अमलेंदु भूषण खां
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत के राज्यों की स्वास्थ्य व्यवस्था बेहतर है लेकिन उत्तर भारत का प्रमुख राज्य उत्तर प्रदेश दक्षिण भारत के राज्यों की राह पकड़ता दिख रहा है। स्वास्थ्य सेवाओं की स्थितिके बाबत नीति आयोग के सर्वे में जहां दक्षिण भारतीय राज्यों ने बेहतरस्थिति को बनाये रखा है, वहीं उत्तर भारत के राज्य पिछड़ते नजर आते हैं।कुल 24 मानकों के आधार पर तैयार सूचकांकों में केरल पहले की तरह एक नंबर पररहा, वहीं तमिलनाडु और तेलंगाना दूसरे-तीसरे स्थान पर रहे। लेकिन खास बात यह है कि उत्तर प्रदेश ने मानकों में सुधार कीदृष्टि से नंबर एक स्थान पाया है।
निस्संदेह, केरल स्वास्थ्य सेवाओं में बेहतर स्थिति में है, लेकिन बीसकरोड़ आबादी वाले उत्तर प्रदेश की तुलना 3.3 करोड़ आबादी वाले केरल सेनहीं की जा सकती। बड़ी आबादी के चलते पिछड़े राज्यों में प्रति व्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति जीडीपी और मानव विकास सूचकांक निचले स्तर पर हैं। लेकिनओडिशा इस मामले में अपवाद है कि दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति से बेहतर प्रशासनव जन भागीदारी से स्थिति में बदलाव लाया जा सकता है। यदि उत्तर भारत केपिछड़े राज्य स्थिति में बदलाव को कटिबद्ध हों तो उन्हें ओडिशा मॉडल काअध्ययन करना चाहिए। कमोबेश देश की राजधानी दिल्ली में भी स्वास्थ्य सेवाओंकी स्थिति उत्तर प्रदेश जैसी पिछड़ी होना चिंता की बात है। हालांकि, येदोनों ही प्रदर्शन सुधार की दृष्टि से अग्रणी क्षेत्रों में शुमार हैं।बहरहाल, कुल मिलाकर देश की स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति संतोषप्रद नहीं कहीजा सकती है।
दरअसल, नीति आयोग का हालिया सर्वे स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे को गंभीरतासे लेने को कहता है। यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि उत्तर भारत के राज्योंमें शिशु मृत्यु दर व प्रसूति माताओं की मौत का आंकड़ा आज भी ज्यादा क्योंहै? यह भी कि अस्पतालों में उपचार की विशेषज्ञता का अभाव क्यों है? चिंताकी बात यह है कि कई राज्यों में स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च मेंकटौती की गई है। जाहिर तौर पर इसका असर स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता परपड़ता है। इस कमी को दूर करने के गंभीर प्रयासों की जरूरत है। वैसे राज्योंकी स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता की असली कसौटी कोरोना महामारी होगी, तबपता लगेगा कि राज्यों का प्रशासन अपने नागरिकों को किस हद तक सुरक्षा कवचदे पाया। लब्बोलुआब यही है कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं को प्राथमिकता दियेजाने की जरूरत है। यहां यह सवाल भी स्वाभाविक है कि सभी राज्यों कोस्वशासन एक ही समय मिला। देश के उत्तर व दक्षिण राज्यों की सांस्कृतिक वआध्यात्मिक विरासत एक जैसी है, फिर स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति में इतनाअंतर क्यों है? जिस उ.प्र. समेत उत्तर क्षेत्र ने देश को सर्वाधिकप्रधानमंत्री दिये, ये इलाके राजनीतिक रूप से जागरूक भी हैं, ज्यादा आबादीके चलते इनका राजनीतिक दबदबा भी कायम रहा तो स्वास्थ्य सेवाओं की स्थितिइतनी बदतर क्यों? क्या ‘छोटा परिवार, सुखी परिवार’ का फार्मूला छोटे-बड़ेराज्यों पर लागू होता है? क्या उत्तर भारत में विकास के मुद्दों के बजायभावनात्मक मुद्दों व संकीर्णता की राजनीति की सजा इन राज्यों की स्वास्थ्यसेवाएं भुगत रही हैं?
