गोपेन्द्र नाथ भट्ट
राजस्थान में अगले एक दो महीनों में होने वाले सात विधानसभा सीटों के चुनाव प्रदेश की राजनीति की दशा और दिशा तय करेंगे। राज्य की सात विधानसभा सीटों पर होने वाले उप चुनाव को लेकर सभी राजनीतिक दल अपनी अपनी तैयारी कर रहे है। फिलहाल भाजपा और कांग्रेस के छोटे बड़े नेता हरियाणा और जम्मू कश्मीर के विधान सभा चुनावों में व्यस्त हैं। इन प्रदेशों के चुनाव परिणाम दोनों दलों के होसलें बढ़ाएंगे अथवा हताशा बढ़ाएंगे । इन चुनावों के बाद महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों का बिगुल भी बजेगा। संभवत इन दो प्रदेशों के चुनाव के साथ ही राजस्थान के उप चुनाव होंगे। चुनाव आयोग अपनी तैयारियां कर रहा हैं। नियमानुसार विधान सभा की किसी सीट के रिक्त होने के छह माह में उप चुनाव होने चाहिए।
राजस्थान में भाजपा और कांग्रेकी जीत की संभावनाओं के मार्ग में प्रादेशिक पार्टियां सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो रही हैं। इनमें अन्य दलों के साथ ही राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी और भारतीय आदिवासी पार्टी मुख्य है जोकि पूरी तरह से चुनाव लडने को मुस्तैद दिख रही है। चुनावी तैयारियों के बीच सभी दलों में मैराथन बैठकों का दौर भी चल रहा है। ध्यान देने वाली बात यह है कि इस साल सम्पन्न हुए लोकसभा चुनाव के साथ ही बांसवाड़ा में बागीदौरा विधानसभा सीट पर भारतीय आदिवासी पार्टी ने जीत हासिल कर सत्ताधारी दल बीजेपी और कांग्रेस से लोकसभा और विधान सभा की दो सीटें एक साथ छीन ली थी।
राजनीतिक विश्लेषको के अनुसार प्रदेश में चुनावी हलचल तेज होने के साथ ही भाजपा और कांग्रेस के अपनी अपनी जीत के दावे कर रही हैं। हालांकि सत्ताधारी दल भाजपा और प्रतिपक्ष कांग्रेस के सभी सात सीटों पर जीत के दावे वास्तविकता से दूर हैं।
विश्लेषको की नजर से जिन सीटों पर उपचुनाव होने है उनमें सलूंबर सीट पर लगातार तीन चुनावों में काबिज रही भाजपा के मौजूदा विधायक के असामयिक निधन के बाद यदि सहानुभूति लहर चली तो भाजपा की जीत के तय मानी जा रही है। लेकिन यहां भी भारतीय आदिवासी पार्टी बाप भाजपा की जीत की राह में बाधक बन रहीं है । निकटवर्ती डूंगरपुर जिले की चौरासी सीट पर भी भारतीय आदिवासी पार्टी बाप अपना दावा पेश कर रही है। बांसवाड़ा से महेन्द्र जीत सिंह मालवीय जैसे बड़े आदिवासी नेता को चुनाव हरा कर आए बाप सुप्रीमो राजकुमार रोत किसी भी हालत में कांग्रेस को मौका देना नही चाहते। कांग्रेस ने उन्हें लोकसभा चुनाव में समर्थन दिया था। चौरासी की सीट राजकुमार रोत के सांसद बनने से ही खाली हुई है। यहां उन्होंने कांग्रेस के पूर्व सांसद ताराचंद भगोरा को हराया था। कांग्रेस यहां अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए चुनाव लडना चाहती है। नागौर की खींवसर में भी सांसद हनुमान बेनीवाल की क्षेत्रीय पार्टी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी का आधार अब भी मजबूत है। अगर दोनों दल इस बार लोकसभा के चुनाव पूर्व वाले गठबंधन को कांग्रेस के साथ कायम रखते हैं, तो उनके विजयी रथ को रोक पाना आसान नहीं होगा।
