सुरेन्द्र अग्निहोत्री
पवित्र जीवनदायनी नदियाँ कराह रही है, कूढ़ाघर बनने को मजबूर है। कुकरैल नदी की तरह सब नदियों को भागीरथ मिलेगा? गंगा, यमुना, घाघरा, बेतवा, सरयू, गोमती, काली, आमी,राप्ती केन मंदागिनी आदि नदियों के सामने अपने आप को बनाये रखने की चिंता खड़ी हो गयी है। बालू के नाम पर नदियों के तट पर कब्जा जमा बैठे माफियाओं और उद्योगों ने नदियों की सुरम्यता को अशांत कर दिया ! अशांत इसलिये क्योंकि प्रदूषण फैलाने वाले और पर्यावरण को नष्ट करने वाले अपराधियों का बोलबाला है। जलस्रोत पाटकर माफिया दिन रात लूट के खेल में लगे हुये है। नदियों के साथ छेड़छाड़ और अपने स्वार्थो के लिये नदियों को समाप्त करने की साजिश निरंतर चल रही है। गंगा पर एक्सप्रेस-वे से गंगा नदी के इर्द गिर्द रहने वाले 50 हजार से ज्यादा दुर्लभ पशु पक्षियों के समाप्त हो जाने का खतरा है। नदी को देवी और मॉ के रूप में दर्जा देने वाले गंगा और यमुना के मैदानी भागों में माफियाओं और सत्ताधीशों की जुगलबन्दी का खौफनाक मंजर साफ दिख रहा हैं। नदियों के मुहाने और नदियों के पाट स्वार्थो की बलिवेदी पर नीलाम हो रहे है। अत्याधिक रेत खनन के चलते जल जीवों के सामने संकट मड़रा रहा हैं। गंगा की औसत गहराई जहां 2004-2005 में 12 मीटर थी वह 10 वर्ष पहले 2044-2025 में 10 मीटर रह गयी है। वर्तमान समय में जलस्तर में गिरावट जारी है। आईआईटी कानपुर के एक शोध पत्र में स्पष्ट बताया गया है कि पूरे प्रवाह में गंगा करीब चार मीटर उथली हो चुकी है। गाद सिल्ट के बोझ से बांधों की आयु घटती जा रही है। जीवनदायनी और सदा नीरा गंगा कानपुर के पास दशक भर पूर्व 15 से 20 मीटर गहरी थी जबकि पहाड़ी इलाकां में इसकी गहराई मात्र चार मीटर ही गहरी थी। जलवायु वेत्ता परमेश्वर सिंह अपनी किताब पर्यावरण के राष्ट्रीय आयाम में नदियों के घटते दायरे पर चिंता जता चुके है। वह कहते है बात केवल गंगा तक ही सीमित नही है। गत एक दशक में बूढ़ी गंडक 6 से 4 मीटर, घाघरा 6 से 4 मीटर, बागमती 5 से 3 मीटर। राप्ती 4.5 एवं यमुना की औसत गहराई इन वर्षो के अंतराल में 3.5 से दो मीटर तक कम हो चुकी है। नदियों का पानी पीने लायक तक नहीं बचा है। कभी बेतवा नदी का पानी इतना साफ व स्वास्थ्यवर्धक रहता था कि टीबी के मरीज भी इस जल का सेवन कर स्वस्थ हो जाते थे। आज बेतवा नदी के किनारे की बस्ती के लोग उसमें गंदगी डाल रहे है। पानी बहुत प्रदूषित हुआ है।यमुना नदी में पुराना यमुना घाट से लेकर यमुना पुल तक नदियों में शव, गंदगी फेंकी और बहायी जाती है। हमीरपुर का पानी पुराने यमुना घाट में नाले के जरिए यमुना नदी में डाला जा रहा है। डुमरियागंज से निकली आमी नदी सरयू नदी, काली नदी का बुरा हाल है।