कुछ साल पहले तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के बच्चे इंसेफलाइटिस की चपेट में आकर तड़प-तड़प कर मरते थे। पिछले 40 साल में इससे 50 हजार बच्चों की मौत हुई।
उत्तर प्रदेश की धरती अपने सांस्कृतिक वैभव, गौरवशाली इतिहास और समृद्ध विरासत के लिए जानी जाती है। इतना सामर्थ्य होने के बावजूद, उत्तर प्रदेश के साथ कुछ बातें जुड़ गई थीं। लोग कहते थे, उत्तर प्रदेश का विकास होना मुश्किल है। लोग कहते थे, यहां कानून व्यवस्था सुधरना नामुमकिन है। उत्तर प्रदेश बीमारू राज्य कहलाता था, यहां आए दिन हजारों करोड़ के घोटाले होते थे। लेकिन सिर्फ 5-6 साल के भीतर यूपी ने अपनी एक नई पहचान स्थापित कर ली है।
आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन को बेहतर ढंग से धरातल पर उतारने मेंजुटे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के प्रयासों का असर दिखने लगा है। प्रदेशना सिर्फ आयुष्मान भारत हेल्थ अकाउंट निर्मित करने में देश में नंबर एकस्थान पर है, बल्कि हेल्थ केयर प्रोफेशनल्स के रजिस्ट्रेशन, डिजिटल हेल्थइंन्सेंटिव स्कीम और स्कैन एंड शेयर टोकन जनरेट करने में भी उत्तर प्रदेशपूरे देश में नंबर वन पोजिशन पर पहुंच गया है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण की ओर से जारी आंकड़ों केअनुसार उत्तर प्रदेश 4,77,19,482 आयुष्मान भारत हेल्थ अकाउंट जनरेट करके पूरे देश में प्रथम स्थान पर है। जबकि आंध्र प्रदेश दूसरे, मध्यप्रदेश तीसरे, महाराष्ट्र चौथे औेर गुजरात पांचवें, पश्चिम बंगाल छठे, कर्नाटक सातवें और ओडिशा आठवें स्थान पर है। वहीं इन 4.77 करोड़ अकाउंट्सके अंतर्गत 2.73 करोड़ से ज्यादा लोगों के स्वास्थ्य आंकड़ें को भी ताजा कियाजा चुका है। इस मामले में भी उत्तर प्रदेश देश के प्रथम तीन राज्यों में शामिल है। मध्यप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़ और गुजरात इस मामले में उत्तर प्रदेश से काफीपीछे हैं।
इसी प्रकार हेल्थ केयर प्रोफेशनल्स रजिस्ट्रेशन के मामले में भी उत्तर प्रदेश देश में प्रथम स्थान पर है। प्रदेश में कुल 42,741 हेल्थकेयर प्रोफेशनल्स का रजिस्ट्रेशन आयुष्मान भारत डिजिटल मिशनके अंतर्गत किया जा चुका है। इसमें 10 हजार से अधिक डॉक्टर और 32 हजार सेअधिक नर्सिंग स्टाफ शामिल हैं। वहीं हेल्थ फैसिलिटी रजिस्ट्रेशन के मामले में प्रदेश देश में दूसरे स्थान पर है। प्रदेश में 38,863 हेल्थफैसिलिटी सेंटरों को रजिस्टर किया जा चुका है। इनमें सरकार और प्राइवेटस्वास्थ्य सुविधा केंद्र शामिल हैं। महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश औरमध्य प्रदेश क्रमश: तीसरे, चौथे, पांचवें और छठे स्थान पर हैं। कर्नाटक प्रथम स्थान पर है।
आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन के अंतर्गत स्कैन एंड टोकनजनरेट करने के मामले में भी उत्तर प्रदेश देश में प्रथम स्थान पर है। यूपीमें आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन सेवा के उपयोग से ऑनलाइन ओपीडी के लिए 33,79,592 टोकन रजिस्ट्रेशन किया गया, जो पूरे देश में सर्वाधिक है। इसरैंकिंग में कर्नाटक दूसरे, जम्मू एवं कश्मीर तीसरे, दिल्ली चौथे, आंध्रप्रदेश पांचवें और छत्तीसगढ़ छठे स्थान पर है। डिजिटल ओपीडी टोकनरजिस्ट्रेशन का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि पहले जहां आयुष्मान कार्ड धारीमरीजों को ओपीडी में दिखाने के लिए तकरीबन एक घंटे तक का इंतजार करना पड़ताथा, वह अब घटकर 5 मिनट रह गया है। तकरीबन 34 लाख बार मरीजों ने अबतकस्कैन एंड टोकन जनरेट सुविधा का लाभ उठाया है।
उत्तर प्रदेश में बेहतर हो रही स्वास्थ्य संरचना पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया का कहना है, ‘‘प्रदेश में हर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर हर हफ्ते स्वास्थ्य मेला लगता है। इसमें ढाई से तीन लाख गरीब लोगों का इलाज होता है। इस मॉडल को हम पूरे देश में लागू करेंगे ताकि सारे देश में भी हर सप्ताह स्वास्थ्य मेला लगाया जाए। सरकार ने टीकाकरण के लिये ‘डिजिटल प्लेटफार्म’ बनाया है जो बहुत अच्छा है। सभी अस्पतालों में ऑपरेशन थियेटरों का कितना इस्तेमाल हो रहा है, इसकी सूचना प्रदेश सरकार एक पोर्टल के जरिए दे रही है, इसे हम राष्ट्रीय स्तर पर लागू करेंगे।”
दरअसल स्वास्थ्य योजनाओं के लाभार्थियों को योगी सरकार ई-रुपी के माध्यम से सीधे उनके बैंक खाते में धन दे रही है। ऐसा करने वाला उत्तर प्रदेश देश का पहला राज्य है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश के ई-रुपी योजना को पूरे देश में लागू करने की रणनीति बनाई जा रही है। बेशक उत्तर प्रदेश में शिशु मृत्यु दर 38 है,यानी 1000 में से 38 बच्चे जन्म लेते ही काल के गाल में समा जाते हैं। यह समस्या सभी बीमारु राज्यों की है चाहे वह बिहार हो या मध्य प्रदेश हो या पश्चिम बंगाल।
एमबीबीएस सीट के मामले में भी उत्तर प्रदेश बिहार के लगभग बराबर है। एनएमसी के मुताबिक उत्तर प्रदेश में एमबीबीएस की करीब 26 हजार सीटें होनी चाहिए, जो मात्र 9 हजार के आसपास है।
26 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या 2800 के करीब है। 59 जनपदों में एक-एक मेडिकल कॉलेज है, जबकि 16 जनपदों में पीपीपी मॉडल पर मेडिकल कॉलेज के स्थापना की प्रक्रिया जारी है। गोरखपुर और रायबरेली का एम्स कार्यरत है। साथ ही महायोगी गुरु गोरखनाथ आयुष विश्वविद्यालय गोरखपुर का निर्माण शुरू है।
2017 से पहले राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं में अराजकता की स्थिति थी। उस दौरान न दवा थी और ना डॉक्टर थे। आज उसे काफी हद तक पटरी पर ला दिया गया है। स्वास्थ्य से संबंधित हर योजना का लाभ प्रत्येक लाभार्थी तक पहुंचाने के लिए प्रयास जारी है। इसी का परिणाम है कि भारत सरकार के “आयुष्मान भव” अभियान में राज्य को पहला स्थान मिला है। प्रदेश के 3,432 हास्पिटल आयुष्मान भारत योजना में शामिल किए गए हैं, जिसके कारण अब तक 21 लाख 98 हजार लोग लाभान्वित हुए हैं।