अलवर जिले की रामगढ़ से मरहूम विधायक जुबेर खान की पत्नी पूर्व विधायक जाहिदा को टिकट मिलने पर कांग्रेस के लिए यह मुकाबला चुनौतीपूर्ण हो सकता है, जबकि बीजेपी के लिए टिकट चयन अग्नि परीक्षा होगा। हालांकि कांग्रेस नेता दस सालों के उपचुनाव के नतीजों पर प्रदर्शन के लिहाज से कांग्रेस के मुकाबले बीजेपी को काफी पीछे देख रहे हैं। जुबेर खान और उनकी पत्नी का इस सीट पर अच्छा खासा असर रहा है और इस बार भी यदि हरियाणा के चुनाव में कांग्रेस जीत कर आती है तो यह सीट कांग्रेस के लिए और अधिक आसान हो सकती है।
इधर भाजपा की अपनी चुनौतियां है। नए प्रदेशाध्यक्ष मदन राठौड़ और और प्रदेश प्रभारी राधा मोहन अग्रवाल के लिए राजस्थान में उपचुनाव की रणनीति तैयार करने के लिए ज्यादा समय नहीं है। हालांकि मुख्यमंत्री भजन लाल को संगठन का पुराना अनुभव है। फिर भी जमीनी आधार को नजरअंदाज कर हो रही बयानबाजी भी बीजेपी के लिए चुनौतियां खड़ी कर रही हैं।
राजनीति की समझ रखने वाले विश्लेषकों का मानना है कि मेवाड़ और वागड़ में भाजपा को अपने संगठन की मजबूती दिखानी होगी वहीं खींवसर में हनुमान बेनीवाल के मुकाबले में दिख रही ज्योति मिर्धा के लिए मौजूदा मुश्किलों को समझना होगा।
इसी तरह से पूर्वी राजस्थान की देवली उनियारा सीट पर गुर्जर-मीणा वोट बैंक का सामंजस्य बैठाने के लिए डॉ किरोड़ी लाल मीणा की भूमिका को महत्वपूर्ण हैं । बीजेपी अगर यहां अपने कद्दावर नेता डॉ किरोड़ी लाल मीणा को विश्वास में लेकर मेहनत करती है तो वह तीन सीटों पर भाजपा को जीत के करीब ला सकते हैं, लेकिन उपचुनाव में सभी सीटों को जीत पाना भाजपा के लिए सत्ता में होने का लाभ मिलने के बावजूद फिलहाल एक मुश्किल दाव दिखाई दे रहा है।
इसी प्रकार कांग्रेस में सचिन पायलट का फैक्टर महत्वपूर्ण है।इस इलाके में तीन पायलट समर्थक नेताओं के सांसद बनने के बाद खाली हुई विधानसभा सीटों में दौसा में मुरारीलाल मीणा, देवली उनियारा में हरीश मीणा और झुंझुनू में बृजेन्द्र ओला के विकल्प के रूप में टिकट किसे मिलता है यह देखना महत्वपूर्ण होगा। इन सीटों पर टिकटों के वितरण में सचिन पायलट की पसंद का ख्याल रखा जाएगा या नहीं, ये कहा नहीं जा सकता. इसी तरह से कांग्रेस में प्रदेशाध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा और नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली भी रणनीतिक लिहाज से चुनावों पर काफी कुछ निर्भर करेगा। विश्लेषक मानते हैं कि यह चुनाव कई नेताओं के राजनीतिक भविष्य की लकीर को तय करने वाले रहेंगे।
