क्या शिक्षा का बाजारीकरण हो चुका है!

Has education been commercialised?

आनंद पांडेय

शिक्षा के बाजारीकरण का अर्थ है शिक्षा को बाजार में बेचने खरीदने की वस्तु में बदल देना! प्राचीन काल में छात्र गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे! वहां गुरु छात्र को संस्कारी बनाते थे! लेकिन आधुनिक युग में लोगों के पास शायद विकल्प कम रह गए है? इसी का फायदा कोचिंग संस्थान उठा रहे है! शिक्षा को व्यवसाय बनाकर उसका बाजारीकरण किया जा रहा है!? आज हर गली,मोहल्ले, सोसाइटी, सभी को झूठे प्रलोभन देकर ये कोचिंग सेंटर अपने जाल में फंसा रहे हैं? मजबूर और असहाय अभिभावक विकल्प खोजते खोजते उनकी चिकनी चुपड़ी बातों में फंस जाते है जिसका लाभ निजी संस्थान उठाते है! आज जहां एक ओर हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था का स्तर कही बेहतर है तो वही एक तबका ऐसा भी है जहां शिक्षा व्यवस्था काफी बुरे दौर से गुजर रही है?

मौजूदा समय में हमारे देश में दो प्रकार के विद्यालय है! सरकारी और गैर सरकारी!? गैर सरकारी विद्यालयों में में कई तो ऐसे पूंजी पति लोग देखने में आते है जिनका शिक्षा से कोसो दूर तक कोई नाता नहीं होता!? लेकिन इन्होंने अपने धन वैभव के बल पर इन विद्या मंदिरों को सिर्फ़ और सिर्फ़ पैसा कमाने का साधन बना डाला है? आज के युग (समय)में कोचिंग एवम् ट्यूशन संस्कृति का बोलबाला है!? बड़े बड़े उद्योग पति भी शिक्षा में धन का निवेश कर रहे हैं! शिक्षा में धन के निवेश को अच्छा कहा जा सकता हैं। किंतु उनका उद्देश्य शिक्षा का विकास नहीं बल्कि धन कमाना ही है! शिक्षा के बाजारीकरण से भारत मे निजी संस्थानों की बाढ़ सी आ गई हैं। किंतु लाखों की संख्या में मौजूद इन निजी शिक्षण संस्थानों में से नब्बे प्रतिशत संस्थान या तो शिक्षा की गुणवत्ता पैमाने पर खरे नहीं उतरते या फिर उनके पास पर्याप्त मात्रा में शैक्षिक संस्थान नहीं हैं!? बाजारीकरण में फर्जी शिक्षा संस्थानों की संख्या भी निरंतर बढ़ती जा रही है! जो चिंता का विषय है”

विद्यालयों में आज की स्थिति यह है कि यहां हर बच्चे के मां बाप अपने बच्चों को पढ़ते हुए देखना चाहते हैं! इसका कारण यह है कि यहां हर तरह की मूलभुत सुविधाएं हैं लेकिन फीस के नाम पर इतनी धांधलेबाजी है कि यहां हर कोई मां बाप यहां अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दे सकते हैं? वही दूसरी ओर सरकारी विद्यालयों की हालत काफ़ी गई गुजरी है! कुछ सरकारी विद्यालय गैर सरकारी विद्यालयों से काफी अच्छे हैं पर इनकी संख्या काफ़ी कम है! अधिकतर सरकारी स्कूल गरीबों के शिक्षा केंद्र बनकर रह गए हैं!? शिक्षा की यह विषमता सामाजिक और आर्थिक विषमता की खाई को बढ़ा रही हैं!? मंहगाई और बाजारीकरण के मौजूदा दौर में छात्र इस असमंजस में फंसे हुए हैं,” कि वह कमाने के लिए पढ़े या पढ़ने के लिए कमाए !!? बाजारीकरण की दीमक पूरी शिक्षा व्यवस्था को खोखला करती जा रही है?

कई बार देखने आया है कि प्रतिस्पर्धा या ईर्ष्या के कारण भी निजी स्कूल अपनी गुणवत्ता का प्रदर्शन करते हैं और इसके लिए सभी उचित अनुचित तरीकों को अपनाते हैं! जो की सर्वथा अनुचित हैं!? एक अच्छा और सुशिक्षित अध्यापक भी बेरोजगारी के डर से सात आठ हज़ार की नौकरी करने को तैयार हो जाता हैं! लेकिन वह इतने कम वेतन का हकदार नहीं होता है!? एक श्रेष्ठ अध्यापक वही हैं जो छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ न करें तथा जिसका उद्देश्य मात्र धन अर्जित करना नहीं अपितु ज्ञान का प्रकाश चारों तरफ फैलाकर मानव मात्र की सेवा करना हो।”

“अभिमान न कर, इन भोगों पर, इसको मिटते देर नहीं लगती। मंज़िल बनती हैं वर्षो में इसको गिरते देर नहीं लगती।