिन काट चुके थे। सुनवाई के दौरान सरकार की ओर से कोई वकील पेश नहीं हुआ व हाईकोर्ट ने केशव सिंह को ज़मानत दे दी। स्पीकर ने इसे विधानसभा के अधिकार में हस्तक्षेप मानते हुए; फैसला देने वाले हाईकोर्ट के दोनों जज: नसीरुल्ला बेग और जी.डी. सहगल के साथ ही वकील बी. सोलेमन को गिरफ्तार कर सदन में पेश करने के लिए वॉरंट जारी कर दिये। दोनों जजों को यह खबर रेडियो के समाचार बुलेटिन के जरिए मिली। जजों ने अपने ही हाईकोर्ट में इस आदेश के खिलाफ याचिका दायर की। इस अभूतपूर्व घटनाक्रम में चीफ जस्टिस दुविधा में पड़ गए कि मामला सुनवाई के लिए किस बेंच के पास भेजा जाए। आखिरकार, दोनों याची जजों को छोड़कर हाईकोर्ट के सभी 28 जजों ने एक साथ मामले की सुनवाई की। हाईकोर्ट ने स्पीकर के आदेश पर रोक लगा दी। हालांकि इस मामले को लेकर हंगामे के बीच विधानसभा ने सफाई देते हुए वॉरंट रद्द कर दिये और संशोधित प्रस्ताव पास किया; कि दोनों जज व वकील सदन के सामने पेश होकर अपनी स्थिति साफ करें। हाईकोर्ट ने संवैधानिक संकट को देखते हुए राष्ट्रपति से अनुरोध किया कि वे सुप्रीम कोर्ट से इस पर राय ले लें। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा, “भारत में संविधान सर्वोच्च है और उसके उपबंधों की व्याख्या का अधिकार कोर्ट को है। इसलिए वह सदन के वॉरंट की वैधता भी जांच सकता है। हाईकोर्ट के किसी फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ही सुनवाई कर सकता है। संसदीय विशेषाधिकार; नागरिकों के मूल अधिकारों के अधीन हैं”। वैसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हाईकोर्ट ने केशव सिंह की ज़मानत रद्द कर दी व उन्हें सज़ा पूरी करने का आदेश दिया।1964 का यह केस भले ही म्यान में चला गया; लेकिन 1983-84 में एक नए विवाद के रूप में यह टकराव फिर सामने आया। इस बार मामला फंसा आंध्र प्रदेश की विधान परिषद और सुप्रीम कोर्ट के बीच। ‘इनाडु’ अखबार में परिषद की कार्यवाही के बारे में एक खबर छपी। खबर की भाषा को आपत्तिजनक बताते हुए परिषद ने मामला विशेषाधिकार समिति को भेज दिया। समिति ने अखबार के संपादक को नोटिस भेजा। करीब 11 महीने की जद्दोजहद के बाद विशेषाधिकार समिति ने संपादक को अवमानना का दोषी ठहराया और उन्हें हिरासत में लेकर सदन में पेश करने का आदेश दिया। संपादक ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ खटखटाया। चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ की बेंच ने यह कहते हुए गिरफ्तारी पर रोक लगा दी कि “परिषद ने एक छोटे से मामले को अनावश्यक गंभीरता से ले लिया है”। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से नाराज़ विधान परिषद ने इसे लोकतांत्रिक अधिकारों में दखल बताया। कोर्ट के आदेश के बाद भी परिषद ने पुलिस कमिश्नर को निर्देश दिए कि संपादक को गिरफ्तार किया जाए। आखिर मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव ने यह मामला राष्ट्रपति को इस अनुरोध के साथ रेफर कर दिया कि इसके संवैधानिक पहलुओं पर वह सुप्रीम कोर्ट से राय ले लें। लेकिन मुख्यमंत्री की चिट्ठी के बाद यह मामला विधान परिषद बनाम विधानसभा हो गया। परिषद ने सी.एम. के खिलाफ ही प्रस्ताव पारित कर दिया कि इस मामले को राष्ट्रपति को भेज उन्होंने विधान परिषद की गरिमा व शक्तियों को कम किया है। इससे नाराज़ होकर सत्तारूढ़ तेलुगू देशम पार्टी के विधायकों ने विधानसभा में प्रस्ताव पास किया कि विषय को राष्ट्रपति के भेजने का मुख्यमंत्री का निर्णय बिलकुल ठीक है। राजनीतिक खींचतान के बीच कोर्ट व विधायिका का यह विवाद धीरे-धीरे ठंडे बस्ते में चला गया। राज्यपालों से विवाद तो गरमाता ही जा रहा है।
संविधान के अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिशानिर्देश तय किए थे; जिसमें मंत्रिपरिषद को प्राप्त बहुमत का परीक्षण सदन के पटल पर किये जाने के आदेश दिए गए। वैसे ही केंद्र को राज्य को चेतावनी देनी चाहिए और जवाब देने के लिए एक सप्ताह का समय देना चाहिए। एस आर बोमाई निर्णय मील का पत्थर बन गया है। उसी प्रकार अधिनियमों को राज्य विधानसभा में पारित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को एक आदेश देना जाना चाहिए, जो राज्यपाल के संविधानिक अधिकारों व जनता द्वारा चुनी हुई विधानसभाओं में ‘राज्यपाल बनाम मुख्यमंत्री’ व पारित विधेयकों का भी मील का पत्थर बन जाए। प्रजातंत्र में जनहित सर्वोपरि होना चाहिए।
(वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक विश्लेषक, दूरदर्शन व्यक्तित्व व मानवाधिकार संरक्षण सॉलिसिटर)