2014 तक चिकित्सा शिक्षा को जिस अभिजन मानसिकता के साथ विनियमित किया गया, उसने स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता को दुरूह बनाने का ही काम किया है। इस बात को सरकारों ने कभी स्वीकारा ही नहीं । डाक्टरी पेशे को एक तरह से अभिजन वर्ग के लिए ही अधिमान्यता देती नीतियों का नतीजा था कि 1950 से 2015 के कालखंड में देश में केवल छह मेडिकल कालेज ही प्रतिवर्ष खोले गए। भारत में चिकित्सा संस्थानों में एक स्थायी भेदभाव शुरु से ही बरकरार रहा है। स्वतंत्रता के बाद हमारी आबादी तो सात गुना से ज्यादा बढ़ गई, लेकिन देश में अस्पताल दोगुना भी नहीं बढ़े हैं।
दरअसल, 1990 में जो नीति बनाई गई, उससे निजी क्षेत्र को भी मेडिकल कालेज खोलने की अनुमति मिल गई, लेकिन इसका फायदा पहले से ही तुलनात्मक रूप से संपन्न महाराष्ट्र और दक्षिणी राज्यों ने उठाया। सच्चाई यही है कि सरकारी उदासीनता वाली पुरानी नीतियों ने जनस्वास्थ्य और चिकित्सा शिक्षा को एक चिह्नित सुगठित वर्ग के लिए ‘कुबेर का खजाना’ बनाकर रख दिया है।
देश के कुछ चुनिंदा राज्यों के एक संगठित तबके ने एलोपैथिक शिक्षा प्रणाली पर संख्यात्मक और गुणात्मक, दोनों तरह से दबदबा कायम कर लिया है। दक्षिण के छह राज्य आंध्र, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी के साथ महाराष्ट्र ने देश की कुल स्वीकृत एमबीबीएस की सीटों में से 48 प्रतिशत हिस्सा अपने यहां ले रखा है। देश के कुल 602 मेडिकल कालेज में से 290 निजी क्षेत्र के हैं। इन निजी कालेजों में से 165 तो इन सात राज्यों में ही स्थित हैं। इन राज्यों में केवल 105 कालेज ही सरकारें चलाती हैं। यानी सरकार की भागीदारी निजी क्षेत्र की तुलना में कम है।
लगता है इन राज्यों के पूंजीपति वर्ग ने स्वास्थ्य क्षेत्र के अपरिमित कारोबार को सबसे पहले समझकर इसे अपने प्रभाव से विनियमित करा रखा है। सरकारों ने भी शांत भाव से यहां का स्वास्थ्य क्षेत्र निजी हाथों में सौंप दिया है। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि निजी मेडिकल कालेज किस वर्ग के लिए सुविधाजनक होते हैं और इनसे निकलने वाले डाक्टर सामाजिक या सार्वजनिक सेवा के लिए कितने उपयुक्त होते हैं। इस साल के आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया था कि देश के केवल 20 प्रतिशत डाक्टर ही सरकारी सेवाओं में संलग्न हैं। यानी महंगी चिकित्सा हमारे मौजूदा सिस्टम से ही खड़ी हो रही है।
जिन राज्यों को विकास के मानकों पर फिसड्डी माना जाता है, वहां मेडिकल शिक्षा के मामले में पिछड़ापन 70 साल बाद भी कम नहीं हो पा रहा है। बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और हिमाचल जैसे हिंदी भाषी राज्यों की लगभग 65 करोड़ आबादी पर एमबीबीएस की सीटों की उपलब्धता केवल 30 प्रतिशत है।