राजस्थान में इस बार जिन विधानसभा सीटों पर उप चुनाव होने है उनमें लोकसभा चुनाव जीतकर सांसद बने नेताओं के कारण खाली होने वाली सीटों में दौसा, देवली-उनियारा, झुंझुनू, खींवसर, चौरासी सीटे शामिल हैं। इनमें तीन सीटों पर कांग्रेस तो दो पर क्षेत्रीय दल काबिज थे। खींवसर में आरएलपी की एंट्री के बाद लंबे वक्त से बीजेपी-कांग्रेस जीत की राह तलाश रही है। इसी प्रकार वागड़ की चौरासी सीट भी इसी तर्ज पर दोनों दलों के लिए चुनौती बनी हुई है। खींवसर से आरएलपी सुप्रीमो हनुमान बेनीवाल ने सीट रिक्त की है, तो चौरासी में बीएपी ने नेता राजकुमार रोत के कारण सीट खाली हुई है। दौसा से मुरारीलाल मीणा, देवली-उनियारा से हरीश चंद्र मीणा और झुंझुनू से बृजेन्द्र ओला की जीत के बाद कांग्रेस के कब्जे में रही सीट पर वोटिंग होगी। इसी तरह बीजेपी विधायक अमृतलाल मीणा और कांग्रेस के विधायक जुबेर खान के निधन से खाली हुई सलूंबर और रामगढ़ सीट पर भी वोटिंग होनी है। इस तरह सात सीटों का यह चक्रव्यूह प्रदेश की राजनीति में नया मोड़ ला सकता है।
वैसे उपचुनाव में पिछले 10 सालों का जो इतिहास रहा है,उस पर नजर डालना भी बहुत दिलचस्प है। प्रदेश में परिसीमन के बाद एक दशक के दौरान अब से पहले 16 सीटों पर उपचुनाव के लिए वोटिंग हुई है। पुराने नतीजों को देखने पर साफ नजर आता है कि इन चुनावों में कांग्रेस, भाजपा पर बहुत भारी रही है और क्षेत्रीय दलों का अपने-अपने क्षेत्रों में दबदबा रहा है। 2013 से अब तक हुए उपचुनाव में कांग्रेस को 10 और भाजपा को 4 सीटों पर जीत मिली हैं।वहीं, बीएपी और आरएलपी भी अपने प्रभुत्व को एक-एक बार साबित कर चुके हैं। इससे पहले कांग्रेस के शासनकाल के दौरान 2019 से 2022 तक विधानसभा की 9 सीटों पर उपचुनाव के लिए अलग-अलग समय पर वोट डाले गए थे।इनमें से 7 सीटों पर कांग्रेस और एक पर बीजेपी ने जीत दर्ज की थी। कांग्रेस के खाते में मंडावा, सुजानगढ़, सरदारशहर, सहाड़ा , धरियावद और वल्लभनगर की सीट गई थी, जबकि भाजपा के खाते में राजसमंद और आरएलपी ने खींवसर सीट पर उपचुनाव जीता था। इनमें से ज्यादातर सीटें कांग्रेस के कब्जे वाली थीं। इससे पहले साल 2013 से लेकर 2018 के बीच कांग्रेस ने नसीराबाद, वैर, सूरतगढ़ और मांडलगढ़ सीट पर उपचुनाव में जीत हासिल की थी, जबकि भाजपा के खाते में धौलपुर और कोटा दक्षिण सीट की जीत नसीब हो सकी थी।बीते 10 साल में तीन बार ऐसा हुआ कि विधानसभा चुनाव के बीच प्रत्याशी का निधन हो गया और वोटिंग स्थगित हो गई। इन चुनावी मुकाबले में कांग्रेस ने दो बार, तो भारतीय जनता पार्टी ने एक बार जीत हासिल की थी। वर्ष 2014 की शुरुआत में चूरू में भाजपा, जनवरी 2019 में रामगढ़ और जनवरी 2024 में श्रीकरणपुर विधानसभा सीट पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी।
वैसे उप चुनावों में सत्ताधारी दल को अधिक फायदा होता है और प्रायः जीत भी सत्ताधारी दल के उम्मीदवारों की ही होती है लेकिन यदि शासन करने वाली पार्टी का उम्मीद्वार चुनाव हारता है तो यह उस दल के लिए एक गलत संदेश भी होता है। ऐसी परिस्थिति में इस बार राजस्थान में होने वाले विधान सभा उप चुनाव भाजपा विशेष कर मुख्यमंत्री भजन लास शर्मा के लिए किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं कहे जा सकते।
देखना है इस बार राजस्थान की सात विधानसभा सीटों के चुनाव प्रदेश की राजनीति की दशा और दिशा किस प्रकार तय करेंगे?