किसानों की सूखती फसलों को इन नदीयों से पानी मिलता था खेत लहलहा उठते थें। मछलियां, कीड़े मकोड़े सभी खूब अठखेलियां करते। जलीय पौधे भी स्वस्थ रहते थे।लेकिन सब दिन एक जैसे नही होते। आज खुद को नदियाँ देखती है तो हूक सी उठती है। लेकिन सुना है कि मोक्षदायिनी मां गंगा भी मैली होती जा रही है। हे राम! मैं तो आखिरी सांसें गिन ही रही हूं। मेरे साथ जो सलूक किया, वो कम से कम मोक्षदायिनी गंगा मईया के साथ मत करना। यही मेरी अंतिम इच्छा है। क्या पूरी करेंगे आप सब? गंगा में गिरने वाले नालों को पूरी तरह रोकने तथा सीवरेज के ट्रीटमेंट का भरोसा फिर यह सवाल भी उठना लाजमी है । गंगा तट पर वाराणसी समेत 116 शहर बसे है जिनकी आबादी एक लाख से ज्यादा हे। इन शहर के नालों से गिरने वाली गंदगी ही गंगा के 95 फीसदी प्रदूषण का कारण मतवाले मानसून के बल पर सदानीरा बनने वाली नदियां वर्षा के बूंदो को अपने आंचल में छुपाकर एक लम्बी यात्रा के साथ हमारे होठों को तरलता देकर जीवन चक्र को गतिमान करती है। प्रकृति के इस विराट खेल का अंदाजा इसी बात से चल जाता है कि भारत के पश्चिमी तट पर करीब 75 अरब टन जल बरसता है। भारत का मैदानी इलाका 15 लाख किमी के क्षेत्र में फैला है। इस क्षेत्र में 1.7 सेमी औसत दैनिक वर्षा का अर्थ हुआ कि पश्चिमी तट से भारत में प्रवेश करने वाला वाष्प का एक तिहाई भाग जल में परिवर्तित होता है। जल है तो कल है का नारा लगाने वाले भारतीय मानसून नामक अरबी शब्द से अपनी सारी आशा आकांक्षाये और आंशकायें प्रकट करते है। इस एक शब्द ने सदियां से इस भुखण्ड के लोगों को इतना प्रभावित किया है कि हमारी जीवन शैली और संस्कृति मानसून और नदियों के इर्द गिर्द समिट गयी है। गंगा और यमुना का मैदानी भाग दुनिया का सबसे उपजाऊ क्षेत्र माना जाता है। लेकिन अब गंगा ही नही बेतवा, केन, शहजाद, सजनाम, जामुनी, बढ़ार, बंडई, मन्दागनी, नारायन जैसी अनेक छोटी बड़ी बुन्देलखण्ड में बहने वाली नदियों पर संकट खड़ा हो गया है। जिस शहजाद नदी का डा0 हरबंश राय बच्चन ने कैम्ब्रिज में पढ़ते हुये याद किया आज ललितपुर के बीच शहर से निकलने वाली शहजाद नदी का हाल बेहाल है। प्रदूषण की शिकार इस नदी को लोगों ने अपना आशियाना के रूप में इस्तेमाल करने के लिये आधे से अधिक जगह में पाट दिया हैं। यही हाल कुछ-कुछ इससे मिलने वाले नालों का है सरकारी के तंत्र के सहारे नालों पर आलीसान महल खड़े हो गये। कराहती नदियां अपनी पीड़ा कहे तो किससे कहे? कौन सुनेगा नदी की अकाल मृत्यु की शोक गाथा! कौन मनायेगा मातम! क्या जब सब कुछ चुक जायेगा , तब हमें याद आयेगा! एक नदी थी, जो देती थी हमे जीवन दान, जिससे उपजता था हमारा अन्न धान, हमने किया व्यवधान, खत्म हो गये नदी के प्राण।