यहां एमबीबीएस की कुल सीटों की संख्या 25,325 है। इन राज्यों में कुल 176 मेडिकल कालेज हैं जिनमें 72 निजी एवं 104 सरकारी क्षेत्र के हैं। यानी महाराष्ट्र एवं छह दक्षिणी राज्यों में जितनी संख्या निजी कालेजों की है, लगभग उतनी ही संख्या इन दस राज्यों में कुल मेडिकल कालेजों की है। नगालैंड देश का ऐसा राज्य है, जहां एक भी मेडिकल कालेज नहीं है।
मोदी सरकार ने इस असंतुलन को दूर करने की पहल की है। जिन जिलों में कोई मेडिकल कालेज नहीं हैं वहां मौजूदा जिला अस्पतालों को ही मेडिकल कालेज के रूप में स्थापित किया जा रहा है। इस तरह मोदी सरकार ने अब तक 157 नए मेडिकल कालेज तो खोले ही हैं, साथ ही 2026 तक 100 नए कालेज ऐसे जिलों में खोले जा रहे हैं, जिनकी आबादी 10 लाख से अधिक है।
यही वजह है कि 2014 में जहां देश के सभी मेडिकल कालेजों में एमबीबीएस की कुल 53,348 सीटें थीं, उनकी संख्या अब 92,219 हो गई है। पोस्ट ग्रेजुएशन पाठ्यक्रम में सीटों की संख्या 2014 में 23 हजार थी, जो आज 60 हजार से ज्यादा है। बेशक सरकार के इन कदमों से निजी कालेजों की मनमानी पर लगाम लगेगी और देश के गरीब तबके के बच्चों को सरकारी कालेजों में सीटों की उपलब्धता बढ़ेगी। योगी सरकार ने अपने बजट में चिकित्सा शिक्षा को भी विशेष महत्व दिया है। योगी सरकार ने प्रदेश में एक जिला एक मेडिकल कॉलेज की योजना को और रफ्तार देने के लिए 14 नये मेडिकल कालेजों की स्थापना एवं संचालन के लिए 2491 करोड़ 39 लाख रुपये की व्यवस्था की है। मालूम हो कि प्रदेश के 45 जिलों में मेडिकल कॉलेज चल रहे हैं जबकि 14 जनपदों में मेडिकल कॉलेज निर्माणाधीन हैं। वहीं 16 जिलों में मेडिकल कालेज की स्थापना पीपीपी मॉडल पर की जा रही है।
हालांकि 2015 तक राज्य में 933 पीजी मेडिकल सीटें थीं जिसके बाद 450 से अधिक सीटें जोड़ी गईं जिससे आंकड़ा 1400 से अधिक हो गया। धीरे-धीरे, हर साल अधिक सीटें जोड़ी गईं और वर्तमान में विभिन्न विशिष्टताओं में 1700 से अधिक सीटें हैं। राज्य सरकार द्वारा पहले से प्रस्तावित 763 सीटों के अलावा अन्य 150 सीटों को जोड़ने पर काम चल रहा है।
उत्तर प्रदेश सरकार यदि पीजी सीटें बढ़ाने में सफल हो जाती है तो यह पीजी सीटों के मामले में देश में महाराष्ट्र के बाद दूसरे नंबर पर होगा जहां वर्तमान में 2,488 पीजी सीटें हैं। जबकि दिल्ली में 1,895 और तमिलनाडु में 1,836 सीटें हैं। हर राज्य में हर साल कुछ सीटें बढ़ जाती हैं।
योगी सरकार ने प्रदेश में अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति को स्वास्थ्य की बेहतर सुविधाएं देने के लिए भारी भरकम 20 हजार करोड़ से अधिक का बजट आवंटित किया। जिसमें चिकित्सा एवं स्वास्थ्य के लिए कुल 17 हजार 3 सौ 25 करोड़ और चिकित्सा शिक्षा के लिए 2 हजार 8 सौ 37 करोड़ 39 लाख की धनराशि जारी की गई है।
सरकार की मंशा यदि सही हो तो बेपटरी हुई व्यवस्था को पटरी में लौटने पर ज्यादा समय नहीं लगता है।